वित्तीय पूंजी और विश्व अर्थव्यवस्था में कम होता मज़दूरों का हिस्सा
नवउदारवाद के दौर में, कुल उत्पाद में से आर्थिक अधिशेष या सरप्लस के हिस्से में बढ़ोतरी हुई है। यह बढ़ोतरी, अलग-अलग विभिन्न देशों के स्तर पर भी हुई है और कुल मिलाकर पूरी दुनिया के स्तर पर भी। इसकी वजह यह है कि अर्थव्यवस्थाओं के दरवाजे मालों तथा सेवाओं के कहीं ज्यादा मुक्त व्यापार के लिए खोले जाने से, हर जगह ढांचागत सह प्रौद्योगिकीय बदलाव कहीं ज्यादा तेजी से आते हैं और ये बदलाव चूंकि अपने चरित्र में ही श्रम-विस्थापनकारी होते हैं, इनके चलते रोजगार की वृद्घि दर नीची ही बनी रहती है। यहां तक कि रोजगार में वृद्घि की दर, श्रम-शक्ति की प्राकृतिक बढ़ोतरी की दर से भी नीचे रहती है। इसके चलते श्रम की सुरक्षित सेना यानी बेकारों की फौज में बढ़ोतरी, हर जगह रोजगार में वृद्घि के स्तर को दबाए रखने का काम करती है और यह होता है इस दौरान श्रम की उत्पादकता में भारी बढ़ोतरी होने से। इसी का नतीजा होता है, आर्थिक अधिशेष या सरप्लस के हिस्से का बढ़ जाना।
मजदूरी के हिस्से में से काटकर, अधिशेष के हिस्से में इस तरह की बढ़ोतरी होना, उपभोग मांग को और इसलिए अर्थव्यवस्था में सकल मांग को भी दबाने का काम करता है। इससे अर्थव्यवस्था में अधि-उत्पादन या ओवरप्रोडक्शन के संकट की प्रवृत्ति पैदा होती है। लेकिन, चूंकि वित्तीय पूंजी की जिद के चलते, राजकोषीय अनुदारवाद, शासन द्वारा खर्चा किए जाने के जरिए, इस प्रवृत्ति को किसी तरह से काट किए जाने का रास्ता बंद ही कर देता है, नवउदारवादी व्यवस्था में इस प्रवत्ति की काट करने का एक ही साधन रह जाता है और वह है परिसंपत्ति मूल्य का बुलबला।
परिसंपत्ति मूल्य के बुलबले भी मांग को ऊपर उठाने का काम करते हैं। लेकिन, अगर संयोग से ऐसा कोई बुलबुला पैदा भी हो जाता है, तो वह बुलबुला भी वास्तव में अधि-उत्पादन के संकट को, कुछ समय के लिए टालने भर का काम कर सकता है। जाहिर है कि इस बुलबुले का फूटना, अर्थव्यवस्था को संकट में धकेल देता है।
2008 में अमरीका में जब आवासन का बुलबुला फूटा, इसकी चोट अमेरिका की अर्थव्यवस्था पर तो पड़ी ही, विश्व अर्थव्यवस्था पर भी पड़ी। वास्तव में, कोविड-19 की महामारी के आने से पहले से, 2009-19 के दशक की पहचान, दीर्घ संकट के दशक की बन चुकी थी। इस दशक में विश्व अर्थव्यवस्था ने, दूसरे विश्व युद्घ के अपने पूरे दौर की, सबसे कम दशकीय औसत वृद्घि दर दर्ज करायी थी।
बेशक, महामारी और उससे जुड़े लॉकडॉउनों के चलते विश्व उत्पाद में शुद्घ गिरावट की ही नौबत आ गयी। अलग-अलग देशों में इस गिरावट का सापेक्ष आकार प्रकारांतर से, विभिन्न सरकारों द्वारा इस दौरान लाए गए बचाव-राहत पैकेजों के परिमाण पर निर्भर रहा है। मिसाल के तौर पर अमेरिका में, जहां यह पैकेज जीडीपी के करीब 10 फीसद के बराबर रहा है, जीडीपी में गिरावट भी अपेक्षाकृत थोड़ी ही रही है, जैसे 2020 में 3.5 फीसद की गिरावट। लेकिन भारत में, जहां