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बंगाल : बांकुरा ज़िले में धान किसानों को बिचौलियों के सामने आत्मसमर्पण करने पर किया जा रहा मजबूर

छोटे और सीमांत किसानों का कहना है कि उर्वरकों और कीटनाशकों की क़ीमतें अभी भी बहुत अधिक हैं साथ ही उनकी फसल की सरकारी खरीद में कमी उन्हें और कर्ज़ के बोझ तले धकेल रही है।
Farmer
कामरगोर गांव में धान काटती हार्वेस्टिंग मशीन। फ़ोटो, मधु सूदन चटर्जी

घने बादलों के बीच सिराजुल मंडल और उनकी पत्नी तसलीमा अपने घर के सामने धान सुखा रहे हैं। उनकी बेटी, सानिया, जो छठी कक्षा की छात्रा है, वह चुपचाप बैठी अपने पिता द्वारा काटे गए सुनहरे धान को देख रही है। वह जानती है कि एक-दो दिन में यह धान गांव के आड़ती यानि बिचौलिए की दुकान पर पहुंच जाएगा।

बांकुरा जिले के इसी गांव के रहने वाले अन्य ग्रामीण असित कारक भी आड़ती के घर धान पहुंचाने के लिए धान को बोरियों में भर रहे हैं। उनके लिए ऐसा करना इसलिए जरूरी है, क्योंकि ये आड़ती साल भर उनके परिवार का खर्च चलाने में मदद करते हैं। इसलिए इन किसानों का अपने धान पर कोई हक़ नहीं होता है। 

मंडल और असित छोटे किसान हैं। हालाँकि ज़मीन उनकी है, लेकिन अब ज़मीन का असली मालिक आड़ती है, जिसके निर्देशों का इन किसानों को पालन करना पड़ता है।

कमरगोर गांव में सिराजुल मंडल और उनकी पत्नी तसलीमा अपनी धान की फसल सुखाते हुए।


आज स्वतंत्र किसान आढ़तियों के सामने पूरी तरह से समर्पण करने को मजबूर है।

कोलकाता से 165 किलोमीटर दूर पड़ने वाले बंगाल के बांकुरा जिले के सोनामुखी ब्लॉक के तहत धुलाई ग्राम पंचायत के कामरगोर गांव में भी ऐसे दर्दनाक दृश्य देखने को मिले हैं। 

“सोनामुखी के कमरगोर गांव की घटना अकेली नहीं है। यह नजारा बंगाल के लगभग हर जिले में देखा जा सकता है। अमल हलदर, जो अखिल भारतीय किसान सभा से हैं, ने इस संवाददाता को बताया कि, उर्वरकों और कीटनाशकों की क़ीमतों में बड़ी और असामान्य वृद्धि के बावजूद, राज्य सरकार क़ीमतों पर नियंत्रण और निगरानी नहीं रख पा रही है जिसके कारण किसानों को इन्हें काले बाजार से ऊंची क़ीमतों पर खरीदना पड़ता है। दूसरी ओर, तैयार फसलों के लिए उचित मूल्य नहीं मिलने और सरकार द्वारा धान की खरीद में भेदभाव के कारण, बंगाल में छोटे और मध्यम किसानों को सबसे खराब स्थिति का सामना करना पड़ रहा है।” उन्होंने आगे कहा कि यही कारण है कि किसानों को ज़िंदा रहने के लिए स्थानीय बिचौलियों का दरवाज़ा खटखटाने पर मजबूर होना पड़ता है। उनके पास बेहतर क़ीमत के लिए सौदेबाजी की कोई गुंजाइश नहीं है। 

किसानों और खेतिहर मजदूरों की स्थिति

इस वर्ष, ख़रीफ़ सीज़न के दौरान पर्याप्त बारिश नहीं हुई और न ही कांगसाबोटी और दामोदर घाटी निगम (डीवीसी) के जलाशयों से सिंचाई का पानी छोड़ा गया जिसके कारण बांकुरा जिले में लगभग 80,000 हेक्टेयर आमन धान की भूमि बंजर रह गई।

यहां करीब 3,74,000 हेक्टेयर भूमि में खेती करने का लक्ष्य था। जिला कृषि अफसर नारायण मंडल ने संवाददाता को बताया कि इस वर्ष खरीफ मौसम में 2,95,000 हेक्टेयर में खेती हुई है। हालाँकि, कई किसानों ने कहा कि यह सच नहीं है, उन्होंने दावा किया कि कृषि विभाग ने उचित सर्वेक्षण नहीं किया था, और कहा कि ब्लॉक स्तर के कर्मचारियों ने किसी भी इलाके  का दौरा नहीं किया था।

रुप्पल गांव में धान की कटाई करते खेत मजदूर।


गंगाजलघाटी ब्लॉक के अंतर्गत भक्तबांध गांव के किसान असित गोस्वामी और छतना ब्लॉक के अंतर्गत कमालपुर के सुभाष नियोगी ने कहा कि, “कई किसानों की पौध सूख कर मर गयी है। कर्ज़ लेकर काफी पैसा खर्च करने के बावजूद हम उन पौधों को नहीं बचा सके। हम कर्ज में डूबे हुए हैं और खेती योग्य भूमि विशाल इलाकों में खाली पड़ी है।”  

सोनामुखी के कमरगोर गांव के सुभाष घोष, नबासन गांव के हैदर आली, सिमलापाल ब्लॉक के दुबराजपुर के बामापाड़ा साहा और कई अन्य किसानों ने कहा  कि, “जब हम स्थानीय सबमर्सिबल से पानी खरीदकर धान को बचाने की कोशिश कर रहे थे, तो हमें पता चला कि बाज़ार से उर्वरक गायब हो गया क्योंकि कालाबाजारी शुरू हो गई थी। इसलिए हमें उर्वरक खरीदने के लिए कोसों दूर जाना पड़ता है, जो काफी अधिक क़ीमतों पर मिलता है। सहकारी समिति ने किसानों को सरकारी दर पर खाद उपलब्ध नहीं करायी। दरअसल, उन्होंने इसकी पहल ही नहीं की। इसलिए, हमें काले बाजार से उर्वरक खरीदना पड़ा।'' 

बांकुड़ा जिले में 290 कृषि सहकारी समितियां हैं, जिनमें से लगभग 80 काम नहीं कर रही हैं। कई अन्य सहकारी समितियों पर भारी भ्रष्टाचार के आरोप हैं। बांकुड़ा जिला केंद्रीय सहकारी बैंक में 2014 में हुए 14 करोड़ रुपये के वित्तीय भ्रष्टाचार की भरपाई आज तक नहीं हो पाई है। किसानों ने आरोप लगाया कि 2011 में तृणमूल कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद, उन्होंने एक के बाद एक सहकारी समितियों को जबरदस्ती अपने कब्जे में ले लिया है।

2011 के बाद से जिले में एक भी सहकारी समिति का चुनाव नहीं हुआ है। बांकुरा जिला केंद्रीय सहकारी बैंक के एक सेवानिवृत्त अधिकारी ने इस संवाददाता को बताया कि अधिकांश सहकारी समितियों के पास किसानों के साथ खड़े होने की कोई विशेष योजना नहीं है।

सहकारी समितियों की इस स्थिति को देखते हुए, किसानों को आड़तियों और माइक्रोफाइनेंस कंपनियों पर निर्भर रहने के लिए मजबूर होना पड़ता है, जैसे कि रुस्तम ममताज़, कामरगोर के रूपचंद घोष, बरजोरा ब्लॉक के अंतर्गत पखोन्ना के निमाई दास और असित दास, सारेंगा के लालटू माझी ने उक्त बातें इस संवाददाता को बताई। 

किसानों ने कहा कि माइक्रोफाइनेंस कंपनियों को लगभग 20 प्रतिशत दर पर ब्याज का  भुगतान करना पड़ता है। दूसरी ओर, किसानों को अपना 'लाभ' आढ़तदारों तक पहुंचाना पड़ता है। उन्होंने कहा कि, अब यही नियम है।

किसानों ने क्षतिपूर्ति बीमा राशि में राजनीतिक भेदभाव का भी आरोप लगाया, उन्होंने कहा कि कई प्रभावित किसान राज्य सरकार द्वारा शुरू की गई बांग्लार शोस्यो बीमा प्रोकोल्पो (बंगाल फसल बीमा योजना) से वंचित रह गए हैं।

