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ग्राउंड स्टोरी: मखाना व्यवसाय के बढ़ते आकर्षण पर गिरती क़ीमत का ग्रहण

मखना महोत्सव के आयोजन में इसके व्यवसाय को बढ़ाने के लिए कई ऐलान किए गए।
makhana
व्यापारियों के बीच मखाना

बिहार में 29 और 30 नवंबर को पहली बार मखाना महोत्सव-सह-राष्ट्रीय सम्मेलन राजधानी पटना के ज्ञान भवन में भव्य आयोजन किया गया। जहां देश के सभी एयरपोर्ट पर मखाना के सेल काउंटर लगाने के प्रस्ताव के अलावा किसानों को कई फायदा दिए जाने का वायदा किया गया। तीन महीने पहले अगस्त 2022 में मखानों को प्रतिष्ठित भौगोलिक संकेत (जीआई) टैग मिला था। इसी की वजह से यह आयोजन किया गया था। लेकिन जमीनी हकीकत इस चकाचौंध वायदे से अधिक दूर है। जमीनी कहानी में महंगा बिकने वाले मखाने का बाजार गिर गया है और किसानों का हाल बेहाल है।

दुनियाभर में सुपर स्नैक यानी मखाने का लगभग 90 फीसदी हिस्सा भारतीय राज्य बिहार में पैदा होता है। मुख्यतः बिहार के मधुबनी, दरभंगा, सुपौल, पूर्णिया, सहरसा सहित कटिहार जिलों में इसकी पैदावार की जाती है l मिथिला क्षेत्र में मखाना का उत्पादन 6 हज़ार टन होना है। यह पूरे विश्व के उत्पादन का 90% है। बिहार में अभी 27 हज़ार 303 हेक्टेयर में मखाना का उत्पादन किया जाता है।

मखाना महोत्सव-सह-राष्ट्रीय सम्मेलन 2022 का दीप प्रज्वलित कर उद्घाटन करते मंत्री कृषि विभाग कुमार सर्वजीत एवं कृषि विभाग के सचिव डॉ. एन सरवण कुमार

जीआई टैग मिलने से खुश मखाना के किसान लागत भी वसूल नहीं पा रहे

बिहार के सुपौल जिला के पिपरा विधानसभा क्षेत्र स्थित गोविंदपुर पंचायत के ललित महतो लगभग 20 बीघा से ज्यादा पोखर में मखाना की खेती करते है। वो बताते हैं कि, "हमारे पंचायत में लगभग 2 साल पहले 100 बीघा मखाना की खेती होती थी। अगल बगल वाले पंचायतों में सबसे ज्यादा। इसकी मुख्य वजह थी कि यहां खेत बहुत गहरा पाया जाता है। लेकिन 2 साल में लगभग 300 से 350 बीघा में खेती शुरू हो गई है। अगल बगल वाले गांव जहां मखाना की खेती नहीं होती थी वहां भी अच्छी-खासी खेती शुरू हो गई है। ऐसे में कीमत का घटना स्वाभाविक है।"

बिहार के सुपौल जिला के पिपरा विधानसभा क्षेत्र स्थित गोविंदपुर पंचायत के ललित महतो का पोखर

ललित आगे बताते हैं, "₹4000 से ₹5000 क्विंटल मखाना व्यापारी को बेचना पड़ा। एक साल पहले ₹6000 से ₹8000 बेचा था। वही तीन से चार साल पहले का रेट देखिए तो  ₹12000 -14000 क्विंटल मखाना बेचा था। लगभग 10 बीघा से ज्यादा खेत का मखाना भी नहीं निकाला। एक बीघा खेत से 5 क्विंटल मखाना निकलता है। उसे बेचता तो अधिक से अधिक ₹30000 मिलता। उतना तो लागत ही लगा है। इसलिए मेहनत करने से क्या फायदा।"

वहीं कृषि विभाग में 16 साल काम कर चुके अरुण कुमार झा वीणा बभनगामा सुपौल के रहवासी है। वो खुद मखाना की खेती भी करते हैं। वो बताते हैं कि, "खेत नीचे होने की वजह से प्रत्येक साल बारिश की वजह से फसल बर्बाद हो जाती थी। इसलिए इस बार लगभग एक बीघा खेत को गहरा कर के मखाना की खेती शुरू की। हालांकि लगभग 28 कट्ठा पोखर में पहले से खेती करता था। दो-तीन साल पहले तक मखाना से लगभग एक लाख रुपया आ जाता था। 2021 में भी कमी आई थीं। इस बार शायद 35-40 हजार ही लाभ मिलेगा‌। पहले की तुलना में तालाबों में मखाना की उत्पादकता कम हो रही है। लेकिन पहले खेत को गहरा करके मखाना खेती का प्रचलन नहीं था। लेकिन अधिकांश अब खेत में मखाना प्रचुर मात्रा में हो रहा है।"

बिहार के सुपौल जिला के पिपरा विधानसभा क्षेत्र स्थित गोविंदपुर पंचायत में मखान के लिए पोखर की साफ-सफाई

व्यापारियों की एक लॉबी किसानों से मखाना खरीदा ही नहीं।

आखिर एक-दो साल के भीतर सुपर स्नैक यानी मखाने की कीमत में इतनी गिरावट क्यों आई? अधिकांश किसानों का मानना है कि खेती ज्यादा होने की वजह से कीमत कम हो गई है। लेकिन वास्तविकता कुछ और है। मखाना अनुसंधान केंद्र, दरभंगा के मुख्य वैज्ञानिक इंदु शेखर सिंह न्यूज़क्लिक को बताते हैं कि, "अचानक मखाना के दाम में गिरावट आने के पीछे क्या वजह हैं, इस पर पूरी स्पष्टता के साथ कुछ नहीं बोला जा सकता है। मुझे ऐसा लगता हैं कि व्यापारियों का एक लॉबी जो हमेशा से मखाना की खेती पर अपना वर्चस्व कायम किए हुए हैं। उन्होंने किसानों से मखाना खरीदा ही नहीं। इस वजह से मखाना की मार्केट एकदम डाउन हो गई है। ताकि नए और छोटे व्यापारी नुकसान से परेशान होकर इस क्षेत्र से हट जाएं। कोरोना के बाद मखाना से संबंधित कई नए स्टार्टअप शुरू हुए है। इसके आने से चंद व्यापारियों को नुकसान होने लगा। जहां तक बात उत्पादन की है। वो बढा जरूर हैं, लेकिन मांग भी बहुत ज्यादा बढ़ी है। इसलिए इससे कुछ ज्यादा इफ़ेक्ट मखाना के दाम पर नहीं होनी चाहिए।"

दरभंगा अवस्थित मखाना अनुसंधान केंद्र

वहीं मधुबनी रेडियो के संस्थापक राज झा छात्रों को पत्रकारिता के साथ-साथ किसानी भी पढ़ाते है। वो बताते हैं कि, "पहले मखाना का प्राइस हवा में था, यानी बहुत ज्यादा था।  इसकी मुख्य वजह व्यापारियों का एक समूह था। मंहगी फसल को देखते हुए लोग हाथ आजमाना नहीं चाहते थे। अब कई नए स्टार्टअप आपको देखने को मिलेंगे। एक मुख्य वजह ट्रांसपोर्टेशन की भी है। सहरसा और सुपौल इलाके में मखाना की खेती बहुत ज्यादा होती हैं। लेकिन प्रोसेसिंग यूनिट दरभंगा और मधुबनी में है। पहले इनको लाने के लिए प्राइवेट गाड़ियां करनी पड़ती थी। अब लोकल ट्रेन शुरू हो गई है। ट्रांसपोर्टेशन सस्ता होना भी एक वजह है। लेकिन मुख्य वजह है नई कंपनी और लोगों का इस व्यवसाय में आना।"

पहले वाली प्राइस बहुत ज्यादा है और अभी की वर्तमान प्राइस बहुत कम है।

बिहार का पहला स्टार्टअप मिथिला नेचूरल्स के मालिक और मखाना मैन ऑफ बिहार मनीष आनंद बताते हैं कि, "बहुत सारे व्यापारी इस व्यवसाय में आ गए हैं। जो पहले सक्रिय नहीं थे। बहुत सारी बड़ी कंपनी भी मखाना से उत्पादित प्रोडक्ट का व्यवसाय शुरू कर दी है। 2 साल पहले तक यह कंपनियां नहीं थी। इससे पहले मखाना महंगे दाम में बिकती थी। हमने पिछले साल ₹16-18 हजार प्रति क्विंटल मखाना का गुड़ी लिया था। इस साल रेट ₹6-9 हजार प्रति क्विंटल हैं। गुड़ी यानी कच्चा मखाना। पहले वाली प्राइस बहुत ज्यादा है। और अभी का वर्तमान प्राइस बहुत कम है। मखाना के गुड़ी का एक्चुअल प्राइस ₹10-12 हजार क्विंटल होना चाहिए। उम्मीद हैं जल्द ही एक्चुअल प्राइस मिलने लगेगी। इससे नुकसान उन किसानों का होगा जो तत्कालिक नुकसान को देखते हुए खेती छोड़ देंगे।" मिथिला नेचूरल्स में मखाना से संबंधित प्रोडक्ट को बेचा जाता है।

मखाना महोत्सव-सह-राष्ट्रीय सम्मेलन में दरभंगा गायब

कुछ दिनों पहले तक बिहार में मिथिला राज्य की मांग जोरों से चल रही थी। इसी से मिलती-जुलती राजनीति यहां भी हुई। वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने ट्वीट कर घोषणा की- कि GI Tag से पंजीकृत हुआ मिथिला मखाना, किसानों को मिलेगा, लाभ  कमाना और आसान होगा।" हालांकि जीआई टैग के लिए आवेदन भेजते वक्त बिहार मखाना के नाम से प्रेस नोट निकाला गया था।

दरभंगा के वरिष्ठ पत्रकार विष्णु कुमार झा कहते हैं कि, "पटना में आयोजित मखाना महोत्सव-सह-राष्ट्रीय सम्मेलन में सबसे ज्यादा उत्पादन करने वाला क्षेत्र मिथिला को नजरअंदाज कर कई नामचीन रिसर्चर को आमंत्रित ही नही किया गया। दरभंगा अवस्थित मखाना अनुसंधान केंद्र के स्टाफ व वैज्ञानिकों को मखाना महोत्सव के संबंध में कोई आधिकारिक जानकारी नहीं थीं। मखाना अनुसंधान केंद्र दरभंगा में 12 की जगह मात्र 4 वैज्ञानिक पोस्टेड हैं। जिनमें से दो स्टडी लीव पर हैं। रिसर्च कार्य के लिए कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर जैसे एनालिटिकल लेबोरेटरी नही है। मिट्टी जांच भी उपलब्ध नहीं है। बाहर से करवाना पड़ता है। ऐसे में मखाना महोत्सव सिर्फ कागज पर दिखेगा जमीन पर नहीं।"

दरभंगा अवस्थित मखाना अनुसंधान केंद्र के बगल में मखान की खेती

मल्लाहों का संघर्ष

बिहार में मछली और मखाना की खेती मुख्य रूप से मल्लाह करते हैं। सुपौल के राजेश्वर मुखिया मछली और मखाना की खेती से जुड़े मुद्दों पर आवाज उठाते रहते हैं। वो मल्लाह संघ के जिला अध्यक्ष भी रह चुके हैं। वो बताते हैं कि, "मखाने की गिरती कीमतों का कई परिवारों पर प्रतिकूल असर पड़ने वाला है। जमींदार को मुआवजा मिलेगा हमें क्या मिलेगा। व्यापारियों के वर्चस्व में हम क्यों पिसवाएं। वहीं अगर उत्पादन ज्यादा हुआ हैं तो सरकार को उचित दाम पर मखाना खरीदनी चाहिए। मखाना के लिए भी कुछ एमएसपी होना चाहिए या दूध सहकारी की तरह कुछ तंत्र होना चाहिए ताकि मल्लाह अपना मखाना बेच सकें। अनुदान की स्थिति तो सबको पता है।"

मल्लाह मुकेश मुखिया बताते हैं कि, "मखाना की गुर्री को ज्यादा दिनों तक सुरक्षित रखने में किसानों को बहुत मेहनत करना पड़ता है। मखाना निकालने की प्रक्रिया काफी मुश्किल और चुनौती भरी है। सितंबर में हार्वेस्टिंग के बाद तुरंत प्रॉसेसिंग करना होता है। नवंबर आते आते गुर्री में अंकुरण शुरू हो जाता। ऐसे में बहुत मखान बर्बाद हो जाता है। सरकार को मशीनीकरण पर जोर देना चाहिए।" इस बार कई किसानों का मखान इस वजह से बर्बाद हुआ है।

अनुदान की कहानी

कृषि विभाग के मुताबिक मखाना विकास योजना अंतर्गत मखाना के उच्च प्रजाति के बीज का प्रत्यक्षण हेतु सरकार 75% अनुदान मतलब इकाई लागत 97,000 रूपये/हेक्टेयर देती है। वही सुपौल जिले के बीना पंचायत के एक मखाना किसान रंजीत के मुताबिक प्रत्येक साल अनुदान के रूप में सिर्फ ₹30000 मिलता है। जबकि वो लगभग 5 बीघा मखान की खेती करते हैं।

कृषि विभाग में काम कर रहे एक अधिकारी नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं, कि "अनुदान कहने को तो सभी किसानों के लिए होता है। लेकिन, मिलता नहीं है सबको। पहले से ही आंकड़े तय होते हैं कि किस जिले में कितने किसानों को बांटना है। उसी हिसाब से अनुदान लोगों को दे देते हैं।"

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