शिक्षा: जातिगत भेदभाव और हिंसा को समाप्त करने के लिए तमिलनाडु का प्रयास
न्यायमूर्ति के चंद्रू तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन के साथ नज़र आ रहे हैं(फोटो साभार: सबरंग इंडिया)
जाति आधारित भेदभाव, जो भारत में एक सतत चलने वाला मुद्दा है, तमिलनाडु के स्कूलों में विशेष रूप से परेशान करने वाला है। पढ़ाई और विकास को बढ़ावा देने के लिए बनाया गया यह माहौल पूर्वाग्रह और सामाजिक ऊंच-नीच से ग्रसित है। इस चुनौती से निपटने और अधिक समावेशी शैक्षिक प्रणाली बनाने की दिशा में न्यायमूर्ति के. चंद्रू की अध्यक्षता में एक सदस्यीय समिति का गठन एक महत्वपूर्ण कदम है।
इस समिति की सिफारिशें प्रशासनिक सुधारों और शिक्षण-प्रशिक्षण से लेकर पाठ्यक्रम में बदलाव लाने और छात्र आचरण के रेगुलेशन तक के विभिन्न पहलुओं को निशाना बनाती हैं। इसका आखिरी मक़सद जाति-आधारित पूर्वाग्रहों को खत्म करना और डॉ. बी.आर. अंबेडकर के प्रगतिशील समाज के दृष्टिकोण के अनुरूप सामाजिक न्याय स्थापित करना है।
यह लेख समिति की स्थापना के पीछे के कारणों, स्कूलों में जाति पहचान के खतरों और अधिक समतापूर्ण शैक्षिक वातावरण के लिए प्रस्तावित समाधानों पर गहराई से चर्चा करता है।
एक सदस्यीय समिति: न्यायमूर्ति के. चंद्रू
मद्रास उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति के. चंद्रू को तमिलनाडु के स्कूलों में जाति आधारित भेदभाव और हिंसा की जांच करने और उसका समाधान खोजने के लिए एक सदस्यीय समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया है। समिति को शैक्षणिक संस्थानों में समावेशी, न्यायसंगत और गैर-भेदभावपूर्ण वातावरण बनाने के लिए सिफारिशें देने का काम सौंपा गया था। न्यायमूर्ति चंद्रू ने मंगलवार, 18 जून, 2024 को चेन्नई में सचिवालय में मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन को अपनी रिपोर्ट सौंपी, जिसमें स्कूल शिक्षा मंत्री अंबिल महेश पोय्यामोझी, मुख्य सचिव शिव दास मीना और अन्य लोग मौजूद थे।
जाति के नाम और पहचान: उनकी भूमिका और महत्व
जाति के नाम और पहचान ऐसे प्रतीक हैं जो किसी व्यक्ति की जातिगत पहचान को दर्शाते हैं। ये पहचान स्पष्ट हो सकते हैं, जैसे कि विशिष्ट रंग, प्रतीक या संबंधित सामान, या जो निहित है, जैसे कि व्यवहार और प्रथाएं जो जाति से जुड़ाव को दर्शाती हैं। तमिलनाडु में, छात्र अक्सर इन पहचानों का इस्तेमाल अपनी जाति के गौरव और पहचान को दर्शाने के लिए करते हैं, जिससे शैक्षणिक माहौल के भीतर विभाजन और भेदभाव पैदा होता है।
ऐसे पहचानों के उदाहरणों में रंगीन कलाई बैंड, बालों के रिबन, बिंदी (सिंदूर लगाना) और विशिष्ट प्रकार के कपड़े शामिल हैं। प्रत्येक रंग संयोजन या सहायक वस्तु किसी विशेष जाति से जुड़ी होती है। उदाहरण के लिए, लाल और पीले रंग के कलाई बैंड थेवर जाति के सदस्यों द्वारा पहने जा सकते हैं, जबकि नीला और हरा नादर जाति का संकेत हो सकता है। ये जाति की पहचान के रूप में काम करते हैं और अक्सर अन्य जातियों पर प्रभुत्व या श्रेष्ठ होने का दावा करने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं।
