रेल हादसा: सभी सरकारी सेवाओं में man-power की कमी की क़ीमत चुकाने के लिए देशवासी अभिशप्त
सदी के सबसे भयानक रेल हादसे से पूरा देश सकते में है। इस हादसे के ठोस कारण तो जाँच के बाद सामने आएंगे, पर इतना तो स्वयं रेलमंत्री अश्विनी वैष्णव संसद में बता चुके हैं कि रेलवे में 3.12लाख पद खाली पड़े हैं, जिसमें 1.4 लाख पद रेलवे सुरक्षा स्टाफ के हैं। सेंट्रल जोन में कुल खाली पदों में आधे रेलवे सुरक्षा से जुड़े पद हैं। ऐसा ही अन्य zones में होगा।
आखिर रेलवे सुरक्षा स्टाफ में, जहाँ छोटी सी चूक जानलेवा साबित हो सकती है, इतने बड़े पैमाने पर पदों को खाली छोड़ना रेलयात्रियों की जिंदगी के साथ खिलवाड़ नहीं तो क्या है ? अगर यह मानवीय भूल भी थी तो क्या इसका रिश्ता पर्याप्त स्टाफ के अभाव में भारी दबाव और तनाव में रेलकर्मियों के काम से न होगा ?
याद करिए, रेलवे की इन्हीं भर्तियों में विलंब और अनियमितताओं को लेकर प्रतियोगी छात्रों ने पिछले दिनों पटना से प्रयाग तक रेलवे tracks पर कब्जा किया था, जिन्हें भारी बल प्रयोग और दमन के बाद ही पुलिस खाली करवा सकी थी।
दरअसल, यह केवल रेलवे का मामला नहीं है। सभी सरकारी सेवाओं में man-power की कमी की कीमत चुकाने के लिए देशवासी अभिशप्त हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी महत्व के क्षेत्रों में बहुत बड़ी तादाद में पदों के खाली रहने और जरूरत के अनुसार नए पद सृजित न होने का भारी खामियाजा आज देश भुगत रहा है।
स्वयं सरकार की स्वीकारोक्ति के अनुसार केंद्र सरकार के तमाम विभागों/उपक्रमों में 10 लाख के आसपास पद वर्षों से खाली पड़े हैं। दरअसल, चुनाव वर्ष के लिए ये वर्षों से खाली रखे गए थे, जिनमें से थोड़े बहुत पदों के नियुक्ति पत्र अब चुनाव वर्ष में रोजगार मेले जैसा तमाशा बनाकर इवेंट-प्रेमी मोदी जी द्वारा वितरित किये जा रहे हैं। राज्यों के खाली पद जोड़ दिए जाएं तो 1 करोड़ के आसपास सरकारी पद खाली बताए जाते हैं।
सरकारी खाली पदों को भरना तो जरूरी है ही, बढ़ती आबादी की जरूरत के अनुरूप बड़े पैमाने पर सार्वजनिक निवेश बढ़ाकर नए पदों के सृजन की जरूरत है। एक अनुमान के अनुसार केवल स्वास्थ्य क्षेत्र में सरकारी निवेश जो अभी बेहद कम ( जीडीपी के मात्र 1 % के आसपास ) है, वह बढ़कर 3% हो जाय तो 60 लाख नए पद केवल हेल्थ सेक्टर में सृजित किये जा सकते हैं। पर यहां तो उल्टी गंगा बह रही है। पहले से मौजूद पद ही खत्म किये जा रहे हैं, छंटनी हो रही है, नियमित पद खत्म कर contractual job आउटसोर्स किये जा रहे हैं और अंधाधुंध निजीकरण हो रहा है। इस नीतिगत दिशा के सामाजिक न्याय के लिए भी गम्भीर निहितार्थ हैं।
बहरहाल मामला केवल सरकारी सेवाओं का नहीं है। वे तो कुल रोजगार का एक छोटा हिस्सा है। सरकारी नौकरी समेत सम्पूर्ण संगठित क्षेत्र में कुल रोजगार का मात्र 7% है, जाहिर है 93% से ऊपर लोग तो गैर- सरकारी क्षेत्र में हैं।
भारत में बेरोजगारी की भयावहता का अंदाज़ा CMIE के इस आंकड़े से लगाया जा सकता है कि देश की कुल जनसंख्या में 40% लोग 25 साल से कम उम्र के हैं और उनमें से लगभग आधे ( 45.8% ) दिसम्बर 2022 में बेरोजगार थे अर्थात लगभग 25 करोड़ !
अनायास नहीं कि इसके खिलाफ छात्र-युवा पिछले कई वर्षों से मोदी के जन्मदिन 17 सितंबर को #NationalUnemploymentDay ट्विटर स्टॉर्म कर रहे हैं।
इतनी विराट श्रम शक्ति को बेरोजगार बनाकर मोदी शासन अकल्पनीय राष्ट्रीय क्षति कर रहा है !