एआईकेएस बांकुरा जिला सचिव जदुनाथ रे ने इस संवाददाता को बताया कि उन्होंने कृषि विभाग को विशिष्ट जानकारी सौंपी है, जिसमें उन प्रभावित किसानों की वास्तविक संख्या सूचीबद्ध की गई है, जिन्हें बीमा राशि नहीं मिली है। उन्होंने कहा, लेकिन विभाग की ओर से इस संबंध में कोई नई जांच नहीं की गई है।

पूछे जाने पर जिला कृषि अफसर नारायण मंडला ने बताया कि जिले में इस वर्ष खरीफ मौसम से प्रभावित 47 ग्राम पंचायत इलाके के किसानों को मुआवजा दिया गया है। हालांकि, उन्होंने यह नहीं बताया कि कितने लोगों को कितना पैसा दिया गया है। एक पूर्व जिला कृषि अधिकारी ने इस संवाददाता को बताया कि इस बीमा योजना ने व्यक्तिगत प्रभावित किसानों की नहीं, बल्कि पंचायत इलाके की फसल क्षति की पहचान की है। उन्होंने कहा कि उनके काम में, "यही बड़ी समस्या है।"

इस साल धान की फसल में कीड़े भी खूब लगे। “आड़तदारों द्वारा दिए गए कीटनाशकों को खेतों में छिड़कने की ज़रूरत है क्योंकि भले ही हम उस धान को अपनी कड़ी मेहनत से पैदा करते हैं, लेकिन असली मालिक आड़तदार ही होते हैं। धान बचाने के बाद 8-9 नवंबर को असामयिक ही बारिश के कारण काफी पका हुआ धान खेत में ही बर्बाद हो गया। हमने आड़तदारों से जो कर्ज लिया है, हम उसे चुका नहीं पाएंगे। इंदास ब्लॉक के अंतर्गत खोसबाग गांव के एक छोटे किसान सलीम खान ने कहा अब हमारा कर्ज बढ़ जाएगा।” 

क्यों किसान आड़तदारों के सामने समर्पण कर देते हैं?

खोसबाग गांव में लगभग 300 परिवार रहते हैं, जहां की जमीन गुणवत्तापूर्ण है और बड़ी फसल देने वाली वाली है। यहां खेती तीन मौसमों में की जाती है-खरीफ, रबी, बोरो। किसान डीवीसी जलाशयों से सिंचाई का पानी लेते हैं और सबमर्सिबल के पानी का भी इस्तेमाल  करते हैं। यहां अधिकांश छोटे और मध्यम किसान हैं।

“वाम मोर्चा के शासन के दौरान (2011 से पहले), सहकारी समिति सबसे अधिक सक्रिय थी। किसानों को खेती से पहले ऋण दिया जाता था, सरकारी उचित दर पर खाद दी जाती थी। सहकारी समितियां किसानों से धान खरीदती थीं। आड़तदार भी वहाँ होते थे, लेकिन हम उनसे धान की बिक्री पर सौदा कर सकते थे। इसके अलावा किसान धान बेचने के लिए सरकारी कैंपों में भी जा सकते थे। कोई राजनीतिक भेदभाव नहीं था। रंजीत लोहार, सुभाष घोष और सिराजुल मंडल और मंटू घोष ने इस संवाददाता को बताया कि, लेकिन, अब सहकारी समितियों ने कर्ज़ देना लगभग बंद कर दिया है और उर्वरक बेचना भी बंद कर दिया है।” 

कामरगोर गांव के कई किसानों ने बताया कि सरकारी शिविर में धान बेचने से कई जटिलताएं पैदा हो गयी हैं। “किसान सरकार द्वारा आयोजित शिविरों में धान बेचने में सक्षम नहीं होने के कारण बार-बार वापस आ रहे हैं। शिविरों को घेरने वाले सत्तारूढ़ दल के कार्यकर्ताओं के आदेश पर धान ले जाया जाता है। साथ ही प्रति क्विंटल 7 किलोग्राम कम धान को खराब बताकर धान की क़ीमत कम कर दी जाती है।''

किसानों ने कहा कि वे सरकारी व्यवस्था से निराश हैं, जिसके कारण उन्हें "आड़तियों के सामने आत्मसमर्पण करने पर मजबूर होना पड़ता है, जो कम दर पर धान खरीद कर, खुद को किसान बताकर सरकारी शिविर में धन बेच देते हैं।"

