कैसे कश्मीर, पाकिस्तान और धर्मनिर्पेक्षता आपस में जुड़े हुए हैं
मुझे एक सरल सा सवाल पूछना है। किसी देश के लिए नीति बनाने के लिए कितना ज्ञान काफी है? क्या कोई इस बात पर विश्वास करेगा कि भारतीय राज-सत्ता को कश्मीर समस्या के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं है? उत्तर: नहीं। इसी तरह, क्या कोई यह विश्वास करेगा कि भारत की खुफिया एजेंसियां देश के सुरक्षा से जुड़े महकमे को सीमा पार या घाटी के भीतर उत्पन्न होने वाले खतरों के बारे में अपने नए आकलन से नियमित रूप से अवगत नहीं कराती हैं? एक बार फिर से इसका उत्तर होगा: नहीं।
संक्षेप में कहा जाए तो, भारतीय राष्ट्र कश्मीर समस्या के अतीत और वर्तमान के बारे में अधिकांश भारतीयों की तुलना में बहुत बेहतर जानता है और निश्चित रूप से भारत के बाहर के लोगों की तुलना में तो और भी बेहतर जानता है। ऐसे में चुनौती यह है कि भविष्य के बारे में अनुमान कैसे लगाया जाए। इसलिए हम राज-कार्य पद्धति की प्रासंगिकता के बारे में शाश्वत बहस का सामना करते हैं। लेकिन वास्तव में राज-कार्य पद्धति क्या है? क्या हम इसका पूर्वाभास करते हैं? आइए इसके बारे में अनुमान लगाते हैं।
हम उस पुराने और लोकप्रिय वाक्यांश को याद करके शुरू कर सकते हैं—यह अर्थव्यवस्था है, बेवकूफ!—एक संदर्भगत मोड़। भारत के कश्मीर के मामले में: यह पाकिस्तान और धर्मनिरपेक्षता है, मूर्ख! यदि कोई जम्मू-कश्मीर की जनसांख्यिकी को बदलने और इसे हिंदू बहुल राज्य बनाने का सपना देख रहा है, तो बहुत ही विनम्रता से इसे बहुत ही भोलापन कहा जाएगा। जिस क्षेत्र में 68 प्रतिशत मुसलमान हों उसके बारे में ऐसा सोचना विचित्र है।
फिर भी, वे प्रेरणा के लिए आस-पास के उदाहरण देख सकते हैं। श्रीलंका ने एक बार कुछ तमिल-बहुल क्षेत्रों में सिंहली किसानों को बसाने के की ऐसी ही रणनीति को लागू करने का प्रयास किया था। बांग्लादेश ने भी बौद्ध बहुल चटगांव पहाड़ी इलाकों में बंगाली मुस्लिम किसानों को बसाया था। ये नीतियां एक हद तक सफल रहीं लेकिन अंततः दोनों देशों को पुन: संयोजनवाद को लेकर विद्रोह की बहुत बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा। श्रीलंका और बांग्लादेश ने जो कुछ भी छोटी सफलता हासिल की, वह बड़े पैमाने पर इन जनसांख्यिकीय खेलों में सबसे बड़ी संभावित हिस्सेदारी वाले पड़ोसी देशों द्वारा दिखाई गई उदासीनता (या सबसे अधिक कॉस्मेटिक चिंता) के कारण थी। अगर भारत या म्यांमार ने हस्तक्षेप किया होता, तो पुनर्वास नीतियों को शुरू में ही रोक दिया गया होता। यह आखिरी टिप्पणी है जो कश्मीर के मामले में विशेष रूप से प्रासंगिक है। उदासीन तो नहीं, दोनों संबंधित पड़ोसी भारत के प्रति शत्रुतापूर्ण हैं। उनमें से एक भारत से कम शक्तिशाली है, लेकिन दूसरा बहुत अधिक शक्तिशाली है। जो बात समस्या को बढ़ाती है वह यह कि शत्रुता न केवल संबंधपरक और कूटनीतिक है, बल्कि जमीन पर इसकी भौतिक अभिव्यक्ति भी है। अप्रैल 2020 से भारत-चीन सीमा को लेकर उबाल आया हुआ है। सैन्य स्तर की तेरह वार्ताओं से कोई सार्थक तालमेल नहीं बना या बहुत कम सफलता मिली है। बेशक, भारत-पाकिस्तान सीमा पर हमेशा गर्मा-गर्मी रहती है। अब उस मिश्रित मित्रता को देखें जिसका आनंद पाकिस्तान और चीन उठाते हैं और उनकी परमाणु शक्ति को देखें, तो जनसांख्यिकीय रणनीति की मूर्खता बहुत स्पष्ट हो जानी चाहिए।
