दलित आरक्षण : मोदी सरकार की नई कमेटी आरक्षण और धार्मिक स्वतंत्रता अधिकार के ख़िलाफ़ तो इस्तेमाल नहीं कर ली जाएगी?
जातीय उत्पीड़न, भेदभाव से आजिज आकर अक्सर दलित समुदाय के लोगों द्वारा बौद्ध धर्म ग्रहण करने की खबरें आती रहती है। चूंकि, यह धर्मांतरण किसी लालच में नहीं होता, इसलिए इसे सरकारी प्रयास से रोक पाना संभव नहीं होता। दूसरा, संवैधानिक प्रावधानों के तहत अगर कोई हिन्दू दलित बौद्ध धर्म में जाता है तो भी उसे शिड्यूल स्टेट्स मिलेगा। लेकिन, मुस्लिम या ईसाई बनने पर उसे यह लाभ नहीं मिलेगा। जबकि, कई राज्यों में विभिन्न कारणों से सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े लोग ईसाई धर्म अपनाते रहे हैं, बावजूद इसके कि उन्हें संवैधानिक बाध्यताओं की वजह से एससी स्टेट्स नहीं मिल पाएगा। इस मसले पर 2004 से ही कमेटी-कमेटी का खेल चला आ रहा है। सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन द्वारा एक दायर याचिका भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। यह याचिका मुस्लिम और क्रिश्चियन समुदाय के सामाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक-राजनैतिक रूप से पिछड़े (रंगनाथ मिश्रा कमीशन के शब्दों में जिनकी हालत हिन्दू दलितों से भी बदतर है) लोगों को एस सी स्टेट्स देने और इसके लिए आवश्यक संवैधानिक संशोधन किए जाने की बात है।
क्या है संवैधानिक प्रावधान?
असल में, भारतीय संविधान में वर्णित 1950 का राष्ट्रपति अध्यादेश यह कहता है कि सिर्फ हिन्दू धर्म के दलितों को ही एससी स्टेट्स दिया जा सकता है। बाद में, वीपी सिंह के समय इस सूची में बौद्ध दलितों को भी शामिल किया गया। इससे पहले सिख दलितों को भी शामिल कर लिया गया था। अब बच गए, मुस्लिम, इसाई, जैन और पारसी। मनमोहन सिंह सरकार ने जब सच्चर कमेटी बनाई थी तब इस कमेटी ने जो रिपोर्ट दी, वह मुस्लिम समुदाय की बदतर सामाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक स्थिति को बताती थी। इसके बाद, मनमोहन सिंह सरकार ने ही रंगनाथ मिश्रा कमीशन का गठन किया, जिसने 2007 में अपनी रिपोर्ट दी। इस रिपोर्ट में साफ़ कहा गया है कि मुसलमानों के बीच भारी जातिगत भेदभाव है और मुस्लिम समुदाय के भीतर जो अतिपिछड़ी जातियां है, उनकी हालत हिन्दू दलितों से भी बदतर है और इसी आलोक में इस कमीशन ने उनके लिए 10 फीसदी आरक्षण की सिफारिश की। साथ ही, इस कमीशन ने 1950 प्रेशिड़ेंशियल आर्डर को हटाने की भी शिफारिश की। हालांकि, इस रिपोर्ट को लोक सभा के पटल पर रखे हुए 13 साल बीत चुके हैं। लेकिन इस पर अब तक कोई एक्शन टेकेन रिपोर्ट नहीं आई है।
बालाकृष्णन कमेटी का मकसद?
इस कमेटी के गठन को कई सन्दर्भ में देखा जा सकता है। मसलन, क्या मोदी सरकार सचमुच मुस्लिमों और इसाई समुदाय को एस सी स्टेट्स देने के लिए इच्छुक है? क्या यह संघ के बदलते सुर के हिसाब से उठाया गया कदम है? क्या मोदी सर्व समुदाय के बीच अपनी मान्यता चाहते हैं? तो क्या भाजपा इन समुदायों को एस सी स्टेट्स दे कर चुनावी लाभ लेना चाहेगी? लेकिन, इन सभी सवालों के जवाब इस बात में छुपे हैं कि धार्मिक तौर पर इस्लाम और क्रिश्चियानिटी में जाति का प्रावधान ही नहीं है? इसलिए जातिगत भेदभाव की बात ही नहीं उठती। बस, इसी को आधार बनाकर अब तक इन समुदायों को एससी आरक्षण से अलग रखा गया है। तो क्या भाजपा कभी भी इस धार्मिक आधार को दरकिनार करते हुए आरक्षण देने की वकालत करेगी, यह सबसे बड़ा सवाल है और शायद यह जवाब भी है। तो फिर बालाकृष्णन कमेटी बनाने की जरूरत क्यों आन पड़ी? तो यह जरूरत इसलिए पड़ी कि सुप्रीम कोर्ट ने रंगनाथ आयोग की सिफारिशों को लागू किए जाने को लेकर केंद्र सरकार से जवाब माँगा था और इस मामले पर अब सुनवाई जारी है। कोई स्पष्ट जवाब न देना पड़े इसलिए, केंद्र ने एक आयोग बना कर मामले को लटकाना बेहतर समझा। जबकि पूर्व से ही दो कमेटी (सच्चर कमेटी और रंगनाथ कमीशन) बहुत ही साफ़ तरीके से यह स्पष्ट कर चुकी हैं कि इस देश में मुस्लिमों और क्रिश्चियन समुदाय के पिछड़े लोगों की हालत क्या है। यह वक्त निर्णय लेने का था, न कि कमेटी बना कर इलाज में देरी करने का।
नई कमेटी क्या करेगी?