विश्वगुरु बनने की लफ्फाजी जितनी भी की जाय, सच्चाई यह है कि आर्थिक प्रगति के बिना कोई भी देश ग्लोबल power नहीं बन सकता। राष्ट्रवाद के नाम पर गाल बजाना और राष्ट्र की वास्तविक प्रगति सुनिश्चित करना, दो बिल्कुल जुदा बातें हैं।
यह स्वागत योग्य है कि विपक्ष बेरोजगारी के सवाल को उठा रहा है। कुछ सरकारों ने बेरोजगारों के लिए भत्ते का भी ऐलान किया है। हाल ही में कर्नाटक में कांग्रेस ने इसे मुद्दा बनाया और सर्वे बता रहे हैं कि first time voters समेत युवा मतदाताओं में इससे उन्हें लाभ मिला। सरकार बनने के बाद घोषित युवा समृद्धि योजना के तहत सरकार ने स्नातक युवाओं को प्रतिमाह 3000 तथा डिप्लोमा धारियों को 1500 देने का ऐलान किया है। यह उन्हें 2 साल तक मिलेगा। ( इसी तरह उनकी छत्तीसगढ़ सरकार ने और चुनावी राज्य MP के लिए पार्टी ने भत्ते की घोषणा की है। )
जाहिर है इससे युवाओं को कुछ अंतरिम राहत मिलेगी, पर 2 साल बाद क्या होगा ?
सबसे बड़ी बात यह कि यह भत्ता किसी व्यवस्थित नौकरी/रोजगार और उससे होने वाली आय का विकल्प नहीं हो सकता।
हमारी अर्थव्यवस्था में रोजगार सृजन के मौजूदा ट्रेंड का विश्लेषण करते हुए सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. प्रभात पटनायक कहते हैं, " बेरोजगारी पर CMIE का आंकड़ा बेहद चिंताजनक picture पेश करता है। हाल के वर्षों में, न सिर्फ बेरोजगारी दर में तेज वृद्धि हुई है, बल्कि GDP में कोविड के दौर की तुलना में recovery के बावजूद बेरोजगारी दर में तब से कोई खास कमी नहीं आ रही है। "
" दरअसल, बेरोजगारी दर जो 2017-18 में 4.7% थी, कोविड से पहले ही बढ़कर 2018-19 में 6.3% हो गयी थी। लॉक- डाउन के दौरान यह छलांग लगाकर दिसम्बर 2020 में 9.1% पहुंच गई।
तब से output में कुछ सुधार के बावजूद, इसमें कोई खास कमी नहीं आयी है। दिसम्बर 22 में यह 8.3% थी जनवरी 23 में थोड़ा नीचे आयी 7.14% पर, लेकिन मार्च में फिर 7.8% पहुंच गई। "
" कोविड पूर्व 2018-19 की तुलना में जीडीपी में 12.95 % वृद्धि के बावजूद बेरोजगारी दर कम होने की बजाय 6.3% से से बढ़कर 7.8% पहुंच गई है। "
प्रो. पटनायक कहते हैं इसके दो ही अर्थ हैं पहला यह कि अर्थव्यवस्था की रिकवरी employment- intensive MSME सेक्टर में नहीं हो रही है और दूसरा यह कि सरकारी मितव्ययिता ( austerity measures ) के फलस्वरूप मांग घटने के कारण तमाम जगहों से अच्छी-खासी छंटनी हो रही है।
वे कहते हैं कि दरअसल, भारत के बेरोजगारी के ये आँकड़े इस बुनियादी सच्चाई की ओर इशारा कर रहे हैं कि नव-उदारवादी अर्थनीति कभी भी भारत में बेरोजगारी के संकट को हल नहीं कर सकती। छोटे-छोटे पूर्व व दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों का उदाहरण देते हुए नवउदारवादी नीतियों को लागू करते समय जो सब्जबाग दिखाया गया था कि सरकार अगर अपनी हस्तक्षेपकारी भूमिका को त्याग दे और सब कुछ बाजार पर छोड़ दिया जाय तो सबके लिए पूर्ण रोजगार और समृद्धि की गारंटी हो जाएगी, वह पूरी तरह गलत साबित हो चुका है। "
बेशक मोदी सरकार के नोटबन्दी और दोषपूर्ण GST जैसे कदमों, वैश्विक आर्थिक संकट और कोविड ने कोढ़ में खाज का काम किया, लेकिन भारत के गहराते रोजगार संकट का मूल कारण अधिक बुनियादी है और वह अर्थनीति की दिशा में निहित है।
प्रो. पटनायक का निष्कर्ष है, " इसीलिए नवउदारवादी नीतियों में कुछ पैबंद लगाकर बेरोजगारी का संकट हल होने वाला नहीं है। बल्कि इसके लिए नई सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की दरकार है जहाँ राज्य मेहनतकश जनता के पक्ष में सचेत हस्तक्षेप करे। "
आज जब देश 2024 के निर्णायक आम चुनाव की ओर बढ़ रहा है, सबके लिए सम्मानजनक रोजगार और गरिमामय जीवन के लिए आवश्यक वेतन/मजदूरी को चुनाव की तकदीर तय करने वाला अहम राजनीतिक मुद्दा बनाना होगा।
यह स्वागतयोग्य है कि देश में रोजगार के सवाल पर चल रहे तमाम आंदोलनों को राष्ट्रीय स्तर पर एकीकृत संगठित स्वर देने के लिए पिछले दिनों 100 से ