Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

रेल ही नहीं, मानवता भी पटरी से उतरी

नया संसद भवन बना देने या उसमें राजदंड रख देने मात्र से न तो लोकतंत्र में नई जान आएगी और न ही नौकरशाही में अतिरिक्त जवाबदेहिता। बालेश्वर (बालासोर) में हुई दुर्घटना ने सरकार, नौकरशाही और राजनीतिज्ञों को पूरी तरह से उधेड़ कर रख दिया है।
train accident
फ़ोटो : PTI

''बहुमत का शासन आज का नियम बन गया है। इसकी कोई परवाह नहीं करता कि बहुमत विवेकशील और चरित्रवान है या नहीं। क्या बहुमत का राज केवल पशुबल नहीं हैं? आप सेना के शासन या रूपये के शासन में और बहुमत के शासन में कैसे भेद कर सकते हैं? यह पशुबल नहीं तो और क्या है?'’- विनोबा

बालेश्वर (बालासोर) रेल दुर्घटना ने भारतीय लोकतंत्र के बाहरी आवरण को पूरी तरह अनावृत कर उसके सड़ते कंकाल को हमारे सामने उधेड़ कर रख दिया है। दुर्घटना के बाद रेलमंत्री द्वारा की गई नारेबाजी, प्रधानमंत्री के दुर्घटना स्थल पर दौरे के बाद उनकी जयजयकार के नारे, तकनीकी जांच रिपोर्ट आने के पहले इसे दुर्घटना को साजिश बता केंद्रीय जांच ब्यूरो से जांच शुरू करवाना, पास स्थित मंदिर को मस्जिद बताकर, इसे आतंकी घटना बताना यदि वहां वास्तव में मस्जिद होती तो क्या यह स्वयं सिद्ध हो जाता कि यह एक साजिश हैं लाशों को बिना ढके छोटे मिनी ट्रक व टेम्पों में एक के एक ऊपर डालकर (थप्पी की तरह) घटनास्थल से ले जाना, रेलवे सुरक्षा के लिए ''कवच'' का अनावश्यक प्रचार और इस सबसे ऊपर लाशों के ढेर पर लाभ कमाने वाले हमारी निजी हवाई सेवाएं, जिन्होंने 5-6 हजार के हवाई टिकट के दाम बढ़ाकर 56000 रू. कर दिए, मीडिया द्वारा वर्तमान दुर्घटना की खोजबीन करने के बजाय पिछले सरकारों के दौरान हुई दुर्घटनाओं का तुलनात्मक अध्ययन, रेलमंत्री या रेलवे बोर्ड वे अध्यक्ष का इस्तीफा न देना, आज दिन तक एक भी अधिकारी का निलंबन न होना, रेलवे बोर्ड और संसदीय, समिति द्वारा रेल सुरक्षा में कमी की ओर ध्यान दिलाने के बावजूद उस दिशा में कार्य न करना, रेल सुरक्षा को लेकर सी.ए.जी.(महालेखाकार) की अनुशांसाओं की अनदेखी, इन ट्रेनों में 72 यात्रियों की क्षमतावाली बोगी में 200 से ज्यादा लोगों का सफर करना, रेल सुरक्षा पर यथोचित निवेश करने के बजाय वंदे भारत जैसी मंहगी रेल का संचालन करना, सामान्य रेल से सौ गुना ज्यादा लागत वाली बुलेट ट्रेन चलाना, पृथक रेल बजट समाप्त करना, जिसकी वजह से रेलवे पर विस्तृत बहस होना ही बंद हो गई, विपक्षी दलों के आरोपों का जवाब न देना, आदि आदि। धृष्टताओं की फेहरिस्त अभी और भी लंबी हो सकती है। जैसे एक महीने से ज्यादा हो गया था पहलवानों की हड़ताल को, लेकिन उस ओर ध्यान ही नहीं दिया। इस रेल दुर्घटना के बाद तकरीबन हर दूसरे दिन गृहमंत्री पहलवानों को चर्चा के लिए बुलाने लग गए हैं। मीडिया भी अब रेल दुर्घटना से अपना ध्यान हटाकर पहलवानों की छवि बिगाड़ने में लग गया है। इस बीच सरकार को किसान, किसान नेता और किसान आंदोलन तीनो की आलोचना का स्वर्ण अवसर भी प्राप्त हो गया है। अब यहां तो रूकते हैं।

