कृषि कानूनों के खात्मे से जुड़ी लड़ाई में शामिल दक्षिण भारत के किसानों की राय
धँसी हुई आँखें। आंध्रप्रदेश के विजयवाड़ा से आये लेनिन बाबू से जब कोई मिलता है तो जो पहली चीज उसके ध्यान में आती है, वह है उनकी धँसी हुई आँखें और दुर्बल शरीर। अंग्रेजी या हिंदी में वे शायद ही बातचीत करने की स्थिति में खुद को पाते हैं। इस सबके बावजूद वे अपने दक्षिण भारतीय शहर से 1,800 किलोमीटर दूर का सफर तय करके हाल ही में लागू किये गए कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलनरत किसानों के साथ एकजुटता जाहिर करने के लिए रेवाड़ी की हरियाणा-राजस्थान की सीमा पर शामिल हुए हैं। आंध्रप्रदेश के प्रकाशम और विजयनगरम जिलों के अन्य किसानों के साथ शामिल होकर बाबू प्रदर्शन स्थल पर एक दिवसीय भूख हड़ताल पर बैठे हैं।
केंद्र सरकार के इस दावे के विपरीत कि विवादास्पद कानूनों का विरोध सिर्फ उत्तर भारत के कुछ राज्यों के किसानों द्वारा किया जा रहा है, दक्षिणी राज्यों के किसान भारी संख्या में दिल्ली की सीमाओं पर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। अभी हाल ही में केरल से किसानों का एक जत्था शाहजहाँपुर सीमा पर पहुंचा है।
यह पूछे जाने पर कि उन्होंने क्यों किसान यूनियनों के सामूहिक मोर्चे - संयुक्त किसान मोर्चा के आह्वान पर क्रमिक भूख हड़ताल में शामिल होने का मन बनाया- पर उनका कहना था “मैं इस भूख हड़ताल के जरिये यह बताना चाहता हूँ कि उत्तर भारत के किसान, खास तौर पर पंजाब और हरियाणा के किसान ही इन अन्यायपूर्ण कानूनों के खिलाफ अपनी लड़ाई में अकेले नहीं हैं। ये कानून सारे देश भर के उपर लागू होते हैं और केंद्र के इन कुकृत्यों को हम सभी को भुगतने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। इन कानूनों से सिर्फ अडानी-अंबानी गठबंधन को ही फायदा पहुँचने वाला है, बाकी किसी को भी नहीं।”
एक किसान के तौर पर बाबू, जो सिर्फ एक एकड़ की जमीन पर अपनी फसल उगाते हैं का कहना है कि सीमान्ध्र क्षेत्र की मिट्टी इतनी उपजाऊ है कि यहाँ पर किसान गुणवत्ता पर कोई समझौता किये बिना भी साल में दो बार धान उगा सकते हैं।
वे कहते हैं कि हालाँकि पर्याप्त सरकारी मण्डियों के अभाव के साथ-साथ काश्तकार किसानों पर अत्याचारपूर्ण प्रथाओं के प्रचलन में होने की वजह से उनकी जिंदगियों में कहर बरपा हुआ है। उन्होंने बताया “सबसे नजदीकी एपीएमसी बाजार मेरे घर से दस किलोमीटर की दूरी पर है, जबकि फसल को ले जाना का भाड़ा काफी ऊँचा है। मैं अपने खेत से 25 कुंतल के करीब धान उगा लेता हूँ। फसल की बोआई से लेकर कटाई तक लगने वाली कुल लागत करीब 30,000 रूपये बैठती है। चूँकि बाजार मेरे यहाँ से दूर है, इसलिए मैंने अपना धान एक स्थानीय व्यापारी को 1,600 रूपये प्रति कुंतल की दर पर बेच दिया था, जबकि इसकी एमएसपी 1,950 रूपये प्रति कुंतल है। दिन रात की मेहनत के बाद जाकर कहीं मेरी 40,000 रूपये की बिक्री हो पाई है। बड़ी मुश्किल से मैं प्रति माह की औसत से 1,600 रूपये कमा पा रहा हूँ।”
वे आगे कहते हैं “काश्तकार किसान को जो कि किराये पर ली गई जमीन पर खेती करता है, को किराए के तौर पर जमीन के मालिक को 18 कुंतल धान देना पड़ता है। ऐसे में उसके पास आखिर क्या बचता है? एक एकड़ पर सात कुंतल मात्र। उनके लिए यह एक सिर्फ घाटे का ही सौदा बनकर रह गया है। सरकार भी उन्हें किसान के तौर पर पहचान न देकर कोई मदद नहीं करती है। जिन किसानों के पास जमीनें हैं उन्हें राज्य द्वारा एक कार्ड दिया गया है, जिससे कि उन्हें एक साल में तीन बार 4000 रूपये का आर्थिक सहयोग मिल जाता है। यही वजह है कि हम चाहते हैं कि मंडियां हमारे गाँवों के समीप में हों, और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद हो।”
अनुबंध खेती को लेकर जब उनके विचार जानने की कोशिश की तो बेहद तैश में आते हुए बाबू का कहना था कि कृषक समुदाय ने इसका स्वाद पहले से ही चख लिया है, और उनके लिए यह कहीं से भी फायदेमंद नहीं है। उन्होंने बताया “मेरे पड़ोस के गाँव में एक कंपनी ने किसानों के साथ झींगे की खेती के लिए 500 एकड़ जमीन पर अनुबंध किया था। यह अनुबंध 30 सालों के लिए था। अब किसानों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है क्योंकि वे अपने खेतों को ही नहीं पहचान पा रहे हैं।”
बाबू की बगल में बैठे बाला राजू, संसद में जब इन कानूनों को पेश किया जा रहा था तो उस दौरान अपने जन प्रतिनिधियों की भूमिका को लेकर वे निराश थे। उनका कहना था “आंध्रप्रदेश में दोनों ही पार्टियाँ, वो चाहे वाईएसआर कांग्रेस हो या तेलुगु देशम पार्टी, ये दोनों ही खुद को किसान-हितैषी होने का दावा करती हैं, लेकिन संसद में इन्होने इन कानूनों का समर्थन किया था। इनका असली चरित्र अब सबके सामने उजागर हो गया है।”
मुख्य मंच से कुछ ही दूरी पर जगदीश कुमार और नवीन सूर्या विरोध स्थल पर बने अपने तम्बू में विश्राम कर रहे थे। कर्नाटक के बेंगलुरु और मैसूरू से उनके दोस्त उनकी हौसला अफजाई के लिए आये हैं। राज्य में किसानों की दुर्दशा का वर्णन करते हुए सूर्या ने बताया कि बढ़ी हुई बिजली के बिल की संभावना को लेकर किसान बेहद खौफजदा हैं। प्रस्तावित विद्युत् (संशोधन) अधिनियम में सभी प्रकार की सब्सिडी को खत्म करने की अनुशंसा की गई है, जिसे लागू किये जाने का अर्थ होगा कि ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले किसानों को शहरी लोगों की तुलना में बिजली के कनेक्शन के लिए अधिक भुगतान करना पड़ेगा। सूर्या ने बताया कि 70% किसान छोटी जोतों के मालिक हैं और रागी, ज्वार, सब्जी, धान और तम्बाखू की खेती करते हैं।
उन्होंने दो एकड़ में ज्वार और एक एकड़ में रागी बोई थी। “ज्वार की बुआई की शुरुआत खेतों की जुताई और पानी देने से होती है, जिसमें प्रति एकड़ 1,700 रूपये की लागत आती है। इसके बीज बेहद महँगे हैं और इसमें 12,000 रूपये खर्च होते हैं। उर्वरकों एवं बुवाई में अतिरिक्त 3,000 रूपये की लागत लगती है। बीजों को हम कृषि व्यवसाय में शामिल अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी कारगिल इंक. से खरीदते हैं। इसकी बिक्री से जुड़े लोगों ने मुझे इसी कंपनी के बने कीटनाशकों को इस्तेमाल में लाने के लिए राय दी थी, जिसके लिए मुझे 5,000 रूपये खर्च करने पड़े थे। फसल की कटाई, छंटाई और किराये-भाड़े पर कुल 5,000 रूपये खर्च हुए थे। यदि आप इन सबको जोडें तो प्रति एकड़ मुझे 26,700 रूपये वहन करने पड़े। मुझे कुल 20 कुंतल उपज हासिल हुई थी जिसे मैंने 1,200 रूपये प्रति कुंतल की दर से बेचा था, और कुलमिलाकर मुझे प्रति एकड़ पर 2,700 रूपये का घाटा हुआ।”
कृषि में कॉर्पोरेट के प्रवेश के बारे में पूछे जाने पर सूर्या ने जोर देकर कहा कि किसान पहले से ही इंडोसल्फान की मार से पीड़ित हैं। “केरल द्वारा इस कीटनाशक पर प्रतिबंध लगा देने के बाद से पड़ोसी जिलों द्वारा इसका इस्तेमाल पहले से भी ज्यादा किया जाने लगा था। वहाँ की मिट्टी अब बर्बाद हो गई है। कॉर्पोरेट को तो सिर्फ अपने लाभ की ही चिंता रहती है। ये किसान हैं जिन्हें स्थायी तौर पर इस नुकसान को झेलना पड़ता है। अंग्रेजों के साथ इसे हम देख चुके थे। अब कॉर्पोरेट के साथ भी यही सब देखना बदा है।”
किसान नवीन सूर्या जो मैसूरू में तम्बाकू की पैदावार उगाते हैं, ने कहा कि शुरू-शुरू में तो मुनाफा नजर में आता है, लेकिन इसके लिए जो कीमत चुकानी पड़ती है वो बहुत भारी पड़ती है। वे कहते हैं “मेरे क्षेत्र के किसान कई वर्षों से आईटीसी के लिए तम्बाकू की खेती कर रहे हैं। यदि उपज बेहतर गुणवत्ता वाली हुई तो इसमें से एक किसान प्रति एकड़ खेती पर 1.5 लाख रूपये तक की बचत कर सकता है। गुणवत्ता के हिसाब से कंपनी इसकी ग्रेडिंग करती है। हालाँकि यह प्रक्रिया हमारे खेतों और शरीरों को भारी नुकसान पहुँचा रही है। मिट्टी को काफी नुकसान पहुँच रहा है। पत्तियों को चुनने की प्रक्रिया में लगातार 56 घंटों का समय लगता है। हमारे शरीरों को तम्बाकू का दुष्प्रभाव झेलना पड़ता है, वो भी बिना कोई सिगरेट जलाए। जो लोग किसानों से विरोध प्रदर्शन को स्थगित कर देने की माँग कर रहे हैं उन्हें यह जानने की आवश्यकता है कि खेती के लिए कितने समर्पण की जरूरत पड़ती है। यह हमारे अधिकारों का सवाल है। हम इसे इसके तार्किक परिणिति तक लेकर जायेंगे।”
हालाँकि विरोध स्थल पर सिर्फ तबाही और उदासी का ही मंजर नजर में नहीं आ रहा था। केरल के किसान जो कि 3,000 किलोमीटर का लंबा सफर तय कर बॉर्डर पर अपने किसान भाइयों के साथ जुड़ने के लिए आये थे, वे राज्य के वित्त मंत्री थॉमस इसाक द्वारा इस वर्ष धान की एमएसपी पर 100 रूपये की बढ़ोत्तरी की घोषणा को लेकर बेहद प्रसन्न नजर आये। त्रिशूर से यहाँ पर पहुंचे किसान सतीशन मराथ ने न्यूज़क्लिक से अपनी बात में कहा कि इस साल वे अपनी धान की फसल को 2,800 रूपये में बेच पायेंगे। वे आगे कहते हैं “यह एक अच्छी घोषणा है। नागरिक आपूर्ति विभाग द्वारा धान की खरीद की जायेगी, जिसे बाद में इसे निम्न-आय वर्ग के लोगों के बीच में पुनर्वितरित कर दिया जाएगा।”
मराथ जो नारियल की खेती करते हैं ने बताया कि खाड़ी के देशों से भेजे जाने वाले पैसे से उनके परिवारों को काफी राहत पहुँची है। वे बताते हैं “सरकार हमारी मददगार तो है लेकिन छोटे किसानों के पास अपना खुद का भरण-पोषण लायक कुछ ख़ास नहीं है। इसलिए उनके पास प्रवासन का विकल्प ही चुनाव के लिए बचता है। हालाँकि केंद्र ने आसियान समझौते पर दस्तखत कर राज्य की बहुसंख्यक आबादी के हितों पर विचार नहीं किया। हमारे मसाले दुनिया भर के व्यापारियों को लुभाते रहे हैं लेकिन आज उनका कोई खरीदार नहीं रहा। सरकार ने मसालों के आयात पर एक्साइज ड्यूटी घटा दी है। अन्य देश अपने मसालों का यहाँ पर डंप करते जा रहे हैं। रबर के साथ भी यही देखने को मिला, फिर काली मिर्च और अब काजू के साथ भी यही हो रहा है।”
मराथ 2010 में हुए भारत और आसियान देशों के बीच में हुए मुक्त व्यापार समझौते पर दस्तखत किये जाने का जिक्र कर रहे थे। किसान नेताओं का कहना है कि इस समझौते से राज्य में 82% किसानों को, जो नकदी फसलों की खेती करते हैं पर विनाशकारी प्रभाव पड़ा है।
यह पूछे जाने पर कि उन्होंने विरोध प्रदर्शन में शामिल होने को क्यों चुना, पर मराथ का कहना था “हम अपनी 80% जरूरत की चीजों को देश के बाकी हिस्सों से खरीदते हैं। इसलिए यदि यहाँ पर रहने वाले लोगों को कोई भी चीज प्रभावित करती है तो इसके दुष्परिणामों का असर हम पर भी पड़ना तय है। दूसरा, यही वही खेल है जिसे एक बार फिर से खेला जा रहा है। जब डीजल की कीमतों को नियन्त्रण-मुक्त किया गया था तो सरकार का इस बारे में कहना था कि बाजार के लाभों से उपभोक्ताओं को मदद मिलेगी। लेकिन दामों में सिर्फ उछाल ही देखने को मिली है। गैस सब्सिडी के सन्दर्भ में भी यही बात लागू होती है। किसी को भी इसका कोई फायदा नहीं पहुँचा है। मोदी किसे बेवकूफ बना रहे हैं? उन्हें यह बात अच्छी तरह से समझ में आ जानी चाहिए कि सरकार का बनना असल में लोगों और राजनेताओं के बीच का एक आपसी अनुबंध होता है। पिनाराई विजयन ने दो बार हमें बाढ़ से बचाया, बुजुर्गों अति आवश्यक सहायता मुहैय्या कराई है। बदले में लोग उन्हें बेहद पसंद करते हैं। यदि आप कुछ ऐसा करते हैं जो लोगों को स्वीकार्य नहीं है तो वे आपको गद्दी से उतार भी कर सकते हैं! याद रखें, यह एक आपसी सहमति वाला अनुबंध है!”
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करे
Farm Laws: Why Farmers from South India are Part of the Struggle to Repeal
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