विश्लेषण: ये इकतरफ़ा पाबंदियां एक जुर्म है
मोदी के यूक्रेन के दौरे के दौरान (हालांकि यह भी एक रहस्य ही है कि वर्तमान परिस्थितियों में उन्होंने यूक्रेन का यह दौरा किया ही क्यों) जेलेंस्की ने भारत से आग्रह किया कि उसे पश्चिमी पाबंदियों का उल्लंघन कर, रूस से तेल नहीं खरीदना चाहिए यानी पश्चिम की ‘इकतरफा’ पाबंदियों का अनुसरण करने लगना चाहिए।
आइए, क्षण भर को हम यह सुझाव देने वाले की खुद अपनी पहचान क्या है इसे भूल जाते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि यह सुझाव ऐसे शख्स ने दिया है, जो दूसरे विश्व युद्ध के दौरान, नाजियों के कुख्यात मददगार, स्तेपान बंडेरा के अनुयाइयों की मदद से, यूक्रेन पर राज कर रहा है। आइए, हम यह भी भूल जाते हैं कि उक्त सलाह वहां किन हालात के संदर्भ में दी गयी है। वहां एक युद्ध चल रहा है जो नाटो की इसकी जिद की वजह से छिड़ा है कि वह अपना विस्तार पूर्व की ओर रूस की सीमाओं तक करेगा, जोकि उस वादे को तोडक़र किया जा रहा है, जो सोवियत संघ के पराभव के समय गोर्बाचोव से बुश ने किया था। इतना ही नहीं, इस युद्ध को आसानी से रोका जा सकता था, बशर्ते रूस तथा यूक्रेन के बीच हुई वार्ताओं के जरिए हुए मिंस्क समझौतों को, आंग्ल-अमरीकी ‘परामर्श’ से यूक्रेन ने ठुकरा नहीं दिया होता।
आइए, हम यह भी भूल जाते हैं कि भारत का अपना हित, रूसी तेल खरीदकर उक्त पाबंदियों को तोड़ने में ही है। आइए, हम सिर्फ ‘इकतरफा’ पाबंदियों की नैतिकता पर ही चर्चा करते हैं।
सामराजी पाबंदियां या युद्ध अपराध
इकतरफा पाबंदियां, ऐसी पाबंदियां हैं जो कुछ देशों द्वारा यानी पश्चिमी सामराजी देशों द्वारा ऐसे देशों पर लगायी जाती हैं, जो उनके फरमान के खिलाफ जाते हैं। इन पाबंदियों को, ऐसी पाबंदियों से अलगाया जाना जरूरी है, जिनके पीछे संयुक्त राष्ट्र संघ का अनुमोदन होता है यानी जिन्हें आम तौर पर देशों के समुदाय का समर्थन हासिल होता है, न कि सिर्फ साम्राज्यवादी देशों का ही समर्थन। क्यूबा से लेकर ईरान तथा वेनेजुएला तक और सीरिया से लेकर लीबिया तक, दुनिया के अनेक देश, जिन्होंने साम्राज्यवाद का विरोध कर उसकी नाराजगी मोल ली है, इस तरह की इकतरफा पाबंदियों के शिकार हुए हैं और रूस इस कतार में जुड़ा ताजातरीन नाम है। इस तरह की पाबंदियों का अनुसरण करने का मतलब, साम्राज्यवाद की आक्रामक तिकड़मों का अनुमोदन करना है।
इस तरह की पाबंदियों की एक निशानी यह है कि उनकी चोट जनता पर पड़ती है। वास्तव में इन पाबंदियों का तो मकसद ही होता है, जनता को चोट पहुंचाना। और उनकी कारगरता की माप इसी से की जाती है कि ये पाबंदियां किस हद तक, जनता को चोट पहुंचाने में कामयाब होती हैं। इसलिए, ये पाबंदियां अपने प्रभाव में नागरिक इलाकों पर बमबारी के समान होती हैं। इस तरह की बमबारी का भी मकसद आम लोगों को चोट पहुंचाना ही होता है और इसे सामूहिक दंड का कृत्य माना जाता है। लेकिन, ऐसी कार्रवाइयों के बदले के नाम पर, जो आम तौर पर जनता द्वारा नहीं की गयी हों, उनको इस तरह से सामूहिक सजा दिया जाना, चौथे जिनेवा कन्वेंशन की धारा-33 के अनुसार, एक युद्ध अपराध बन जाता है।