आपदा में अवसर, भाजपा का ब्रहमास्त्र है।

फिराक गोरखपुरी का शेर है-

जब-जब भी इसे सोचा दिल थाम लिया मैंने

इंसान के हाथों से इंसान पे जो गुजरी

दुर्घटना हुए एक हफ्ता हो गया, लेकिन आरोप प्रत्यारोप का दौर थम ही नहीं रहा है। इस दुर्घटना ने भारत के संघीय ढांचे में पड़ रही दरारों को और चौड़ा ही नहीं बल्कि गहरा भी कर दिया है। प्रधानमंत्री के दुर्घटना स्‍थल के दौरे के दौरान ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और जिस राज्य से सर्वाधिक मौत हुई हैं, यानी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की अनुपस्थिति दर्शा रही है कि अंततः पूरा मामला ’’एकला चलो और एकला प्रदर्शिता'’ (दिखाई देना) में सिमट गया है। राज्यों में यह प्रचलन में हैं कि यदि प्रधानमंत्री किसी राज्य में पहुंचते हैं तो मुख्यमंत्री उनकी अगवानी हेतु मौजूद रहते हैं। कई बार जब मुख्यमंत्री मौजूद नहीं रहते है तो सत्ताधारी दल इसको लेकर विरोध जताते हैं। परंतु भयावह वेदना के इस क्षण में भी प्रधानमंत्री के साथ प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों का न होना वास्तव में बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। क्या रेल विभाग के केंद्र शासन के अन्तर्गत होने भर से राज्यों का इस पर कोई अधिकार नहीं रह जाता? देखभाल, चिकित्सा, व अन्य कानूनी औपचारिकताए, तो राज्य सरकारों के माध्यम से ही होगी। क्या इस संकट के समय भी केंद्र बड़ा दिल दिखाकर सबको साथ लेकर नहीं चल सकता था? कहीं कभी किसी और के साथ, एकाध फोटू छप भी जाए तो कोई आसमान थोड़े ही फट पडे़गा।

नरेाश सक्सेना की कविता है-

''मुर्दे’’

''मरने के बाद शुरू होता है मुर्दें का अमर जीवन/दोस्त आयें या दुश्मन/वे ठंडे पड़े रहते हैं/लेकिन आपने देर कर दी/तो फिर/उन्हें अकड़ने से कोई रोक नहीं सकता/मजे ही मजे होते हैं, मुर्दों के/बस इसके लिए एक बार मरना पड़ता है।'’

परंतु यहां तो समस्या जिंदा लोगों के अकड़ जाने की है। अब कितनी ही बड़ी दुर्घटना हो जाए, सामान्य मनुष्यों में संवेदनाएं जगतीं ही नहीं। वे मन को बहलाते रहते है कि न तो हम इसमें मरे न हमारा कोई मरा है, तो हमें इससे क्या? कई राजनीतिज्ञों के लिए जैसे पहले भी कहा कि यह आपदा में अवसर की तरह आता है और वे इसे गड़प और हड़प लेते हैं। खासकर तक जब अगला चुनाव नजदीक है, तमाम गड़े मुर्दें उखाड़े जाने लगते हैं। परंतु वे यह भूल जाते हैं कि वे लोग तो नई खुदी कब्रों के नजदीक ही खड़े हैं, और उनकी जरा सी लापरवाही उन्हें भी वहीं पहुंचा सकती हैं, जिसे वे अवसर की तरह भुनाना चाहते हैं। बालेश्वर में मारे गए लोग वस्तुतः अनाम हैं। वे अक्‍सर रेल की सबसे आगे व सबसे पीछे वाली ’’जनरल’’ बोगी में सफर करते हैं। सारे वातानुकूलित व उच्च श्रेणी के डब्बे बीच में होते हैं। ये अनाम यात्री इन उच्च श्रेणी के यात्रियों के लिए ’’मानव ढाल’’ की तरह कार्य करते हैं और जरूरत पड़ने पर अपना जीवन तक इन लोगों पर न्योछावर कर देते हैं। कई बार तो यह भी हुआ है कि इन ’’जनरल’’ डिब्बों में इतनी भीड़ हो गई कि कई लोग दम घुटने से ही मर गए। कल्पना कीजिए, खुले आसमान के नीचे सरपट भागती ट्रेन की जिसके सभी खिड़की दरवाजे खुले है, ट्रेन तेज रफ्तार से दौड़ रही है, फिर भी डिब्बे में बैठे कई यात्रियों तक हवा यानी ऑक्सीजन नहीं पहुंचती और वे दम घुटने से मर जाते है। क्या किसी वातानुकूलित डिब्बे में ऐसा होते सुना है? वंदे भारत ट्रेन से भैस या गाय का टकराना, राष्ट्रीय अखबारों के पहले पन्ने की खबर होती है। वंदे भारत पर पत्थर फेकने की खबर भी पहले पन्ने पर होती है, लेकिन कितने अखबारों में रेल में दम घुटने से मरने की खबर पहले पन्ने पर होती है? कभी सोचिए ये लोग कैसे 24-48-72 या 96 घंटों तक का सफर करते होंगे, जबकि वे ’’जनरल बोगी’’ के कोने पर स्थित शौचालय तक नहीं जा सकते, क्योंकि उन शौचालयों में भी लोग बैठकर सफर कर रहे होते है।

