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विरोध-प्रदर्शन और चुनावी रणनीति बिगड़ने के डर से भाजपा ने सीएए को लटकाया?

अगर विधानसभा चुनावों के चलते सत्तारूढ़ दल ने सूबों में सीएए को फिर से याद दिलाया होता, तो उसके ख़िलाफ़ नागरिकों की एक बड़ी लामबंदी हो जाती।
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यह अजीब बात है कि केंद्र सरकार नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए)-2019 के क्रियान्वयन के लिए उसे कानूनी ढांचा देने में विफल हो गई है,  जबकि  यह विधेयक 10 जनवरी 2020 को ही अपने स्वरूप में आ गया था और इसके खिलाफ नागरिकों का राष्ट्रव्यापी धरना-प्रदर्शन हुआ था।  सीएए के विरोधियों ने यह माना था कि मोदी सरकार इस कानून को लागू करने के प्रति उदासीन है, क्योंकि इसे तभी लागू किया जा सकता है, जब इसकी जगह पर कुछ कानून बनाए जाएं। इसलिए कि सीएए पर जोर देने से देश की गलियों में दूसरे चरण के प्रदर्शन शुरू हो जाने का डर है।  फिर अंतरराष्ट्रीय समुदाय की बदनामी को न्योता देना होगा, जो इस नागरिकता नीति को भेदभावकारी मानती है। या, कि सरकार चूंकि किसान आंदोलनों से अभी मुब्तिला है,  लिहाजा नागरिकों के विरुद्ध वह दूसरा मोर्चा नहीं खोलना चाहती।
 
इस कानून को बनाने में हो रही देरी के बारे में सटीक कारणों को तय करना कठिन है।  यह भी कयास लगाया जा सकता है कि कोविड-19 वैश्विक महामारी ने सरकार को कानून बनाने  बनाने के लिए इत्मीनान का वक्त नहीं दिया होगा।  हालांकि यह भी हकीकत है कि भारतीय जनता पार्टी  सरकार के लिए 9 जुलाई के बाद नई नागरिकता नीति लाना मुफीद होगा जैसा कि सबोर्डिनेट लेजिसलेशन पर आधारित राज्यसभा की कमेटी ने  सीएए के लिए कानून बनाने  की अंतिम तिथि निर्धारित की है।

(जाहिर है कि सरकार 9 जुलाई के पहले कानून बना सकती है और उसे अधिसूचित कर सकती है, यद्यपि वह दोबारा इसकी अवधि बढ़ाए जाने की मांग कर सकती है।)

जून एक अच्छा महीना है,  जब तक तमिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल और असम  आदि राज्यों के विधानसभाओं के चुनाव सम्पन्न हो गए रहेंगे।  संयोग से ये चारों ऐसे राज्य रहे हैं, जहां सीएए विरोधी प्रदर्शन जम के हुए हैं। ऐसे में अगर केंद्र सरकार सीएए कानून बनाने और उसके क्रियान्वयन की कोशिश करती है तो नागरिकता नीति आगामी विधानसभा चुनावों के लिए एक गर्म  बटन दबा सकती है, जहां सत्ताधारी पार्टियां अपने-अपने कामों के आधार पर जनादेश लेने जा रही है। अखिल भारतीय स्तर की पार्टियां विधानसभा चुनावों में भी राष्ट्रीय मुद्दे ले आती है, जब वे मुतमईन होती हैं कि इससे उनको लाभ मिलने जा रहा है। केरल और तमिलनाडु में भाजपा हाशिए की पार्टी है, यहां वह चुनावी फायदे के लिए सीएए  मुद्दे को निचोड़ने का ख्याल किया है।
 
इसके विपरीत, भाजपा असम की  सत्ताधारी पार्टी है और  वह पश्चिम बंगाल  विधानसभा चुनाव जीतने के लिए जी-जान से कोशिश कर रही है।  केरल और तमिलनाडु से अलहदा सीएए को लेकर असम और पश्चिम बंगाल में दूसरी प्रतिध्वनि है, जिसकी अधिकांश सीमाएं बांग्लादेश से मिलती हैं, जहां से बड़ी संख्या में हिंदू आबादी  कई दशकों के दौरान सीमा पार कर इन राज्यों में घुस आए हैं।  ये शरणार्थी सीएए के तगड़े समर्थक हैं,  जो बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आए  बिना किसी वैध यात्रा कागजातों के 31 दिसंबर 2014 को भारत आए गैर मुस्लिम नागरिकों को अवैध शरणार्थी मानने से राज्यों को रोकती है। उन्हें न तो जेल में रखा जा सकता है और न उन्हें वापस उनके देश भेजा जा सकता है,  उनकी नागरिकता का पता लगाया जाना है। 

