जी-20 को व्यवस्थित रूप से जी-7 देश चला रहे हैं : बिस्वजीत धर
9 और 10 सितंबर को जी-20 शिखर सम्मेलन होने वाला है। इस आयोजन की कवरेज को लेकर अधिकारियों और मुख्यधारा मीडिया के बीच एक तरह की बेचैनी फैली हुई है।
भारत सरकार इस वर्ष जी-20 की अध्यक्षता को अपनी उपलब्धि बनाने के लिए हर संभव कोशिश कर रही है।
लेकिन भारत समेत विकासशील देश जी-20 से क्या उम्मीद कर सकते हैं? इस समूह की पृष्ठभूमि क्या है और वैश्विक दक्षिण/ग्लोबल साउथ सहित अन्य समूह आज क्या कर रहे हैं, उससे इसका इससे क्या संबंध है। न्यूज़क्लिक की प्रज्ञा सिंह ने इन मुद्दों पर जाने-माने अर्थशास्त्री और व्यापार नीति के विशेषज्ञ और जेएनयू के आर्थिक अध्ययन और योजना केंद्र में अर्थशास्त्र के पूर्व प्रोफेसर बिस्वजीत धर के साथ चर्चा की। यह एक वीडियो साक्षात्कार का संपादित अंश/प्रतिलेख है।
प्रज्ञा सिंह: ऐसा कहा जा रहा है कि जी20 ग्लोबल साउथ की प्राथमिकताओं पर प्रतिक्रिया देने जा रहा है और यह एक समावेशी और संतुलित अंतरराष्ट्रीय एजेंडे पर आधारित होगा। आपके विचार?
बिस्वजीत धर: मैं तीन मुद्दों को चुनूंगा...जो बहुत व्यापक अर्थों में वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुड़े हैं।
पहला जलवायु परिवर्तन का पूरा मुद्दा है, जो आर्थिक कल्याण और वैश्विक अर्थव्यवस्था से गहराई से जुड़ा हुआ है।
दूसरा मुद्दा विकासशील देशों के कर्ज़ का है – यानि ऋणग्रस्तता - जो लंबे समय से लटका हुआ है, खासकर कम आय वाले देशों का कर्ज़ एक बड़ा मुद्दा है।
और, तीसरा मुद्दा बहुपक्षीय विकास बैंकों में सुधार का है। और ये वाशिंगटन स्थित ब्रेटन वुड्स संस्थानों से परे वाले वित्तीय संस्थान हैं। एशियाई विकास बैंक और क्षेत्रीय विकास बैंक भी इसमें शामिल हैं। इसलिए, इन एजेंसियों में सुधार लाने और अधिक विकासोन्मुख बनाने पर चर्चा हुई है।
तो, सबसे पहले, जलवायु परिवर्तन को लेते हैं। मुझे लगता है कि परिवर्तनशील मौसम की समस्याओं का अनुभव करने वाले किसी भी व्यक्ति के सामने यह बहुत स्पष्ट और बड़ा मुद्दा है और अनिश्चित मौसम की स्थिति यह है कि जलवायु परिवर्तन एक ऐसी चीज़ है जिससे आज नहीं, बल्कि शायद कुछ दिन पहले ही निपट लिया जाना चाहिए था।
हम जो देख रहे हैं वह विकसित और विकासशील देशों के बीच 'नेट ज़ीरो' शमन के सवाल पर बड़ी लड़ाई चल रही है; कि इसे कब हासिल किया जाएगा। और दूसरा यह कि इसे कैसे हासिल किया जाएगा। और जलवायु वित्त के संदर्भ में बड़े पैमाने पर कैसे चर्चा की जा रही है उस पर ध्यान देने की जरूरत है।
इसलिए, पश्चिम चाहता है कि हम 2050 तक संपूर्ण नेट ज़ीरो शमन हासिल कर लें या यथाशीघ्र नेट ज़ीरो लक्ष्य पूरा कर लें। वे इसी बारे में बात करते हैं। भारत ने इस पर 'न' कहा है, और हमने और समय मांगा है।
लेकिन इन सबके बीच जिस बात पर चर्चा नहीं हो रही है वह यह है कि वास्तव में रूपरेखा यह बनाई गई थी कि हर एक देश अपनी क्षमता के अनुसार शमन को अनुकूलन बनाएगा।
तो, यह सामान्य लेकिन विभेदित जिम्मेदारी थी, दोनों इस आधार पर थीं कि आप कितना करेंगे और निश्चित रूप से, सामान्य लेकिन विभेदित जिम्मेदारी इस आधार पर भी थी कि सक्षम स्थितियां क्या हैं कितनी है। यहीं पर जलवायु वित्त का मुद्दा आता है।
मुझे लगता है कि वास्तव में पूरे परिदृश्य की व्यापक समीक्षा करने की जरूरत थी। कौन कितना कर सकता है? यह बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि जलवायु परिवर्तन कोई ऐसी चीज़ नहीं है कि अगर आप सिर्फ यह सोच लें कि कुछ देश ऐसा करने जा रहे हैं, तो समस्या दूर हो जाएगी। इसलिए, विभिन्न देशों में कार्बन पदचिह्न के सीमा पार निहितार्थ यह अनिवार्य बनाते हैं कि हर कोई एक ही पायदान पर हो।
और, इसलिए, सभी देशों को एक मंच पर लाने में सक्षम बनाना वैश्विक समुदाय की जिम्मेदारी है। तो, अब तक, जलवायु वित्त की सबसे निराशाजनक कहानी रही है। यह आगे नहीं बढ़ रहा था, और महामारी से पहले भी यह मुद्दा सामने नहीं आया था।
और महामारी के बाद तो यह मुद्दा एक तरह की मृगतृष्णा बन गया, क्योंकि विकसित देश अब अपना घर ठीक करने में लग गए हैं। तो, जिस तरह की शुरुआत अमेरिकियों ने की, बाइडेन प्रशासन ने की और उसके बाद, और उन्होने जिस तरह से अमेरिका की औद्योगिक नीति का समर्थन करने के लिए जिस तरह का धन खर्च किया वह इसलिए क्योंकि वे चीन से अलग होना चाहते थे। निःसंदेह यह एक बड़ा प्रश्नचिह्न है।
इसलिए, वित्त की उपलब्धता एक समस्या होने वाली है।
मुझे लगता है कि जी-20 में इस बात पर चर्चा होनी चाहिए कि 'शुद्ध शून्य' लक्ष्य को जल्दी हासिल करने के लिए वैश्विक समुदाय में वित्तपोषण का बोझ कौन उठाएगा। यह ऐसी बात नहीं है जिससे भारतीय सरकार सहमत होगी।
पीएस: आप ऐसा क्यों कहते हैं?
बीडी: इसी कारण ए मैंने कहा था कि महामारी से पहले भी बहुत अधिक धनराशि नहीं आ रही थी। और अब, ये लोग अपनी अर्थव्यवस्थाओं में पैसा लगा रहे हैं और डी-वैश्वीकरण की कोशिश कर रहे हैं, अगर मैं उस शब्द का उपयोग करु तो हक़ीक़त यही है। यही तो हो रहा है।
इसलिए, (जलवायु वित्त पर) और दबाव बढ़ने वाला है। इसे कैसे किया जाएगा, इस पर यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत थी।
ऐसे कई कारक हैं जो सामने आते हैं। उदाहरण के लिए, इसे महत्वपूर्ण मोड़ पर डी-वैश्वीकरण की प्रक्रिया जिसे स्थापित करने की कोशिश करना अपने आपा में एकमात्र मुद्दा है ऐसा ही है जो पूरे जलवायु मुद्दे को प्रभावित करता है। क्योंकि, जैसा कि मैंने कहा, अमेरिका जिस तरह का पैसा (डी-ग्लोबलाइजेशन पर) लगा रहा है, उसका निश्चित रूप से जलवायु के लिए वित्त की उपलब्धता पर प्रभाव पड़ेगा।
दूसरा मुद्दा जिस पर हम बिल्कुल भी गंभीरता से चर्चा नहीं कर रहे हैं वह है प्रौद्योगिकी का समीकरण। महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकियों की उपलब्धता पर आम सहमति होनी चाहिए थी।
हमने देखा कि कैसे पश्चिम ने कोविड महामारी के दौरान दूसरी तरफ देखना शुरू कर दिया था। विकासशील देश इस बात पर जोर देते रहे कि आईपीआर (बौद्धिक संपदा अधिकार) के शिकंजे को तोड़ा जाना चाहिए ताकि विकासशील देशों को इन तकनीकों, वैक्सीन और दवाओं तक पहुंच मिल सके।
ऐसा नहीं किया गया। इसलिए, सबसे खराब तरह की महामारी में, हमें उन्नत देशों से प्रौद्योगिकी के मोर्चे पर कोई प्रतिक्रिया/मदद नहीं मिली।
जलवायु मुद्दे पर, यह एक लंबी कहानी रही है। कहीं न कहीं, ध्यान लगभग पूरी तरह से प्रौद्योगिकी पहलू से हट गया है और वित्त पर स्थानांतरित हो गया है। और मुझे लगता है कि यह एक और बड़ी गलती थी, जो विकासशील देशों ने की थी।
भारत, विशेष रूप से, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण का एक बहुत मजबूत समर्थक रहा था। मैं कहूंगा कि यह शब्द 'प्रौद्योगिकी हस्तांतरण' भी वास्तव में एक उपयुक्त शब्द नहीं है क्योंकि प्रौद्योगिकियों को कभी भी स्थानांतरित नहीं भी किया जाता है। ये बाज़ार में सबसे कम कीमत पर बिकते हैं।
दरअसल आप जिन शर्तों पर प्रौद्योगिकी हासिल कर पाएंगे, वह तत्व महत्वपूर्ण है।
और इस विशेष पहलू पर वैश्विक सहमति होनी ही थी। और जी-20 जैसे मंच ही वह मंच हैं जहां इस तरह का फैसला लिया जाना चाहिए था। और यह कुछ ऐसा है जिसकी हम वास्तव में उम्मीद कर रहे थे कि ऐसा होगा।
जब जी-20 को वित्त मंत्री के मंच से इन सदस्य देशों की शिखर-स्तरीय बैठक में अपग्रेड किया गया था। और जी-7 उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं का एक समूह बनकर उभरा था, जिसका तात्कालिक कारण 2008 की आर्थिक मंदी का जवाब ढूंढना था। इसलिए, पहला शिखर सम्मेलन 2008 में आयोजित किया गया था और फिर यह हर साल होने लगा।
और जो सवाल हम हर समय पूछते रहे हैं वह यह है कि विकासशील देशों को ऊंचे मंच बैठाने का क्या मतलब है यदि इन देशों के महत्वपूर्ण मुद्दों को उस तरीके से नहीं उठाया जाना है जिस तरह से उठाया जाना चाहिए।
पीएस: तो, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और जलवायु परिवर्तन पर बातचीत के अलावा, जिसके बारे में आप कहते हैं कि यह अब ग्लोबल साउथ कहे जाने वाले विकासशील देशों के पक्ष में नहीं है, तो इसके अन्य महत्वपूर्ण मुद्दे क्या हैं?
बीडी: तो, दूसरा मुद्दा जो मैं उठाने जा रहा हूं वह विकासशील देशों के विदेशी कर्ज़ का है। अब, विकासशील देशों का पहला बड़ा कर्ज़ संकट 1980 के दशक में हुआ था। और ऐसा कोई समाधान नहीं था जिसके बारे में विकासशील देश के नजरिए से बात की जा सके। हुआ बस इतना था कि अमेरिकी प्रशासन, आईएमएफ और विश्व बैंक ने साथ मिलकर, इन ऋणग्रस्त देशों को अतिरिक्त धन उपलब्ध कराने का एक रास्ता या मॉडल खोजा, ताकि वे अपने कर्ज़ आदायगी में विफल न हों।
इसलिए, सारा विचार यह था कि वित्तीय बाज़ार के सामने कोई संकट न खड़ा हो।
तो, जो किया गया वह वित्तीय बाजार, बड़े बैंकों का बचाव करना था। बैंक, जो विफल होने के लिए बहुत बड़े बैंक थे, ये सभी बैंक निवेश बैंक थे जैसे कि जेपी मॉर्गन और अन्य बैंक थे। और विकासशील देशों को उनके भाग्य पर छोड़ दिया गया था। और फिर ढांचागत समायोजन कार्यक्रम आया और इस समायोजन का सारा भार विकासशील देशों पर डाल दिया गया था।
पीएस: आप वास्तव में हमें जी-20 के इतिहास के बारे में बता रहे हैं। इन्हे कैसे, जी-7 देश जो आर्थिक रूप से प्रगति कर रहे थे, इन देशों से जोड़ा गया और उन सभी को एक साथ रखना फायदेमंद माना गया। क्या यही जी-20 है?
बीडी: यह सही है। लेकिन जो मैं आपको बता रहा था वह यह कि, कर्ज़ संकट का एक इतिहास है और यह कभी भी हल नहीं हुआ है। इसलिए, जब आप तेजी से आगे बढ़ते हैं और फिर कोविड महामारी पर आते हैं, तो वहां जी-20 की प्रत्यक्ष भूमिका देखी जा सकती है। महामारी के मद्देनजर, जी-20 ने निर्णय लिया था कि कम आय वाले देशों की कर्ज़ सेवा की समस्याएँ थीं जिसमें शुरुआत में 73 देश सामील थे, फिर 69 देश हुए, जिन पर वास्तव में गंभीर कर्ज़ का संकट छाया हुआ था, यानि बड़े कर्ज़ का बोझ। इससे उनकी कर्ज चुकाने की दिक्कतें कम हो जाएंगी। ऐसा नहीं है कि उन्हे माफ़ कर दिया जाएगा।
एकमात्र बात जिस पर चर्चा हो रही थी वह यह थी कि उन्हें कर्ज चुकाना है, उन्हें अपना कर्ज चुकाना है, ब्याज और मूलधन का भुगतान भी करना है - जिसे कुछ समय के लिए माफ कर दिया जाएगा, और जी-20 ने बस इसी बात की सुविधा दी है।
अब, जो मेज पर था वह संपूर्ण कर्ज़ का भंडार नहीं था, क्योंकि इन देशों ने जो कर्ज़ जमा कर लिया था उसके तीन स्रोत थे। पहला है द्विपक्षीय कर्ज़, द्विपक्षीय कर्ज़ जिन्हे सरकार-दर-सरकार कर्ज़ जैसे कर्ज़ के रूप में दिया गया था।
दूसरा है निजी क्षेत्र का कर्ज़, और तीसरा है विश्व बैंक, आईएमएफ और क्षेत्रीय विकास बैंकों जैसे बहुपक्षीय विकास बैंकों द्वारा दिया जाने वाला कर्ज़।
तो, इसके तीन घटक हैं। तो, जी-20 ने क्या निर्णय लिया? उन्होंने कहा कि इन देशों के आधिकारिक कर्ज़दाताओं यानी सरकार के प्रति जो कर्ज़ भुगतान का दायित्व हैं, केवल कर्ज़ भुगतान के उस घटक को स्थगित किया जाएगा। इसलिए, इसे कर्ज़ सेवा निलंबन पहल- डीएसएसआई कहा गया।
तो, इसमें समस्या क्या है?
अब, इसमें समस्या यह है, जैसा कि मैंने कहा, कि इसके तीन स्रोत हैं। कई देशों के लिए सबसे छोटे घटकों में से एक आधिकारिक कर्ज़दाता है। अधिकांश मामलों में सबसे बड़े निजी कर्ज़दाता हैं, और उन्हें छुआ नहीं जाता है।
पीएस: और ये वे घटक हैं जिनका आपने इंडिया फोरम में प्रकाशित एक पेपर में जिक्र किया है, कि यह कर्ज़ 2010 के दशक में 14 बिलियन डॉलर से बढ़कर एक दशक बाद लगभग 83 बिलियन डॉलर हो गया है।
बीडी: यह सही है। तो, देखिए कि इन देशों में निजी कर्ज़ किस हद तक बढ़ गया है। इसलिए, इन देशों पर निजी कर्ज़दाताओं का जो कर्ज़ है उसे कम करने के लिए गंभीरता से कुछ करना होगा। इसलिए, इस कर्ज़ को बट्टे खाते में डालना होगा। अब, यह मुद्दा मेज पर नहीं है। इस पर कोई चर्चा ही नहीं हो रही है।
पीएस: क्या आपको लगता है कि जी-20 इस बार इस पर चर्चा का कोई मंच बनेगा?