पर दुर्घटना के बावजूद यह सब चर्चा का विषय नहीं है। यदि डिब्बे में तीन गुना यात्री नहीं होते तो शायद मृत्यु भी एक तिहाई की ही होती है। वंदे भारत ट्रेन ही चलाना अब सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी बन गई है। शायद इसकी एक वजह यह भी हो सकती है। कि अधिकांश कामगार सामान्यतया अपने घरों से पलायन कर गए होते हैं और अक्सर मतदान में भी भाग नहीं ले पाते हैं। सवाल तो यह उठाया जाना चाहिए कि जिन रेलों में अत्यधिक भीड़ है, उनकी गति थोड़ी कम करके उनमें यात्री डब्बों की संख्या में वृद्धि की जाए। मूल मुद्दा तो प्राथमिकता तय करने का है। जिस विभाग के ऊपर करोड़ों यात्रियों की सुरक्षा व आवगमन की जिम्मेदारी है, उस विभाग का तो अपना पृथक केबिनेट मंत्री ही नहीं है। इसलिए वह एक संविदा कर्मचारी की तरह ही है और इसलिए उस पर कोई बड़ी जिम्मेदारी नहीं होती।

दुर्घटना के बाद इतनी जल्दबाजी की गई कि जिन्दा और मुर्दा का भेद भी मिट गया। कई परिजनों ने अपने करीबियों को लाशों के ढेर के नीचे से जिंदा दबा बाहर निकाला है। यानी घटनास्थल पर व्यक्तियों की नब्ज तक ठीक से नहीं जांची गई, जबकि देश के प्रधानमंत्री स्वयं घटनास्थल पर पहुंचे थे। इससे तंत्र की लापरवाही का सहज अंदाज भी हो ही जाता है। अतएव यही समय है वास्तविक राजनीति करने का। सभी पक्षों की जिम्मेदारी अंततः राजनीतिक व्यवस्था ही तो तय करेगी। नया संसद भवन बना देने या उसमें राजदंड रख देने मात्र से न तो लोकतंत्र में नई जान आएगी और न ही नौकरशाही में अतिरिक्त जवाबदेहिता। बालेश्वर में हुई दुर्घटना में शासन में नौकरशाही, पूंजीपतियों, राजनीतिज्ञों को पूरी तरह से उधेड़ कर रख दिया है। संविधान, तीनों अंगों के सामंजस्य की बात करता है, परंतु वह उनकी पृथक-पृथक जिम्मेदारी को भी स्थापित करता है। अंतरनिर्भरता और गठजोड़ दोनों अलग-अलग स्थितियां हैं। आज जमाना (अनैतिक) गठजोड़ का है। नौकरशाही, उसे प्रदत्त संवेधानिक अधिकारों के उपयोग से बच रही है। वह सारी बदमानी और जिम्मेदारी विधायिका पर डालकर तमाशा देखने की आदी हो गई है। जबकि दुर्घटना होने की प्राथमिक जिम्मेदारी तो नौकरशाही पर ही आती है। यदि रेल यात्रा सुरक्षित नहीं है तो यह बात सार्वजनिक तौर पर स्वीकारी क्यों नहीं जाती। अंततः प्राथमिकताएं तो तय करनी ही चाहिए। इस दुर्घटना के बाद तो लगने लग है कि जब तक भारतीय रेल ’’कवच’’ से लैस नहीं होती, तब तक प्रत्येक यात्री रेलगाड़ी के आगे एक छोटी गाड़ी चले जो पीछे आने वाली रेल को लगातार चेताती रहे। भारत में सारे अत्याधुनिक संसाधन अंततः मानवीय भूलों का शिकार क्यों बन जाते हैं? सोचिए एक हजार से ज्यादा यात्रियों को ले जाने वाला लोको पायलट यदि बिना विश्राम के 15 घंटे लगातार रेल इंजन में बैठा रहेगा तो चूक होना उसकी अकेले की मानवीय भूल नहीं है, वस्तुतः यह ’’संस्थागत भूल’’ है और इसके लिए वह प्रत्येक उच्च पदाधिकारी जिम्मेदार है जो इस रेल सेवा से जुड़ा है। केदारनाथ अग्रवाल की पंक्तियां हैं-

सरकार सोचती है

अफसर के माध्‍यम से अपना भला,

अफसर सोचता है

सरकार के माध्‍यम से अपना भला,

जनता सोचती है

सरकार और अफसर से, हो नहीं सकता भला

इसलिए जनता का कटता चला जा रहा है गला,

सरकार और अफसर की संगठित लड़ाई में, जनतंत्र के ऊपर राजतंत्र की लड़ाई में।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest