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15 अगस्त: कभी असल झंडा छूने तक को न मिला

एक कवि आज़ादी और आज़ादी के जश्न को किस तरह से देखता है, समझाता है वह इन दो कविताओं में बखूबी देखा जा सकता है। बहुत सहज सरल ढंग से कही गईं यह कविताएं गंभीर सवाल उठाती हैं। 
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यहां दो कविताएं हैं बहुत सीधी-सादी, सहज, लेकिन अपने भीतर गहरे अर्थ छुपाए हुए। पहली कविता में वीरेन डंगवाल बचपन को याद करते हुए एक बच्चे के माध्यम से और दूसरी कविता में शोभा सिंह एक महिला के माध्यम से आज़ादी और किसकी आज़ादी को जिस तरह परिभाषित करते हैं वह बहुत गहरा अर्थ रखता है। 

झंडा : वीरेन डंगवाल


सुबह नींद खुलती 

तो कलेजा मुंह के भीतर फड़क रहा होता 

ख़ुशी के मारे 

स्कूल भागता 

झंडा खुलता ठीक ७:४५ (7.45) पर, फूल झड़ते 

जन-गण-मन भर सीना तना रहता कबूतर की मानिन्द 

बड़े लड़के परेड करते वर्दी पहने शर्माते हुए 

मिठाई मिलती 


एक बार झंझोड़ने पर भी सही वक़्त पर 

खुल न पाया झंडा, गांठ फंस गई कहीं 

हेडमास्टर जी घबरा गए, गाली देने लगे माली को 

लड़कों ने कहा हेडमास्टर को अब सज़ा मिलेगी 

देश की बेइज़्ज़ती हुई है 


स्वतंत्रता दिवस की परेड देखने जाते सभी 

पिताजी चिपके रहते नए रेडियो से 

दिल्ली का आंखों-देखा हाल सुनने 


इस बीच हम दिन भर 

काग़ज़ के झण्डे बनाकर घूमते 

बीच का गोला बना देता भाई परकार से 

चौदह अगस्त भर पन्द्रह अगस्त होती 

सोलह अगस्त भर भी 


यार, काग़ज़ से बनाए जाने कितने झंडे 

खिंचते भी देखे सिनेमा में 

इतने बड़े हुए मगर छूने को न मिला अभी तक 

कभी असल झंडा 

कपड़े का बना, हवा में फड़फड़ करने वाला 

असल झंडा 

छूने तक को न मिला!

………………..


आज़ादी: शोभा सिंह


पतंगे 

रंग–बिरंगी

अगस्त के आसमान में 

मुक्त

डोर पर सवार

सधे हाथों से

युद्ध की समझदारी से

पेच लड़ाती

दो में से एक का कटना अनिवार्य


न जाने कहां

किस घर आंगन 

बगीचे या सड़क 

रेल लाइन या बिजली के तार

पर जा गिरतीं


कहीं हर्ष ध्वनि– वो काटा

कहीं लंबी हाय– कट गई

कहीं लूटो– मुफ़्त की

कैसा थ्रिल कैसा जुनून

घायल होते

कहीं प्राण तक गंवा देते

कहीं पतंगों के ढेर से चुनते रंग

मनाते आज़ादी का जश्न


सीख न पाए हम


आज़ादी का पर्व

मना न पाए हम


अपने हिस्से का आकाश नहीं मिला


आज़ादी झूठी लगती है मुझे 

बहुत से लोगों की तरह

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