जाति के नाम और पहचान, लोगों को जाति व्यवस्था में उनकी स्थिति की लगातार याद दिलाकर सामाजिक पदानुक्रम को कायम रखते हैं। इसके बेजा इस्तेमाल से भेदभाव और असमानता आम होता है।
जब छात्र रंगीन कलाई बैंड, हेयर रिबन या विशिष्ट प्रकार के कपड़ों जैसे जातिगत पहचान का इस्तेमाल करते हैं, तो यह उन्हें अलग-अलग समूहों में अलग-थलग कर देता है। यह दृश्य विभाजन "हम बनाम वे" के माहौल को बढ़ावा दे सकता है, जिससे अंतर-जातीय प्रतिद्वंद्विता को बढ़ावा मिलता है। जातिगत पहचान का इस्तेमाल अक्सर ऐसे व्यवहारों के साथ होता है जो एक जाति के दूसरे पर प्रभुत्व या श्रेष्ठ होने का दावा करते हैं। यह बदले में दादागिरी, शारीरिक हिंसा और सामाजिक बहिष्कार के अन्य रूपों में प्रकट होता है। जातिगत पहचान स्कूलों के भीतर एक सुसंगत और समावेशी समुदाय के विकास में बाधा डालते हैं।
जातिगत नाम और पहचान हटाने की सिफारिशें
प्रस्तुत की गई सिफारिशों का उद्देश्य जाति-आधारित भेदभाव को संबोधित करना और कम करना तथा शैक्षणिक संस्थानों में समावेशी, न्यायसंगत और गैर-भेदभावपूर्ण वातावरण को बढ़ावा देना है। प्रस्तावित उपाय शैक्षणिक प्रणाली के विभिन्न पहलुओं को शामिल करते हैं, जिसमें प्रशासनिक सुधारों और शिक्षक प्रशिक्षण से लेकर पाठ्यक्रम में बदलाव और छात्र आचरण रेगुलेशन की सिफ़ारिश की गई है। इसका आखिरी मक़सद जाति-आधारित पूर्वाग्रहों को मिटाना और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देना है, जो डॉ. बी.आर. अंबेडकर के निरंतर विकसित होते समाज के दृष्टिकोण के अनुरूप है जो बदलाव को अपनाता है और व्यापक भलाई के लिए पुराने मानकों को संशोधित करता है।
जातिगत नाम और पहचान से उत्पन्न खतरों को देखते हुए, न्यायमूर्ति के. चंद्रू की अध्यक्षता वाली एक सदस्यीय समिति ने अधिक समावेशी और समतापूर्ण शैक्षिक वातावरण को बढ़ावा देने के लिए उन्हें समाप्त करने की सिफारिश की है। और यहां की गई प्रमुख सिफारिशों में निम्न शामिल हैं:
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जाति पहचान हटाने के लिए प्रशासनिक आदेश: सरकारी और निजी स्कूलों को अपने नाम से जाति उपसर्ग या प्रत्यय हटाने का निर्देश दिया जाना चाहिए। इस कदम का उद्देश्य स्कूल की पहचान के भीतर जाति की किसी भी औपचारिक मान्यता को खत्म करना है, जो समावेशिता के लिए एक मिसाल कायम करता है।
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छात्रों के बीच जाति चिन्हों का निषेध: विद्यालयों को छात्रों को जाति से संबंधित प्रतीकों को पहनने या प्रदर्शित करने से रोकने के लिए सख्त नियम लागू करने चाहिए, जैसे कि कलाई पर बैंड बांधना, बालों में रिबन लगाना या बिंदी के विशिष्ट रंग। यह उपाय जाति के दृश्यमान संकेतकों को कम करने का प्रयास करते हैं जो विभाजन और भेदभाव का कारण बन सकते हैं।
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जाति संबंधी जानकारी की गोपनीयता: छात्रों की जातिगत पृष्ठभूमि की गोपनीयता बनाए रखने के लिए नीतियां बनाई जानी चाहिए। ऐसा करके, स्कूल जाति-आधारित अलगाव को रोका जा सकता है और यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि सभी छात्रों के साथ उनकी जाति की परवाह किए बिना समान व्यवहार किया जाए।
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सामाजिक न्याय और समानता को बढ़ावा देना: शैक्षणिक पाठ्यक्रम में सामाजिक न्याय, समानता और गैर-भेदभाव पर पाठ शामिल करने के लिए संशोधन किया जाना चाहिए। यह शिक्षा, छात्रों को जातिगत भेदभाव के नकारात्मक प्रभावों को समझने और आपसी सम्मान और समावेश की संस्कृति को बढ़ावा देने में मदद कर सकती है।
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आचार संहिता को लागू करना: छात्रों और शिक्षकों दोनों के लिए एक आचार संहिता स्थापित करना महत्वपूर्ण है जो जाति-आधारित भेदभाव और व्यवहार को स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित करती है। इस संहिता में उल्लंघन के परिणामों को शामिल किया जाना चाहिए ताकि अनुपालन और जवाबदेही सुनिश्चित हो सके।
समिति द्वारा दी गई अन्य सिफारिशें
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शिक्षक और अधिकारी के रेगुलेशन: विशिष्ट क्षेत्रों में किसी एक जाति के वर्चस्व को रोकने के लिए शिक्षकों और अधिकारियों को वक़्त-वक़्त पर स्थानांतरण की सिफारिश की गई थी। दिशा-निर्देशों में यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि ऊंचे पदों पर बैठे शिक्षा अधिकारी अपने क्षेत्र की प्रमुख जाति से संबंधित न हों। शिक्षक भर्ती बोर्ड (टीआरबी) को भर्ती के दौरान सामाजिक न्याय के प्रति उम्मीदवारों के दृष्टिकोण पर विचार करना चाहिए, और शिक्षकों और कर्मचारियों के लिए एक वैधानिक रूप से निर्धारित आचार संहिता शुरू की जानी चाहिए। सामाजिक मुद्दों और भेदभाव से संबंधित कानूनों पर वार्षिक प्रशिक्षण/अभिविन्यास कार्यक्रम भी अनिवार्य होना चाहिए।
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स्कूलों का एकीकृत नियंत्रण: सभी प्रकार के स्कूलों को स्कूल शिक्षा विभाग के एकीकृत नियंत्रण में लाना भी एक महत्वपूर्ण सिफारिश थी। इस नीति का उद्देश्य प्रशासन को सुव्यवस्थित करना और सभी स्कूलों में एक समान मानक सुनिश्चित करना है। इस बदलाव की निगरानी और शिक्षकों की सेवा शर्तों से संबंधित मुद्दों को हल करने के लिए उच्च-स्तरीय अधिकारियों की एक समिति की आवश्यकता हो सकती है।
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शिक्षक प्रशिक्षण और पाठ्यक्रम में बदलाव: समावेशीपन पर ध्यान केंद्रित करने के लिए बी.एड. पाठ्यक्रम और डिप्लोमा इन एलीमेंट्री एजुकेशन में संशोधन की सिफारिश की गई। गलत विचारों को खत्म करने और सामाजिक न्याय मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए एक विशेषज्ञ समिति को स्कूल के पाठ्यक्रम की समीक्षा करनी चाहिए। सामाजिक न्याय के मुद्दों से संबंधित पाठ्यक्रम परिवर्तनों की निगरानी के लिए एक सामाजिक न्याय निगरानी समिति की स्थापना का भी सुझाव दिया गया है।
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मोबाइल फोन प्रतिबंध और आरा नेरी कक्षाएं: विद्यालय परिसरों में छात्रों द्वारा मोबाइल फोन के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाने से ध्यान भटकाने वाली गतिविधियों को कम करने और कक्षा 6 से कक्षा 12 तक अनिवार्य आरा नेरी कक्षाएं शुरू करने का सुझाव दिया गया, जिसमें सामाजिक न्याय, समानता और गैर-भेदभाव पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा। इन अवधारणाओं के प्रभावी ढंग से शिक्षण को सुनिश्चित करने के लिए एक मार्गदर्शिका तैयार की जानी चाहिए।
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परामर्शदाताओं और स्कूल कल्याण अधिकारियों की नियुक्ति: प्रत्येक ब्लॉक के लिए प्रशिक्षित परामर्शदाताओं और बड़े स्कूलों के लिए स्कूल कल्याण अधिकारियों (एसडब्ल्यूओ) की नियुक्ति का प्रस्ताव किया गया था ताकि रैगिंग, नशीली दवाओं के दुरुपयोग और जातिगत भेदभाव जैसे मुद्दों का समाधान किया जा सके। इन अधिकारियों को स्कूल की गतिविधियों की निगरानी करनी चाहिए, अभिविन्यास कार्यक्रम आयोजित करने चाहिए और सीधे राज्य स्तरीय निगरानी समिति को रिपोर्ट करनी चाहिए।
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शिकायत तंत्र और आरक्षण नीतियां: SWO द्वारा प्रबंधित एक समर्पित शिकायत बॉक्स की स्थापना करने की सख्त गोपनीयता वाली सिफ़ारिश की गई। अनुसूचित जाति के छात्रों के लिए विज्ञान विषयों को आगे बढ़ाने के लिए उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं में सीटों का आरक्षण सुनिश्चित करने का भी प्रस्ताव किया गया। राष्ट्रीय सेवा योजना (NSS) का विस्तार करके 9वीं से 12वीं कक्षा तक के छात्रों को शामिल करना और सामाजिक न्याय छात्र बल (SJSF) की स्थापना करना सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के उद्देश्य से अतिरिक्त उपाय हैं।
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केंद्रीकृत रसोई और स्कूल की संपत्तियों का इस्तेमाल: स्कूल से जुड़े भोजन कार्यक्रमों के लिए ब्लॉक-स्तरीय केंद्रीय रसोई बनाने की सिफारिश की गई थी, जिसमें उचित स्टाफ और वितरण का नेटवर्क शामिल हो, ताकि कार्यकुशलता में सुधार हो और आपदा राहत प्रयासों को समर्थन मिले। गैर-शैक्षणिक उद्देश्यों के लिए स्कूल की संपत्तियों के इस्तेमाल को रोकने के लिए नियम बनाए जाने चाहिए, खासकर सांप्रदायिक या जाति-संबंधी संदेशों को फैलाने वाली गतिविधियों पर रोक जरूरी है।
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जातिगत अत्याचारों को संबोधित करना और सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देना: राज्य सरकार को जातिगत अत्याचारों से ग्रस्त क्षेत्रों का आकलन करना चाहिए और निवारक उपाय करने चाहिए। जातिगत हिंसा के बारे में जानकारी इकट्ठा करने के लिए एक विशेष खुफिया इकाई का गठन किया जाना चाहिए। शिक्षा के भगवाकरण के आरोपों की जांच एक विशेषज्ञ निकाय द्वारा की जानी चाहिए। अंत में, सरकार को जातिगत भेदभाव को खत्म करने और सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए सामाजिक स्तर पर उचित कदम उठाने चाहिए।
समिति की जरूरत: संदर्भ और पृष्ठभूमि
एक सदस्यीय समिति की स्थापना कई परेशान करने वाली घटनाओं के बाद की गई थी, जिसने स्कूलों में जाति-आधारित भेदभाव के लिए एक व्यापक दृष्टिकोण की तत्काल आवश्यकता को उजागर किया था। अगस्त 2023 में, नांगुनेरी में छह नाबालिगों के एक समूह ने दो दलित बच्चों पर क्रूर हमले कर शैक्षणिक माहौल में जाति-आधारित हिंसा की गंभीरता को उजागर किया था।
तमिलनाडु अस्पृश्यता उन्मूलन मोर्चा (TNUEF) ने 441 स्कूलों में एक अध्ययन किया, जिसमें व्यापक जाति-आधारित हिंसा और भेदभाव का खुलासा हुआ। सरकारी, सरकारी सहायता प्राप्त और निजी स्कूलों को कवर करने वाले इस अध्ययन में पाया गया कि छात्रों के बीच जाति-आधारित भेदभाव काफी प्रचलन में था और चिंताजनक बात यह है कि कुछ शिक्षकों द्वारा इसे बढ़ावा दिया जाता था।
तमिलनाडु अस्पृश्यता उन्मूलन मोर्चा (टीएनयूईएफ) द्वारा किए गए अध्ययन के निष्कर्ष
विभिन्न जिलों के 25 स्कूलों में छात्रों के बीच जातिगत हिंसा की सूचना मिली है। छात्रों ने खुलेआम जातिवादी भावनाएं व्यक्त कीं, अपनी जाति के आधार पर समूह बनाए और अपनी जाति को दर्शाने के लिए रूमाल, बिंदी, धागे और स्टिकर के विशिष्ट रंगों का इस्तेमाल किया। अध्ययन में छात्रों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले 34 प्रकार के जाति-प्रतीकात्मक संकेतों की पहचान की गई है।
15 स्कूलों में दलित छात्रों को स्कूल के शौचालय साफ करने के लिए कहा गया, जबकि यह काम अन्य जातियों के छात्रों को नहीं सौंपा गया था। छह स्कूलों में छात्रों को जाति के आधार पर अलग-अलग लाइनों में खड़ा करके मध्याह्न भोजन दिया जाता था और चार स्कूलों में भोजन कक्षों को जाति के आधार पर अलग किया जाता था। इस तरह की प्रथाएं दलित छात्रों को अपमानित करती हैं और युवा मन में जातिगत पदानुक्रम को मजबूत करती हैं।
अध्ययन में पाया गया कि कम से कम तीन स्कूलों में शिक्षकों के साथ जाति-आधारित भेदभाव किया जाता है। शिक्षकों ने कक्षाओं में जाति-आधारित भेदभाव को सक्रिय रूप से बढ़ावा दिया, दलित छात्रों को छूने से मना कर दिया और उन्हें अत्यधिक दंड दिया। मदुरै में, एक स्कूल ने कक्षा 12 के टॉपर्स के लिए सम्मान समारोह रद्द कर दिया क्योंकि शीर्ष दो रैंक पाने वाले दलित थे, जो शिक्षकों के बीच गहरे पूर्वाग्रहों को और दर्शाता है।
नांगुनेरी कस्बे में एक मामला परैयार जाति के 17 वर्षीय दलित लड़के से जुड़ा था, जिसे उसके थेवर जाति के तीन सहपाठियों ने मौत के घाट उतार दिया था। यह हमला कई सालों तक चली दादागिरी के बाद हुआ था और पीड़ित द्वारा अपने साथ हुए उत्पीड़न के बारे में दर्ज कराई गई शिकायत के बाद हुआ था। हमलावरों ने बिना किसी पश्चाताप के, योजनाबद्ध और क्रूर तरीके से लड़के पर बिलहुक से हमला किया। पीड़ित और उसकी मां द्वारा स्कूल प्रशासन से मदद मांगने के प्रयासों के बावजूद, कोई कार्रवाई नहीं की गई, जिसके कारण क्रूर हमला हुआ। यह घटना इस बात का एक स्पष्ट उदाहरण है कि जाति-आधारित दादागिरी किस तरह जानलेवा हिंसा में बदल सकती है।
ये भयावह उदाहरण एक व्यक्ति समिति कमेटी की सिफारिशों को लागू करने की तत्काल आवश्यकता को उजागर करते हैं। नांगुनेरी में क्रूर हमला और TNUEF अध्ययन द्वारा दर्ज जातिगत भेदभाव की व्यापकता छात्रों की भलाई और शैक्षिक अवसरों पर विनाशकारी प्रभाव को दर्शाती है। इन मुद्दों की अनदेखी करने से डर और पूर्वाग्रह की संस्कृति पनपती है, जिससे दलित छात्रों की सुरक्षा खतरे में पड़ती है और उनकी क्षमता बाधित होती है। समिति की सिफारिशों को लागू करना - जाति पहचान को खत्म करने से लेकर शिक्षा के माध्यम से सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने तक - केवल एक अधिक समावेशी वातावरण को बढ़ावा देने के बारे में नहीं है, यह शिक्षा के मौलिक अधिकार की रक्षा और हिंसा को रोकने के बारे में है। यह एक ऐसे भविष्य की ओर एक महत्वपूर्ण कदम है जहां तमिलनाडु के स्कूल सभी छात्रों को, जाति की परवाह किए बिना, उनकी पूरी क्षमता तक पहुंचने के लिए सशक्त बनाते हैं।
एक सदस्य समिति के दीर्घकालिक लक्ष्य
प्रस्तुत रिपोर्ट में तीन दीर्घकालिक लक्ष्य रेखांकित किये गए हैं।
सबसे पहले, क्या तमिलनाडु में विशेष कानून लागू करने से सामाजिक समावेश की नीति लागू होगी और सभी शैक्षणिक स्तरों पर जातिगत भेदभाव समाप्त होगा? इस कानून में छात्रों, शिक्षण और गैर-शिक्षण कर्मचारियों और प्रबंधन पर कर्तव्य और जिम्मेदारियां लागू होनी चाहिए। इसमें लागू न करने पर नियंत्रण और दंड का तंत्र शामिल होना चाहिए।
दूसरा, प्राथमिक शिक्षा पर स्थानीय निकायों का नियंत्रण बढ़ाना है। इसमें प्राथमिक विद्यालयों के प्रबंधन पर ब्लॉक-स्तरीय प्रशासन (पंचायत संघों) को पूर्ण अधिकार प्रदान करना शामिल है, जिसमें कर्मचारियों की नियुक्ति, पदस्थापना और निष्कासन शामिल है। इस परिवर्तन को सुगम बनाने के लिए, सरकार को स्थानीय निकायों को वास्तविक स्वायत्त शक्तियां प्रदान करने वाला नया कानून बनाना चाहिए। इसके लिए 1994 के मौजूदा तमिलनाडु पंचायत अधिनियम में संशोधन की आवश्यकता हो सकती है। स्थानीय निकायों को प्राथमिक शिक्षा पर पूर्ण नियंत्रण प्रदान करके, सरकार एक अधिक जन-उन्मुख शिक्षा प्रणाली बना सकती है जो स्थानीय समुदायों की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं के साथ बेहतर ढंग से जुड़ी हो।
तीसरा, तमिलनाडु सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, 1975 में संशोधन करना है, ताकि शैक्षणिक संस्थानों के नामों में जातिगत पदनामों को रोका जा सके। यह संशोधन यह सुनिश्चित करेगा कि शैक्षणिक संस्थान शुरू करने की इच्छा रखने वाली सोसायटी अपने नामों में जाति-आधारित पहचानकर्ता शामिल न करें।
निष्कर्ष
एक सदस्य समिति की सिफारिशें तमिलनाडु के स्कूलों में जाति-आधारित भेदभाव को खत्म करने के लिए एक रोडमैप पेश करती हैं। जातिगत पहचान को खत्म करके, पाठ्यक्रमों को संशोधित करके और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को बढ़ावा देकर, प्रस्तावित उपायों का उद्देश्य वास्तव में समावेशी शैक्षिक वातावरण बनाना है।
इन सिफारिशों की सफलता प्रभावी क्रियान्वयन और सभी व्यक्तियों की अंतर्निहित समानता को मान्यता देने की दिशा में सामाजिक बदलाव पर निर्भर करती है। जाति-आधारित भेदभाव को खत्म करने के लिए शैक्षणिक प्रथाओं, शिक्षकों की मानसिकता और व्यापक सामाजिक मानदंडों को संबोधित करने वाले बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
यदि इसे प्रभावी ढंग से लागू किया जाए, तो एक सदस्य समिति का दृष्टिकोण एक ऐसे भविष्य का मार्ग प्रशस्त कर सकता है, जहां तमिलनाडु के स्कूल जाति की परवाह किए बिना सभी छात्रों के लिए शिक्षा, अवसर और सामाजिक न्याय के गढ़ बन जाएंगे।
साभार: सबरंग इंडिया
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