सरकार का बचाव-राहत पैकेज जीडीपी के 2 फीसद से भी कम ही रहा था, 2020-21 में जीडीपी में पूरे 7.3 फीसद की गिरावट दर्ज हुई। बहरहाल, सबसे विकसित देशों में हम स्पष्ट रूप से उन नवउदारवादी नीतियों से पलटे जाने की प्रक्रिया देखते हैं, जिन पर पिछले चार दशकों से चला जा रहा था। इन देशों में राजकोषीय घाटे के आकार में उल्लेखनीय तरीके से तथा सोच-समझ कर बढ़ोतरी की गयी है। यूरोपीय यूनियन ने तो अस्थायी रूप से उस वैधानिक सीमा को ही हटा दिया, जो जीडीपी के अनुपात के रूप में राजकोषीय घाटे के आकार पर लगायी गयी थी।
इससे एक सवाल यह उठता है कि क्या अब, जबकि महामारी की भीषणता में कमी हो गयी है और जाहिर है कि हम यह मानकर चल रहे हैं कि अब इस महामारी की कोई नई लहर नहीं आएगी, क्या नवउदारवादी नीतियों पर वापस लौट जाया जाएगा? जो बाइडेन के नेतृत्व में नया अमरीकी नेतृत्व तो स्पष्ट रूप से नवउदारवाद पर ऐसी वापसी के खिलाफ है और कम से कम खुद अमरीका के मामले में तो ऐसी वापसी के खिलाफ है ही। उसने इसका कोई आम एलान नहीं किया है कि उसकी नजर में पूरी दुनिया को क्या करना चाहिए और इसलिए, सिद्घांत रूप में नवउदारवाद के विरोध का भी उसने कोई आम एलान नहीं किया है। फिर भी, पिछले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा जिस 20 खरब डालर के पैकेज का एलान किया गया था, उसके ऊपर से बाइडेन ने 20 खरब डालर का ही एक और बचाव-राहत पैकेज तो मुहैया कराया ही है, इसके अलावा उसकी योजना आने वाले कुछ वर्षों में ढांचागत परियोजनाओं पर सरकारी खर्चों में इसी स्तर की बढ़ोतरी करते रहने की भी है।
बहरहाल, नवउदारवाद के सीधे-सीधे तथा सभी जगहों के लिए ठुकराए जाने के पक्षधर नीतिगत रुख के अलावा (जिसका बाइडेन ने पूरी तरह से अनुमोदन नहीं किया है), हम इस मुद्दे पर दो अन्य रुख देख सकते हैं। इनमें से एक रुख वह है जो पूरी तरह से नवउदारवाद पर लौटने की मांग करता है। इसका मतलब है राजकोषीय पुरातनपंथ की वापसी, निजी निवेशों को आगे बढ़ाने के लिए लगभग शून्य ब्याज दर की व्यवस्था चलाना, सार्वजनिक क्षेत्र को खत्म करना और मजदूरों पर हमले के जरिए, मजदूरी के हिस्से में और कमी करने की कोशिश करना। इस तरह का रुख अमरीका ने तो उठाकर ताक पर रख दिया है, लेकिन योरपीय यूनियन में उसे समर्थन हासिल है।
दूसरा रुख है, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) का। वह सिद्घांत रूप में चाहे ऐसा नहीं करे, पर व्यावहारिक रूप से एक विभेदीकृत रुख अपनाता है। वह उन्नत देशों के लिए तो राजकोषीय ‘उदारीकरण’ के पक्ष में नजर आता है, लेकिन तीसरी दुनिया के देशों के मामले में राजकोषीय पुरातनपंथ पर ही चले जाने का आग्रह करता है। मिसाल के तौर पर तीसरी दुनिया के देशों के लिए महामारी के दौर में ऋण-सहायता मुहैया कराए जाने के हरेक मामले में, आइएमएफ ने राजकोषीय ‘कमखर्ची’ लागू किए जाने को, ऐसी सहायता की शर्त बना दिया है।
आइएमएफ की रणनीति, पूरी तरह से साम्राज्यवादी परिप्रेक्ष्य की संगति में है। तीसरी दुनिया के देशों में राजकोषीय ‘कमखर्ची’ का प्रभाव, इन देशों में सकल मांग को नीचा रखने का काम करेगा और इस तरह इन देशों में प्राथमिक उत्पादों की बचत होगी, जो विकसित देशों को कीमतों में किसी भी बढ़ोतरी के खतरे के बिना ही उपलब्ध हो जाएंगे। याद रहे कि विकसित देशों में राजकोषीय उदारतावाद के अपनाए जाने के खिलाफ वित्तीय पूंजी एक दलील तो यही देती आयी है कि इससे मुद्रास्फीति बढ़ सकती है। इसे देखते हुए, आइएमएफ जैसा, इस प्रकार का भिन्नीकृत रुख, मुद्रास्फीति पैदा होने की उक्त आशंका को भी दूर कर देता है और विकसित देशों के लिए प्रकटत: एक ‘आदर्श’ समाधान मुहैया कराता है, जो जाहिर है कि औपनिवेशिक जमाने की ही याद दिलाता है। हां! यह बात जरूर है कि औपनिवेशिक जमाने में विकसित दुनिया को उपनिवेशों से प्राथमिक उत्पाद, न सिर्फ मुद्रास्फीति के बिना उपलब्ध होते थे बल्कि वास्तव में उन्हें ये उत्पाद मुफ्त ही मिल रहे होते थे, क्योंकि सामराजी सत्ता इन उपनिवेशों से अधिशेष निचोड़कर ले जा रही होती थी।
अंक्टाड की ‘ट्रेड एंड डैवलपमेंट रिपोर्ट-2021’ में इसका हिसाब लगाया गया है कि अगर महामारी के बाद दोबारा नवउदारवादी नीतियों को चालू कर दिया जाता है, तो विश्व अर्थव्यवस्था की स्थिति कैसी होगी? इस गणना के लिए निम्रलिखित चीजों को मानकर चला गया है: राजकोषीय घाटों को जीडीपी के 3 फीसद से नीचे रखा जा रहा होगा; श्रम बाजार का ‘विनियमन’ किया जा रहा होगा; केंद्रीय बैंकों द्वारा अर्थव्यवस्था में तरलता के इंजैक्शन लगाया जाना जारी रहेगा; और पूंजी बाजारों का ‘उदारीकरण’ जारी रहेगा। ये सब वही कदम हैं, जो महामारी के हस्तक्षेप करने से पहले, नवउदारवादी निजाम के दौरान चलन में थे। अगर इन कदमों को दोबारा अपनाया जाता है तो, अंक्टाड के आकलन के अनुसार 2023-2030 के दौरान विश्व अर्थव्यवस्था की वृद्घि की दर, 2010-2019 के दौर में जितनी रही थी, उससे भी धीमी चल रही होगी। जहां 2010-2019 के दौरान विश्व अर्थव्यवस्था की वृद्घि दर 3.13 फीसद सालाना रही थी, नवउदारवादी निजाम के नये दौर में 2023 से 2030 के दौरान यह दर सिर्फ 2.54 फीसद सालाना रह जाएगी। भारत के लिए अलग से आंकड़े तो नहीं दिए गए हैं, बहरहाल दक्षिण एशिया के लिए यही दर, जो 2010-19 के दौर में 5.89 फीसद रही थी, 2023-30 के दौर में 3.64 फीसद ही रह जाएगी।
बहरहाल, जीडीपी की वृद्घि दर के नीचे खिसक जाने के बावजूद, श्रम उत्पादकता की वृद्घि दर ऊंची बनी रहेगी क्योंकि नवउदारवादी व्यवस्था के अंतर्गत देशों के बीच होड़ हो रही होगी, जिनमें से हरेक देश के दरवाजे मालों व सेवाओं के कहीं मुक्त प्रवाह के लिए खुले हुए होंगे और इसलिए वहां श्रम की बचत करने वाले, प्रौद्योगिकीय सह ढांचागत बदलाव तेजी से आ रहे होंगे। इसका अर्थ यह हुआ कि रोजगार की वृद्घि दर, जो जीडीपी की वृद्घि में से श्रम की उत्पादकता में वृद्घि की दर को घटाने से निकलने वाले अंक के बराबर होती है, पहले वाले दौर के मुकाबले भी घटकर रह जाएगी। चूंकि जीडीपी में वृद्घि दर तेजी से घट रही होगी और श्रम उत्पादकता में बढ़ोतरी की दर अपेक्षाकृत अपरिवर्तित ही बनी रहेगी, रोजगार में वृद्घि पहले से भी काफी कम होगी और वास्तव में ऋणात्मक ही होगी।
नवउदारवाद के संकट में फंसने से पहले भी, जब विश्व अर्थव्यवस्था को अमरीका में एक के बाद एक आये दो परिसंपत्ति मूल्य बुलबुलों ने ऊपर उठाए रखा था, पहले डॉट कॉम बुलबुले ने और बाद में आवासन बुलबुले ने, उस समय भी भारत में रोजगार में बढ़ोतरी की दर, श्रम शक्ति में वृद्घि की प्राकृतिक दर से नीचे खिसक चुकी थी। इसका नतीजा यह हुआ था कि कामकाजी आबादी के बीच शुद्घ गरीबी में बढ़ोतरी हुई थी क्योंकि इस आबादी के बढ़ते हुए हिस्से के पास अपनी इतनी क्रय शक्ति भी नहीं रह गयी थी कि वे इतना आहार हासिल कर सकें जो, उन्हें रोजाना उतनी कैलोरी मुहैया करा सके, जिसे हमारे देश में गरीबी की रेखा माना गया है। याद रहे यह सब तो महामारी के आने से पहले की बात थी। जाहिर है कि महामारी ने गरीबी को और बहुत बढ़ा दिया है। इसलिए, नवउदारवादी नीतियों के जारी रहने से, जिन्हें विकसित देशों के विपरीत भारत ने कभी छोड़ा ही नहीं था, गरीबी के महामारी से पहले वाले स्तर पर लौट जाने तक की, कोई संभावनाएं ही नहीं हैं।
बहरहाल, मोदी राज तो हर कीमत पर नवउदारवादी नीति-निजाम को ही चलाने पर तुला हुआ है। उसके पास न तो अर्थव्यवस्था को लेकर अपने कोई विचार हैं और न ही उसे मेहनतकश जनता की कोई परवाह है। इसलिए, वह तो बस अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के फरमानों पर चलता है कि सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण कर दो, राजकोषीय कमखर्ची से चिपके रहो, मजदूरों के अधिकारों पर हमले करो ताकि मजदूरी के हिस्से को कम कराया जा सके और मौद्रिक नीति का औजार की तरह इस्तेमाल कर, इजारेदार पूंजीपतियों को निवेश करने के लिए पटाने की कोशिश करो। मेहनतकश जनता को आने वाले महीनों में, इस रास्ते की भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।
समय की मांग है कि इस रास्ते पर चलने के बजाए, एक ऐसी महामारी-उत्तर विकास रणनीति तैयार की जाए, जो सार्वजनिक निवेश को बढ़ाने पर और अनेकानेक आवश्यक सेवाओं पर, खासतौर पर शिक्षा व स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्चे बढ़ाने पर, केंद्रित हो और इसके लिए वित्तीय संसाधन, संपदा कर लगाकर या कार्पोरेट कर बढ़ाकर जुटाए जाएं। राजकोषीय घाटे में बढ़ोतरी, इस तरह के कराधान की जगह नहीं ले सकती है बल्कि तब तक के लिए एक अंतरिम कदम ही हो सकती है, जब तक उक्त कर लगा नहीं दिए जाते हैं। बहरहाल, रोजकोषीय घाटे का बढ़ना, राजकोषीय ‘कमखर्ची’ के मुकाबले तो हर सूरत में बेहतर है।
(व्यक्त विचार निजी हैं)
अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:-
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