इसका अर्थ यह हुआ कि साम्राज्यवाद द्वारा लगायी जाने वाली इकतरफा पाबंदियां एक युद्ध अपराध से कम नहीं होती हैं। और मोदी के लिए जेलेंस्की के सुझाव का यही अर्थ था कि भारत को, इस युद्ध अपराध में साझीदार बन जाना चाहिए।
अब यह तो एक और ही बात है कि इन पाबंदियों से रूसी जनता पर कोई खास चोट हुई नहीं लगती है, असली बात तो इन पाबंदियों के पीछे की मंशा की है। ये पाबंदियां नागरिक इलाकों पर बमबारी के समान हैं और एक युद्ध अपराध हैं।
इस तरह की पाबंदियां लगाने के लिए साम्राज्यवाद की दलील यही होती है कि इस तरह की पाबंदियां का निशाना बनने वाले देश की सरकार ने कुछ गलत किया है। लेकिन, गहराई से परखने पर यह दलील सही नहीं ठहरती है। अगर, इस तरह की पाबंदी का निशाना बनाए जाने वाले देश की सरकार के संबंधित कदम को, देश की जनता का अनुमोदन हासिल होता है, तब तो उसके खिलाफ पाबंदियां लगाना, लोक संप्रभुता या पॉपूलर सोवरेनिटी का ही उल्लंघन कर रहा होता है। और अगर ऐसा समझा जाता है कि संबंधित देश के लोगों का सामूहिक रुख ही ऐसा है, जो पूरी तरह से गलत है, तो उसके खिलाफ पाबंदियों के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का समर्थन आसानी से हासिल हो जाना चाहिए और ये पाबंदियां इकतरफा तरीके से लगाने की जरूरत ही नहीं होनी चाहिए।
दूसरी ओर, अगर यह माना जा रहा है कि पाबंदी का निशाना बनने वाले देश की सरकार को, अपने देश की जनता का ही समर्थन हासिल नहीं है, तो उस देश पर ऐसी पाबंदियां थोपना जिनकी चोट जनता पर पड़ती है, जनता को सामूहिक सजा देना ही है, जोकि असैनिकों पर बमबारी करने जैसा ही है और एक युद्ध अपराध हो जाता है।
नागरिक आबादी पर बमबारी से बदतर
तथ्य यह है कि पाबंदियों का असर नागरिक आबादी पर बमबारी से भी बुरा होता है। ऐसा होने के कम से कम चार कारण हैं। पहला, इस तरह की बमबारी, सैन्य दृष्टि से कोई महत्व न रखने वाले असैनिक लक्ष्यों को निशाना बनाती है तब भी, कम से कम खास जगह पर केंद्रित होती है, जबकि पाबंदियों का असर समग्रता में अर्थव्यवस्था पर और इसलिए, संबंधित देश की तमाम जनता पर पड़ता है। अपनी जगह बदलने के जरिए कोई इन पाबंदियों के असर से बच नहीं सकता है। दूसरे, कोई भी युद्ध एक सीमित समय तक चलता है और इसीलिए युद्ध के हिस्से के तौर पर होने वाली नागरिक आबादी पर बमबारी भी एक समय तक ही चलती है, लेकिन इस तरह की पाबंदियां अनंतकाल तक चलती रह सकती हैं। मिसाल के तौर पर क्यूबा के खिलाफ पाबंदियां अनेक दशकों से लागू हैं और ऐसा ही किस्सा ईरान के खिलाफ पाबंदियों का है।
तीसरे पाबंदियां, लोगों को आहत करने के लिहाज से कहीं ज्यादा घातक ही होती हैं। हालांकि, स्वत:स्पष्ट कारणों से एकदम सटीक अनुमान लगाना संभव नहीं है, फिर भी यह कहने में कोई अतिरंजना नहीं होगी कि ये पाबंदियां कहीं भारी कीमत वसूल करती हैं। आम लोगों को भोजन तथा बुनियादी दवाओं से वंचित किया जाना, इस तरह की मानवीय क्षतियों का स्वत:स्पष्ट कारण होता है और पाबंदियों के शिकार हुए हरेक देश को भोजन तथा दवाओं की तंगी का सामना करना पड़ा है, जिसका असर तबाह करने वाला साबित हुआ है।
और चौथे, ठीक इसी वजह से ये पाबंदियां बुजुर्गों, बच्चों, गर्भवती महिलाओं पर यानी उन्हीं लोगों पर सबसे ज्यादा चोट करती हैं, जिन्हें दवाओं की ज्यादा जरूरत होती है और जिनके संबंध में आम तौर पर यह राय होती है कि उन्हें युद्ध की विभीषिका से, जितना भी हो सके, सुरक्षित रखा जाना चाहिए।
युद्ध का खुली लड़ाई से बुरा रूप
इसके अलावा एक और भी कारण है कि क्यों लोगों को तब भी तकलीफें झेलनी पड़ती हैं, जब पाबंदियों का निशाना बनने वाला देश किन्हीं अन्य ऐसे देशों से किसी हद तक खाद्य व दवाओं की आपूर्ति की व्यवस्था कर लेता है, जो इतने ढीठ होते हैं कि उन्हें धमकाकर, पाबंदियों के साथ चलने पर मजबूर नहीं किया जा सकता है। यह अतिरिक्त कारण यह है कि इस तरह की पाबंदियों का निशाना बनने वाले सभी देशों को मुद्रास्फीति की बहुत ही ऊंची दरों को झेलना पड़ता है, जो जीवन की बुनियादी आवश्यकता की चीजों को, वे अगर उपलब्ध भी होती हैं तब भी, ज्यादातर लोगों की पहुंच से ही बाहर कर देता है।
मुद्रास्फीति में इस तरह की तेजी, दो स्वत:स्पष्ट कारणों से आती है। पहला तो यह कि पाबंदियों का शिकार देश जब किसी दोस्ताना देश से कुछ बुनियादी मालों की आपूर्तियां हासिल करने में कामयाब भी हो जाता है तब भी, अक्सर थोड़ी-बहुत तंगी रह ही जाती है और इससे तीव्र मुद्रास्फीति पैदा होती है। दूसरे, पाबंदियों का अपरिहार्य नतीजा यह होता है कि इनका निशाना बनने वाले देश की विनिमय दर में अवमूल्यन होता है और ऐसा कई कारणों से होता है। संबंधित देश के निर्यातों में भारी कमी हो जाती है; बाहर से स्वदेश भेजी जाने वाली कमाई तथा वित्तीय निवेशों के प्रवाह, जो सामान्यत: आ रहे होते, सूख ही जाते हैं; और देश के विदेशी मुद्रा संचित कोष, जो कम से कम आंशिक रूप से पाबंदी लगाने वाले देशों के बैंकों में ही रखे होते हैं, जान-बूझकर संबंधित देश की पहुंच से बाहर कर दिए जाते हैं।
विनिमय दर के अवमूल्यन के चलते, जब बुनियादी मालों की आपूर्तियां जैसे-तैसे कर के जुटा भी ली जाती हैं, घरेलू बाजार में उनकी कीमतें, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में उनकी कीमतें पहले से तय होने के चलते बढ़ जाती हैं और लोगों के लिए उन मालों को खरीदना मुश्किल हो जाता है।
संक्षेप में यह कि पाबंदियों की चोट, इनका निशाना बनने वाले देश पर उस सूरत में भी पड़ती ही है, जब संबंधित देश कुछ ऐसे दोस्ताना देशों से मदद हासिल भी कर लेता है, जो उसके खिलाफ लगायी गयी पाबंदियों को तोडऩे के लिए तैयार हों।