बीडी: नहीं, जी-20 2020 से इस पर चर्चा कर रहा है।
पीएस: क्या यह चर्चा कानून के निजी पहलू पर हुई है?
बीडी: नहीं, नहीं, नहीं, मैं कह रहा हूं कि समग्र मुद्दे पर चर्चा हुई है।
अब भी जी-20 केवल यही कह रहा है कि इस पहल का समर्थन करने के लिए निजी कर्ज़दाताओं को आमंत्रित किया गया है। लेकिन वे बाध्य नहीं है। और उन्हें (निजी लेनदारों को) बाध्य किया भी नहीं जा सकता है।
पीएस: दूसरे शब्दों में, ऐसा कोई कारण नहीं है कि उन्हें इस पहल में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया जाए।
बीडी: देखिए, जब तक एजेंसियों के एक खास समूह को प्रतिबद्ध नहीं बनाया जाता है, वे वास्तव में एक इंच भी पीछे नहीं हटेंगे। लेकिन स्थिति यह है कि प्रतिबद्धताएं होने पर भी वे पीछे नहीं हटेंगे। तो, पहली चीज़ जो आपको करने की ज़रूरत है वह यह है कि आप उन पर निश्चित मात्रा में प्रतिबद्धताएँ लगाएं। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है।
और इसका कारण बिल्कुल स्पष्ट हैं। वह यह कि विकसित देश निजी कर्ज़दाताओं को छूने के माले में बेहद सावधान रहेंगे। यही राजनीतिक अर्थव्यवस्था की प्रकृति है। क्योंकि, वे हमेशा से इन बड़े वित्तीय संस्थानों का समर्थन करते रहे हैं। और जब भी कोई संकट आया है, इन वित्तीय संस्थानों को सरकार द्वारा बड़ी सहायता दी गई है और वह भी "टू बिग टू फेल" के नाम पर किया गया। इसलिए, हकीकत यह है कि आप गरीब देशों को निजी कर्जदाताओं से किसी तरह की राहत मिलने की उम्मीद नहीं कर सकते हैं।
अब, विदेशी कर्ज़ का मुद्दा इन देशों के लिए क्यों महत्वपूर्ण है?
पहला तो यह कि, आप जानते हैं, यदि आप पर कर्ज का बोझ है, तो अब इसे किसी भी प्रकार के व्यक्तिगत घराने से समानांतर रूप में देखें, कि यदि किसी व्यक्ति पर, किसी परिवार पर भारी कर्ज बकाया है, तो इस परिवार का भविष्य पूरी तरह से अंधकार में देखेगा।
तो, ये देश, जिन्हें अब पहले चर्चा किए गए मुद्दों को लागू करना है – यानि जलवायु प्रतिबद्धता और कार्बन पदचिह्न को कम करना - स्थिति यह है कि इसके लिए यदि कहीं से कोई अतिरिक्त धन लिया भी जाता है, तो वे इसका बोझ नहीं उठा सकते हैं, वे पूरी तरह ढह जायेंगे।
उनके पास दिवालिया घोषित होने का ही एकमात्र विकल्प बचेगा। लेकिन निजी क्षेत्र की कई बड़ी कंपनियों के विपरीत, जो दिवालिया घोषित हो जाती हैं और सरकार से समर्थन हासिल करती हैं और फिर पटरी पर आ जाती हैं, सरकारों के लिए यह एक बहुत ही कठिन स्थिति हो सकती है। इसलिए, अपने विकास की अनिवार्यता, अपने भविष्य के अलावा, ये देश जो कुछ भी करना चाहते हैं, वह सीधे तौर पर उन कर्ज़ देनदारियों पर असर डालेगा जिन्हें वे आगे लेने जा रहे हैं।
पीएस: उसी इंडिया फोरम पेपर में, आपने 2000 में जी-20 मॉन्ट्रियल बैठक का उल्लेख किया था, जहां उन्होंने वैश्वीकरण और अर्थव्यवस्थाओं के एकीकरण के लाभों के बारे में बात की थी। इसलिए, यह ग्लोबल साउथ के एजेंडे जैसा नहीं लगता, जैसा कि लोग इसे समझते हैं।
फिर भी, यह अभी भी जी-20 बैठक का एजेंडा है। तो, एक तरह से, जी-7 ग्लोबल साउथ के एजेंडे में शामिल नहीं है, लेकिन इसके बारे में बात करता है। क्या ये सिर्फ शब्द हैं?