सवाल है कि बालाकृष्णन की अध्यक्षता वाली नई कमेटी क्या करेगी? मोदी सरकार द्वारा गठित यह कमेटी इस बात की जांच करेगी कि धर्मांतरण के बाद भी क्या लोगों के साथ सामाजिक भेदभाव होते रहते हैं? तमिलनाडू के एक सामाजिक कार्यकर्ता थॉमस फ्रान्कलिन (इसाई दलितों को एस सी स्टेट्स दिए जाने के समर्थक) ने इन पंक्तियों के लेखक से एक बार बात करते हुए (2009 में) यह बताया था कि दक्षिण के कई राज्यों में आज भी ईसाईयों के दो कब्रिस्तान होते हैं, जहां एक कब्रिस्तान में बड़ी जाति के ईसाइयों तो दूसरे कब्रिस्तान में धर्मांतरण करने वाली छोटी और पिछड़ी जातियों के क्रिशिचियन को दफनाया जाता है। यानी, उनका मानना था कि भले ही धार्मिक स्तर पर क्रिश्चियन धर्म में जातिगत भेदभाव की परिकल्पना नहीं है, लेकिन प्रायोगिक स्तर पर भारत में यह भेद जबरदस्त रूप से है। इस्लाम में भी , हिन्दुस्तान के भीतर ऐसा ही है। सतीश देशपांडे और गीतिका बापना ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के लिए एक रिपोर्ट बनाई थी, जिसमें कहा गया था कि शहरी क्षेत्रों में 47 फ़ीसद दलित मुस्लिम ग़रीबी रेखा से नीचे हैं, जबकि ग्रामीण इलाक़ों में 40 फ़ीसद दलित मुस्लिम और 30 फ़ीसद दलित ईसाई ग़रीबी रेखा से नीचे हैं। और इस बात की ताकीद रंगनाथ मिश्र कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में साफ़ तौर पर की है। ऐसे में, नई कमेटी क्या नए तथ्य लेकर सामने आएगी, इस पर भारी संशय है।
आयोग बनाओ, मामले को लटकाओ
चूंकि, मामला सुप्रीम कोर्ट में है और इस पर संभवत: अदालत कोई निर्णय ले सकती है। इसलिए, मामले को टालते रहने का एक सबसे आसान तरीका है आयोग बनाओ, मामले को लटकाओ। शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार से रंगनाथ मिश्रा कमीशन रिपोर्ट पर जवाब माँगा था। जाहिर है, सरकार अपनी ओर से कुछ नहीं कहना चाहती। वैसे, भाजपा ने बहुत पहले से ही ये स्पष्ट किया हुआ है कि चूंकि इस्लाम और क्रिश्चिनियटी में जाति प्रथा नहीं होती, इसलिए एससी आरक्षण का सवाल ही नहीं उठता। इन पंक्तियों के लेखक ने भी जब 2009 में इस मामले पर भाजपा नेता मुख्तार अब्बास नकवी से बात की थी तो उनका भी यही तर्क था जबकि मुस्लिमों को आरक्षण देने के समर्थक तत्कालीन जदयू सांसद अली अनवर अंसारी का साफ़ कहना था कि इस्लाम में जातीय भेद है और हम लोगों को एस सी स्टेट्स मिलना ही चाहिए। 2009 में राज्य सभा के शीतकालीन सत्र में रंगनाथ रिपोर्ट पर ले कर अली अनवर अंसारी ने काफी हंगामा भी मचाया था, जिसके बाद तत्कालीन सरकार को 2 वर्षों से लंबित रंगनाथ मिश्रा कमीशन की रिपोर्ट संसद के पटल पर टेबल करनी पडी थी। जाहिर है, तब से अब तक एक बार भी किसी ने भाजपा की तरफ से इस रिपोर्ट पर एक पंक्ति का बयान भी नहीं सुना था। अब, जब सुप्रीम कोर्ट ने जवाब माँगा है तो 2 साल की तय सीमा वाला एक आयोग (बालाकृष्णन कमेटी) बना कर मामले को दो साल तक और आगे उलझाने की कोशिश की जा रही है। फिर यह भी सवाल है कि कहीं धार्मिक ग्रंथों (इस्लाम और क्रिश्चियनिटी) का आधार बनाकर नई कमेटी यह भी सिफारिश तो कर सकती है कि जब जाति का उल्लेख ही नहीं है तो जातिगत आधार पर आरक्षण की बात कहाँ से उठती है?
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