इसका अर्थ यह हुआ कि पाबंदियां, निहितार्थत: ही युद्ध का एक रूप नहीं होती हैं बल्कि युद्ध का ऐसा रूप हैं जो खुले सैन्य टकराव से भी ज्यादा खतरनाक होता है, हालांकि इस सचाई को उसकी प्रकट अहानिकरता ढांपे रखती है। युद्ध के इस रूप से आवश्यक दवाओं के अभाव के चलते, ऐसे लोगों के बीच मौतें होती हैं, जो तरह-तरह की बीमारियों के शिकार होते हैं या फिर खाद्य सामग्री की कमी की वजह से, जो लोगों को बीमारियों के लिए और ज्यादा वेध्य बना देती है, घर पर ही लोगों की मौतें होती हैं।
यह लोगों की पीड़ा के अपने प्रकट प्रभावों को न सिर्फ नागरिक ठिकानों पर बमबारी के मुकाबले कहीं कम भयावह बनाता है, उनकी तकलीफों को किसी तरह का प्रत्यक्ष कार्य-कारण संबंध देखने के लिहाज से, पाबंदियों से असंबद्घ भी बना देता है। लेकिन, जाहिर है कि यह साफ तौर पर भ्रमित होना ही है।
सुरक्षा परिषद इकतरफा पाबंदियों पर प्रतिबंध लगाए
बहरहाल, ये सब चीजें रूस के मामले में शायद लागू नहीं होती हैं। लेकिन, इसकी वजह यही होगी कि रूस के पास एक विकसित तथा बहुविध अर्थव्यवस्था है, जो उसे सोवियत संघ के दौर से विरासत में मिली है। वास्तव में रूस ऐसा पहला उदाहरण है, जहां किसी विकसित देश के खिलाफ ये साम्राज्यवादी पाबंदियां लगायी गयी हैं। हैरानी की बात नहीं है कि रूस, तीसरी दुनिया के किसी देश के मुकाबले, जिस तरह के देशों को आम तौर पर इन पाबंदियों का निशाना बनाया जाता है, इन पाबंदियों का कहीं कामयाबी के साथ मुकाबला कर सकता है। इसके अलावा, अब इस तरह की पाबंदियों के शिकार देशों की संख्या बढ़ जाने से, इन पाबंदियों का प्रभाव घटता जा रहा है।
लेकिन, इन दिनों अपनी व्यापक पहुंच के चलते इन पाबंदियां के कम असरदार रह जाने या उनके दूसरे देशों के मुकाबले में रूस के खिलाफ कहीं कम असरदार होने से, इस तरह की इकतरफा पाबंदियों की आपराधिकता में लेशमात्र भी कमी नहीं होती है। इस तरह की पाबंदियां, तीसरी दुनिया के जनगण के खिलाफ, सामराजी देशों के हाथों में एक प्राणघातक हथियार हैं और संयुक्त राष्ट्र संघ को इस तरह की पाबंदियों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए। बेशक, इस तरह के प्रतिबंध का तब तक कोई खास व्यावहारिक महत्व नहीं होगा, जब तक कि सुरक्षा परिषद द्वारा इस प्रतिबंध का अनुमोदन नहीं किया जाता है और सुरक्षा परिषद द्वारा इस प्रतिबंध का अनुमोदन नहीं किया जाने वाला है क्योंकि सुरक्षा परिषद में साम्राज्यवादी देशों की ही आवाज निर्णायक है। फिर भी उक्त इकतफा पाबंदियों के खिलाफ सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव का, बहुत भारी नैतिक वजन तो होगा ही।
इस तरह, मोदी से जेलेंस्की ने जो आग्रह किया था, न सिर्फ भारत से रूस के खिलाफ आर्थिक युद्ध में एक लड़ाका बनाने का आग्रह था बल्कि भारत को यह युद्ध अपराध का सहभागी बनाने का भी आग्रह था।
(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें
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