बीडी: बिल्कुल। आप जानते हैं, पहली चीज़ जो आपको समझने की ज़रूरत है वह है जी-20 और सवाल: विकासशील देशों का ऐसे मंच पर होने का क्या मतलब है? क्या उनकी आवाजें सुनी गईं? नहीं। क्योंकि आप देख सकते हैं कि व्यवस्थित रूप से जी-20 को जी-7 चला रहा है। तो, जी-7 मूल रूप से जी-20 है, जिसका जी7करण हो गया है।
तो, उत्तर-दक्षिण के ये सभी एजेंडे सामने आते हैं लेकिन वास्तव में दक्षिण की किसी भी चीज़ पर चर्चा नहीं की जाती है।
तीसरा पहलू बहुपक्षीय विकास बैंकों के सुधार का है। अब, हम सभी जानते हैं कि आईएमएफ और विश्व बैंक अमेरिका की गोद में बैठे हुए हैं और वोटिंग शेयरों के कारण अमेरिकी के अलावा बैंक कोई निर्णय नहीं ले सकते हैं। इनमें अमेरिका की हिस्सेदारी 16 प्रतिशत से अधिक है। उदाहरण के लिए, आईएमएफ द्वारा लिए जाने वाले किसी भी महत्वपूर्ण निर्णय के लिए, आपको 85 प्रतिशत के बहुमत समर्थन की जरूरत है।
इसलिए, अमेरिका के साथ आए बिना कोई भी निर्णय नहीं लिया जा सकता है। और इस पर काफी समय से चर्चा चल रही है और भारत और चीन इस बात पर दबाव डाल रहे हैं कि फंड और बैंक आज की वास्तविकता को प्रतिबिंबित करें और उभरती अर्थव्यवस्थाओं की उपस्थिति आईएमएफ वोटिंग शेयरों, वर्तमान वोटिंग शेयरों में भी दिखाई दे।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ है।
तो, संपूर्ण रूपरेखा यह है- बहुपक्षीय बैंकों से शुरू होकर, विकास बैंक जो नीतियाँ हमेशा अपनाते रहते हैं - ने उनमें विकासशील देशों का पक्ष नहीं लिया है।
कम आय वाले देशों को किस तरह की राहत दी जानी है, तो इसका निर्णय अमेरिकियों के साथ शामिल हुए बिना नहीं किया जा सकता है, और वे ऐसा करने के इच्छुक नहीं हैं। तो, मूलतः जी-20 उस जाल में फंस गया है जिस जाल को जी-7 ने बुना है।
और वे हमें ठीक उसी तरफ ले जा रहे हैं जिस दिशा में वे चाहते हैं।
मैं एक अंतिम बिंदु और एक अंतिम मुद्दे का उल्लेख करना चाहूंगा जो बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली पर आधारित है। यह पूरी तरह टूट चुका है और हमने सोचा था कि जी-20 कुछ करेगा। भारत बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली के प्रति अपने समर्थन की बात करता रहा है। और तथ्य यह है कि विश्व व्यापार संगठन का विवाद निपटान निकाय अमेरिकियों के कारण टूट गया है, हममें से कई लोग उम्मीद कर रहे थे कि कम से कम इस मुद्दे पर गंभीरता से चर्चा की जाएगी और इस दीर्घकालिक समाधान का कोई रास्ता निकाला जाएगा। और कम से कम 18 अन्य देशों का दबाव अमेरिकियों को अपनी स्थिति बदलने पर मजबूर करेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ है और इसका कोई सबूत नहीं मिला है।
फिर, भारत में भी समाचार रिपोर्टें इस बात की चर्चा करती रहती हैं कि कैसे भारत अमेरिका के साथ भी विभिन्न विवादों को अपने दम पर सुलझा रहा है। या, उन्होंने ट्रिप्स मुद्दे पर, पेटेंट मुद्दे पर या यहां तक कि, मुझे लगता है, चीनी का विवाद अभी भी लंबित है, के बारे में निर्णय लिया है।
इसलिए, यह धारणा बनाई जा रही है कि देश अपनी समस्याओं का समाधान खुद ही कर रहे हैं और डब्ल्यूटीओ विवाद निपटान तंत्र एक तरह से स्थगित है या उसकी जरूरत नहीं है।
पीएस: क्या यह सचमुच संभव है?