“आड़ती हमें खाद और कीटनाशक देते हैं। इसलिए हम उनकी निर्धारित दर पर बेचने के लिए बाध्य हैं। उन्होंने कहा कि इतना ही नहीं, पूरे साल अपने परिवार के सभी खर्चों के लिए, शिक्षा, चिकित्सा उपचार, सामाजिक कार्यक्रमों से लेकर, हमें इन आड़तदारों से पैसे उधार लेने पड़ते हैं।'' 

कुछ किसानों ने बताया कि इस साल बिचौलिए 1600 रुपये प्रति क्विंटल की दर से धान खरीद रहे हैं। असामयिक बारिश के कारण धान की फसल बर्बाद हो गई है, जिसका मतलब है कि कर्ज नहीं चुकाया जा सकेगा।”

इस बार बांकुड़ा जिले में 30 सरकारी कैंपों में धान की खरीदारी की जायेगी। बांकुरा खाद्य और आपूर्ति विभाग के एक अधिकारी अनबारुल खान ने कहा कि, खरीद का लक्ष्य 2,43,490 टन निर्धारित किया गया है। राज्य सरकार ने 2,240 रुपये प्रति क्विंटल की क़ीमत घोषित की है। इसके अलावा, किसानों को प्रति क्विंटल 20 रुपये का बोनस मिलेगा।”  

पिछले साल से किसानों को सरकारी कैंपों में धान बेचने के लिए ऑनलाइन आवेदन करने का मौका मिला है। इस संदर्भ में, जदुनाथ रे ने कहा कि आड़तदारों ने पहले ही अपने नियंत्रण वाले कई किसानों के नाम के साथ सूची ऑनलाइन भेज दी है। परिणामस्वरूप, कई वास्तविक किसान इन शिविरों में धान नहीं बेच सकते हैं। साथ ही इस साल अधिकांश जगहों पर अभी तक धान की खरीदारी शुरू नहीं हुई है। 

आड़तदार अधीर घोष, कमरगोर के गियासुद्दीन मंडल, सोनामुखी के मनुस्मारी गांव के मथुरा मंडल, बरजोरा के पखोन्ना गांव के बैद्यनाथ घोष ने इस संवाददाता को बताया कि वे सिर्फ व्यापार करते हैं। 

उन्होंने कहा कि, “हमारा परिवार का गुज़ारा धान खरीदने और बेचने से चलता है। किसान हमारे पास आते हैं और हम उनकी मदद करते हैं। हम उन लोगों से कम दर पर धान खरीदते हैं जो साल भर हमसे उधार लेते हैं और जो उधार नहीं लेते हैं, उन्हें प्रति क्विंटल 50 रुपये अधिक दिए जाते हैं।”  

ऐसे में किसानों से ज्यादा दयनीय स्थिति खेतिहर मजदूरों की है। अधिकांश स्थानों पर धान की कटाई और मड़ाई मशीनों से की जा रही है। परिणामस्वरूप, खेतिहर मजदूर अपनी आजीविका खो रहे हैं।

कमरगोर गांव के सुजॉय बाउरी, शोवा, कोन्या, झरना, काजल बाउरी, जो सभी खेत मजदूर हैं, ने कहा कि इस बार उन्हें केवल चार दिनों के लिए थ्रेसिंग का काम मिला। 'हमने केवल 800 रुपये कमाए हैं। हम इससे अपना परिवार कैसे चलाएंगे?' गांव में कोई मनरेगा का काम नहीं है। सब कुछ जानने के बावजूद पंचायत चुप है।''

सोनामुखी रुप्पल के लक्ष्मण बागड़ी ने कहा कि, "मेरे पास कोई काम नहीं है, इसलिए मैं प्रतिदिन 50 रुपये पर बकरियां चराता हूं।"

गांव-गांव से युवा दूसरे राज्यों में प्रवासी मजदूर के रूप में काम करने जा हैं। सही मायनों में किसान और खेतिहर मजदूर दोनों ही भयानक हालात का सामना कर रहे हैं।

खेत मजदूर यूनियन बांकुरा जिले के सचिव सागर बाद्यकर ने कहा कि कटाई मशीनों को रोका नहीं जा सकता है। इसलिए सरकार और पंचायतों को खेत मजदूरों को काम देना होगा। हमने इस मांग को लेकर विभिन्न पंचायतों और ब्लॉकों में ज्ञापन सौंपा है।”


(लेखक पश्चिम बंगाल में 'गणशक्ति' अखबार के लिए जंगल महल इलाके को कवर करते हैं।)

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