असम :  मुस्लिम कार्ड की वापसी 

यद्यपि,  इन शरणार्थियों का समर्थन  असम और पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों के पूर्व नये नागरिकता कानून का क्रियान्वयन  करने और यह करके उनका वोट हासिल करने के लिए भाजपा को उत्साहित नहीं किया।  दरअसल, इसकी एक वजह नागरिकों के विरोध की आशंका हो सकती है।  यद्यपि सीएए के खिलाफ भारत के अधिकांश हिस्सों में  होने वाले प्रदर्शनों में ज्यादातर मुस्लिम आबादी ने हिस्सा लिया,  जिसके बारे में भाजपा कोई  फिक्र नहीं करती,  लेकिन इसके विरोधियों में उन लोगों की भी तादाद ज्यादा है, जो अपने को मूल असमिया हिंदू कहते हैं।

 उनके विरोधों की जड़ असम में नागरिकता रजिस्टर लाने की तैयारी में अमल में लाई जाने वाली तारीख है-जो लोग भी 25 मार्च 1971 के बाद असम आए हैं, उन्हें अवैध  शरणार्थी घोषित कर दिया गया था। एनआरसी को 2019 के अगस्त में प्रकाशित किया गया था,  उसमें 1.9  मिलियन लोगों को इसके दायरे से बाहर रखा गया था, जिन्होंने अपने कागजात पेश कर दिए थे।  इनमें से 12 लाख लोग, जैसा कि दावा किया जाता है, बंगाली हिंदू हैं। सीएए के प्रभावी होने की तारिख 31 दिसंबर 2014 के साथ इन 12 लाख बंगाली हिंदुओं में से अधिकतर को नागरिकता मिलने की संभावना बलवती हो जाती है।
 
 सीएए को लागू करने के जरिए भाजपा को इन्हीं स्वदेशी असली हिंदुओं  के विश्वासघाती हो जाने का डर है,  जो पिछले 4 दशकों से  यह मांग करते रहे हैं कि 25 मार्च 1971 के बाद बांग्लादेश से असम आए अवैध शरणार्थियों की शिनाख्त की जाए और उन्हें प्रदेश से बाहर किया जाए, चाहे वे किसी भी धर्म के क्यों न हों।   2016 के विधानसभा चुनावों में असमिया हिंदुओं ने भाजपा के पक्ष में बढ़-चढ़कर मतदान किया था।  सीएए से स्तब्ध हुए ये लोग नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं के साथ इसके खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं और इन्होंने दिसंबर 2019 में असम के ज्यादातर इलाकों को ठप कर दिया था। भाजपा सरकार ने उनके विरोध-प्रदर्शन के प्रतीक बन चुके कृषक मुक्ति संग्राम समिति संगठन के संस्थापक अखिल गोगोई के विरुद्ध कार्रवाई करते हुए उन्हें गैर कानूनी गतिविधियों ( रोकथाम)  अधिनियम के तहत जेल में बंद कर दिया।

 सीआईए के लिए कानून  न बनाने के जरिए, भाजपा ने खौलते सियासी तापमान को कम करने और नागरिकता मसले  के विरोध में असमिया हिंदुओं को एकजुट होने से रोकने के लिए इससे मुद्दे से अलग रहना चाहा है। सीएए को पृष्ठभूमि में डालने के साथ भाजपा को जाति और वर्ग को अंतर्विरोधों, जो असमिया हिंदुओं में सामाजिक स्तर पर ज्यादा है, को भुनाने का मौका मिल गया है।  इसी तरह, यह मुसलमानों का हव्वा खड़ा कर  असमिया हिंदुओं और बंगाली हिंदुओं बांटने का प्रयास करती है,  जैसा कि उसके एक ताकतवर मंत्री के चुनावी अभियानों में  दिए गए वक्तव्यों से स्पष्ट होता है। 

सीएए का  क्रियान्वयन न किए जाने से बंगाली हिंदुओं में नाराजगी होगी,  जो भाजपा को अपने नागरिकता अधिकारों  का एक उत्कट रक्षक मानते हैं। इस तरह, सीएए लागू करने से होने वाले नुकसान असम में भाजपा को मिलने वाले लाभ से कहीं ज्यादा हैं। 

 पश्चिम बंगाल में अनिश्चितता 

पश्चिम बंगाल में भी बड़ी आबादी  उन हिंदुओं की है, जो बांग्लादेश से आए हैं।  उनमें नामाशूद्र  या मटुआ की है, जो अनुसूचित जातियों के एक उप समूह से ताल्लुक रखती हैं।  राज्य की कुल जनसंख्या में इनकी आबादी 23 फीसदी है। मटुआ राज्य की कुल अनुसूचित जाति  की 17.4  फ़ीसदी है, जो राज्य की 50 विधानसभा सीटों के निर्णय को प्रभावित करती है। यह जाति सीएए को लेकर ज्यादा उत्सुक है, क्योंकि इनमें से बड़े हिस्से ने 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को वोट दिया था। 

 मटुआ समुदाय  तब बहुत निराश हो गया था, जब  उसकी दखल वाले उत्तरी 24 परगना क्षेत्र में  केंद्रीय गृह मंत्री और भाजपा नेता अमित शाह की तय जनसभा स्थगित हो गई थी।  वे लोग उम्मीद कर रहे थे कि इस जन सभा में गृह मंत्री सीएए के क्रियान्वयन की  कोई तारीख पक्की करेंगे।  इसके कई दिनों बाद खबर मिली सीएए के लिए सरकार को कुछ और महीनों का समय चाहिए। सामाजिक कार्यकर्ता नीतीश विश्वास, जो अपने को मटुआ बताते हैं, ने कहा, “मटुआ अब यह जानते हैं कि सीएए का यह वादा भी मोदी के  हर एक व्यक्ति के खाते में 15 लाए रुपये देने की वादे की तरह है।  यद्यपि मटुआ ने 2019 के लोकसभा चुनावों में बड़ी तादाद में भाजपा को वोट दिया था। अब यह समर्थन बिखर जाएगा।” 

 यह माना जा रहा था कि भाजपा पश्चिम बंगाल में सीएए को लागू करेगी असम के परिणामों की फिक्र किए बगैर,  जो लोकसभा में 14 सीटें भी हैं। इसके विपरीत, पश्चिम बंगाल में 42 सीटें हैं। बंगाल में चुनाव जीतने या हारने के मनोवैज्ञानिक और राजनीतिक परिणाम होते हैं। तो भाजपा ने  2019 में  मिले अपने 40 फीसद वोट के विस्तार के लिए सीएए को  क्यों लागू नहीं किया? 

कोलकाता की प्रेसीडेंसी यूनिवर्सिटी में राजनीतिक विज्ञान के प्राध्यापक जाद महमूद कहते हैं, “भाजपा सीएए को विधानसभा चुनाव में केंद्रीय कुल्हाड़ी नहीं बनाना  चाहती है।” महमूद ने  बताया कि भाजपा ऐसा इसलिए नहीं करेगी क्योंकि 2019 20 में  सीएए  के खिलाफ पश्चिम बंगाल के व्यापक सामाजिक और विचारधारात्मक  परिदृश्य में विरोध प्रदर्शन हुआ था।  सीएए पर जोर देने से इन लोगों के फिर से एक साथ आ जाने की संभावना है। उन्होंने कहा, “ इससे भी बढ़कर यह कि भाजपा नहीं चाहती कि ममता बनर्जी के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोपों से वोटरों का ध्यान भटक कर सीएए की तरफ चला जाए।” 

कोलकाता में रहने वाले एक राजनीतिक विज्ञानी, जो अपना नाम जाहिर नहीं करना चाहते, उनका मानना है,  भाजपा सीएए कार्ड इसलिए नहीं खेलना चाहती क्योंकि इसके तुरूप का पत्ता होने को लेकर  उसे संदेह है।  उन्होंने कहा, “ भाजपा को यह मुफीद है कि वह तृणमूल को इस बिंदु तक कमजोर न करें, जहां इसका फायदा  उठाकर वामदल और कांग्रेस राज्य की राजनीति  में एक विकल्प हो जाएं। भाजपा  2024 के लोकसभा चुनावों के लिए अधिक ताकतवर तीर अपने तरकश में रखना चाहेगी।” 

 दस्तावेजों को लेकर दुविधा

सीएए  को कानून का रूप देने की धीमी  चाल की एक वजह यह भी हो सकती है कि इससे उन कुछ लोगों के नाराज हो जाने की आशंका है, जो इससे राहत की उम्मीद लगाए बैठे हैं।  सीएए  कानून जब कभी भी बनाए जाएंगे, उसमें इस प्रक्रिया को स्थापित करना होगा कि अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान में होने वाले धार्मिक उत्पीड़नों के चलते क्या गैर मुस्लिम भागकर यहां आए हैं। मतलब यह कि नागरिकता पाने के लिए बने खानों में उन्हें भारत आने का कारण लिखना पड़ेगा।  अनेक अवैध शरणार्थियों के लिए अपने मूल देशों में होने वाले धार्मिक उत्पीड़नों को साबित करना भी कठिन होगा। 

इंडियन एक्सप्रेस अखबार की रिपोर्ट  में एक सूत्र के हवाले से कहा है कि गैर मुस्लिम शरणार्थी को अपने विरुद्ध होने वाले धार्मिक अत्याचारों का सबूत नहीं देना पड़ेगा क्योंकि, “उसे सत्य मान लिया जाएगा।”  हालांकि,  फिर भी नागरिकता के आवेदकों को यह दस्तावेज दिखाना ही होगा कि वे अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आए हैं  और 2015 के पहले भारत आए थे। अनेक अवैध विस्थापितों के पास ऐसे भी कागजात नहीं हैं। नीतीश विश्वास ने कहा, “इसी के चलते मटुआ  सभी समुदाय के लोगों को नागरिकता दिलाना चाहता है कि कोई सवाल ही न पूछा जाए।”
 
 ऐसा मालूम होता है कि भाजपा सीएए कानून बनाने की प्रक्रिया धीमी रखेगी क्योंकि वह नहीं चाहती कि विधानसभा चुनाव के कुछ महीने पहले लोगों का धरना-प्रदर्शन शुरू हो जाए।  यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या भाजपा कानून बनाने के लिए जुलाई की तय समय-सीमा  का पालन करेगी या नहीं।  तब तक  2022 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों की गिनती शुरू हो जाएगी, जो उससे मात्र 6 महीने  बाद होगी। 

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)
 
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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