बीडी: नहीं, नहीं, यह बहुत खतरनाक विचार है। मेरा दृढ़ विचार है कि बड़े लोगों का मुकाबला करने के लिए हमें नियमों के इस बहुपक्षीय सेट की जरूरत है। बड़े लोगों को इस बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली की आवश्यकता नहीं है क्योंकि उनके पास आर्थिक ताकत है।
और उन्होंने इस ताक़त को बार-बार दिखाया है। ट्रम्प ने बहुत सारे उत्पादों पर टैरिफ़ बढ़ाने की एकतरफ़ा कोशिश की थी और वह सब किया जो उसने चाहा।
और अब बाइडेन प्रशासन अपनी औद्योगिक नीति को आगे बढ़ाने के लिए सेमीकंडक्टर और अन्य उद्योगों को इस प्रकार की भारी सब्सिडी दे रहा है। सतह ही यह समय-समय पर दूसरे देशों पर एंटी-डंपिंग शुल्क लगा रहा है।
तो, वे कुछ भी कर सकते हैं। लेकिन यह विकासशील देश हैं जिन्हें विवादों को इस तरह से हल करने के लिए डब्ल्यूटीओ की जरूरत है जिससे उन्हें नुकसान न हो...
जो लोग वास्तव में इसके बारे में बात कर रहे हैं उन्हें यह देखना चाहिए कि अमेरिकी अपनी नीतियां कैसे बनाते हैं।
जब भी अमेरिकी अपने नीतिगत उद्देश्यों को परिभाषित कर रहे होते हैं, तो वे कहते हैं कि हम वास्तव में अपने व्यवसायों, अपने श्रमिकों, किसानों आदि को लाभ पहुंचाने के लिए ऐसा कर रहे हैं।
यह एक संप्रभु और लोकतांत्रिक देश है। इसे अपने लोगों से जनादेश मिला है। तो, वास्तव में उसे अपने लोगों के हितों का ध्यान रखना होगा...
इसलिए, यह अपने आप में अपने मौलिक हितों को कभी नहीं छोड़ने वाला है। यह केवल तभी होगा जब आप इसे बहुपक्षीय मंच पर लाए और व्यापार-विनिमय के लिए कहें…
और यदि यह सब व्यापार-विनिमय के बारे में है। तो, निःसंदेह, हम व्यापार-विनिमय के बारे में सहमत थे, लेकिन हमें उचित सौदेबाज़ी नहीं मिली है। यहां तक कि डब्ल्यूटीओ में भी हमें उचित सौदेबाजी नहीं मिली है।
ऐसी स्थिति के बारे में सोचना असंभव सा लगता है जहां भारत वास्तव में अमेरिकियों के साथ सौदेबाजी कर सके और उचित सौदा हासिल कर सके। और यदि कोई ऐसा दावा कर रहा है और यदि आपको उस दावे की थोड़ी भी जानकारी नहीं हैं, तो निश्चित रूप से कुछ ऐसा हुआ है जिसके बारे में हम नहीं जानते हैं...
पीएस: हाँ... क्योंकि इस प्रकार की व्यवस्थाओं में पारदर्शिता का भी अभाव है।
बीडी: यह सही है... हम जानते हैं कि हम पर अपने पेटेंट अधिनियम को बदलने का दबाव है। हम पर अपनी नीतियों को बदलने का दबाव है। हम एबीसी क्षेत्रों में अपनी नीतियों में बदलाव कर रहे हैं। इसलिए, यह कहना मूर्खता होगी कि हम अपनी बंदूकों को ताने हुए हैं। कि हम वास्तव में अमेरिकियों पर अपनी शर्तें थोपने में सक्षम हो रहे हैं और कि अमेरिकियों ने उसे मान लिया है जो हम उनसे मनवाना चाहते थे।
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