एक अन्य हालिया घटना ने घाटी में वास्तविक हक़ीक़त को बदल दिया है - अफ़गानिस्तान में पाकिस्तान समर्थित तालिबान की जीत हुई है। भाजपा यह सोच सकती है कि उत्तर प्रदेश जैसी जगहों पर अपने हिंदुत्व समर्थक निर्वाचन क्षेत्र को मजबूत करने के लिए मुस्लिम विरोधी भावनाओं को भड़काकर वह नतीजे हासिल कर सकती है। विधानसभा चुनाव के कुछ ही महीने दूर हैं, इस तरह की आग की लपटें भाजपा के पतन को बचा भी सकती हैं, जिसे सुनिश्चित करने के लिए योगी आदित्यनाथ का रिकॉर्ड खराब हो रहा है, लेकिन पार्टी को कश्मीर में चल रहे बवंडर से फायदा उठाने के लिए समान रूप से तैयार रहना होगा। इसलिए घाटी में हाल की हिंसा-एक दर्जन नागरिकों और सेना के जवानों की मौत-को नियमित घटनाओं के रूप में खारिज नहीं किया जाना चाहिए। अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के बाद कश्मीर में मोदी की 'ऑल इज वेल' बयानबाजी स्पष्ट रूप से विफल रही है।
ऐसे में मोदी सरकार के लिए राजनीतिक चुनौती एक साथ दो घोड़ों की सवारी करने जैसा होगा। पहली चुनौती उनकी अनिवार्य मजबूत छवि के कारण उभरेगी, जिसके चलते वे कश्मीर में सख्त लाइन को लागू करने की छवी बनाए हुए हैं। लेकिन इससे स्थिति और भी उग्र हो सकती है और उग्रवाद की घटनाओं में वृद्धि हो सकती है। दूसरी चुनौती यह होगी कि घाटी में बढ़ती हुई हिंसा का सामना करने के लिए हिंदू गढ़ में होने वाली व्यापक प्रतिक्रिया को थामना होगा। दोनों के बीच संतुलन बनाए रखना मोदी की राजनीतिक परीक्षा होगी।
जैसा कि हम मोदी की कश्मीरी राजनीति की रूपरेखा या कार्य पद्विती के उभरने का इंतजार कर रहे हैं, मैं इस बारे में दो प्रस्ताव रखना चाहता हूं। मुझे सबसे पहले इस बात पर ध्यान देना होगा कि वे उन सभी बातों का खंडन कर रहे हैं जिन्हें नरेंद्र मोदी ने पिछले बीस वर्षों में अपने दिल से इतना प्रिय माना है (माना जाता है कि यह नवीनतम कहानी है जिसे सदा-सहनशील संसद टीवी द्वारा हम पर थोपा गया है)। फिर भी, मोदी जो मास्टर कम्युनिकेटर हैं, वे कहानी को अपने पक्ष में मोड़ सकते हैं। शायद वे अटल बिहारी वाजपेयी के तीन शब्दों वाले कश्मीर के कथन 'कश्मीरियत, इंसानियत, जम्हूरियत' राज्य में हिंदू-मुस्लिम सह-अस्तित्व का विस्तार करेंगे, भारतीयता को जोड़कर, अपने राष्ट्रवादी एजेंडे के साथ पूर्ण सामंजस्य स्थापित करेंगे।
मेरा पहला प्रस्ताव है: पाकिस्तान से वापस वार्ता शुरू की जाए। हमें इस बात को समझ लेना चाहिए कि पाकिस्तान को शामिल किए बिना कश्मीर समस्या का समाधान नहीं हो सकता है। वे सभी लोग जो इस धरती से पाकिस्तान का सफाया देखने का इंतजार कर रहे हैं, यह ध्यान रखना बेहतर होगा कि एक खंडित पाकिस्तान भारत के लिए बहुत बड़ा सिरदर्द बन सकता है। और फिर अखंड भारत का नारा भी एक बड़ी समस्या होगी: ऐसा होने पर रातोंरात, भारत के 14 प्रतिशत 'अवांछित' मुस्लिम समुदाय का आकार दोगुना होकर लगभग 30 प्रतिशत हो जाएगा, जिसका चुनावी राजनीति पर निर्णायक प्रभाव पड़ेगा। अगर बांग्लादेश के 135 मिलियन मुसलमानों को जोड़ लिया जाए तो हिंदू कट्टरपंथियों के लिए यह भूत और भी डरावना हो जाएगा।
उपरोक्त अवलोकन हमारी एक झूठी धारणा है कि पाकिस्तान एक असफल राष्ट्र है। जब भी कोई पाकिस्तान जाता है तो ऐसा कोई लक्षण वहां देखने को नहीं मिलता है। दक्षिण एशियाई अर्थव्यवस्थाओं के एक विद्वान, डॉ वोल्फगैंग पीटर-ज़िंगेल ने लिखा है कि: 'कुल मिलाकर, पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था आम तौर पर अपेक्षा से अधिक मजबूत है। पाकिस्तान नाजुक हो सकता है, लेकिन यह न तो विफल है और न ही निश्चित रूप से, एक असफल देश है। कम से कम इसकी अर्थव्यवस्था तो 'टिकाऊ' है।
पाकिस्तान को वार्ता की मेज पर वापस लाना इतना मुश्किल नहीं हो सकता है। पाकिस्तान को सार्क पर रुकी हुई प्रक्रिया को वापस चालू करने का प्रस्ताव देने के लिए भारत को पिछले दरवाजे से कूटनीति करनी चाहिए। नवंबर 2016 (14 मार्च 2020 के कोविड-संबंधित वीडियो कॉन्फ्रेंस को छोड़कर) के बाद से कोई बात नहीं हुई है, जब भारत की जिद के कारण, पाकिस्तान 19वें सार्क शिखर सम्मेलन की अध्यक्षता हासिल करने में असमर्थ रहा था। एक बार वार्ता प्रस्तावित होने के बाद, भारत को अनुकूल प्रतिक्रिया देनी चाहिए। मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि पाकिस्तान भी भारत के साथ अपने संबंधों को सामान्य बनाने का इच्छुक हो सकता है बशर्ते स्वतंत्र विचार के तालिबान के नेतृत्व वाले अफ़गानिस्तान से निपटने के दबाव को संतुलित कर लिया जाता है।
इस बात के कुछ संकेत पहले से मिल रहे हैं कि भारत इस तरह के कदम की तैयारी कर रहा है। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने दिसंबर में लोक लेखा समिति (पीएसी) के शताब्दी समारोह के लिए पाकिस्तान सीनेट के अध्यक्ष सादिक संजरानी को आमंत्रित किया है, जो पाकिस्तान सेना के करीबी माने जाते हैं। यह एक बुरी शुरुआत नहीं है।
मेरा दूसरा प्रस्ताव एक धर्मनिरपेक्ष विचार की तरफ लौटना है। धर्मनिरपेक्षता को नकारना और हिंदुत्व की कोरी बयानबाजी को बढ़ावा देना अंततः दक्षिण एशिया के सामाजिक ताने-बाने को बर्बाद करना है। मेरे हिसाब से, भारत वास्तव में अपनी धर्मनिरपेक्षतावादी सोच के जरिए पाकिस्तान को शर्मिंदा कर सकता है, जो देश की संकटग्रस्त उदारवादी ताकतों को मजबूत करेगा।
दूसरी ओर, हिंदुत्व को बढ़ावा देना, पाकिस्तान के सैन्य-नौकरशाही एजेंसी द्वारा बिछाए गए जाल में फँसने के बराबर है, जिसका खुद का तर्क है कि राष्ट्र और इस्लाम एक ही चीज हैं (भारतीय संदर्भ में, यह राष्ट्र और हिंदू धर्म होगा)। यह उनकी समस्या है कि उन्होंने अपने बांग्लादेश के अनुभव से कुछ नहीं सीखा है। हमें उनकी गलती की नकल नहीं करनी चाहिए और ऐसा कर कश्मीर के संकट को न बढ़ाएं। भारतीयों को एक बार भी यह विश्वास नहीं करना चाहिए कि भारत की क्षेत्रीय अखंडता पत्थर में अंकित है। विश्व इतिहास ने हमें इस बारे में बहुत कुछ सिखाया है कि इस तरह के पाखंड देश को कहाँ ले जाते हैं।
इसका निष्कर्ष इस कहावत में है कि कोई भी अपना दोस्त चुन सकता है लेकिन अपने रिश्तेदार नहीं चुन सकता है। इसी तरह, कोई अपनी राजनीति चुन सकता है, लेकिन इतिहास और भूगोल नहीं चुन सकता है। भारत के इतिहास और भूगोल ने तय कर दिया है कि यह धर्मनिरपेक्ष बना रहेगा। इसे क्षेत्रीय नजरिए से देखा जाए तो पूरे दक्षिण एशियाई क्षेत्र की भी यही हक़ीक़त है। और अगर भारत में धर्मनिरपेक्षता विफल हो जाती है, तो यह इस क्षेत्र में हर जगह विफल हो जाएगी। यदि हम धर्मनिरपेक्षता को त्याग देते हैं, तो हम अफ़गानिस्तान को एक समावेशी समाज बनाने, या तमिल शिकायतों को समायोजित करने के लिए सिंहली कट्टरपंथियों की अक्षमता के बारे में, या पाकिस्तान के बारे में हिंदु अल्पसंख्यक के अधिकारों का अनादर करने के बारे में शिकायत नहीं कर सकते हैं। स्टेट्समैनशिप गैलरी में खेलने की तुलना से कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण बात है।
लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़, नई दिल्ली में सीनियर फ़ेलो हैं और पहले आईसीएसएसआर नेशनल फ़ेलो राह चुके हैं और साथ ही जेएनयू में दक्षिण एशियाई अध्ययन के प्रोफ़ेसर हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।
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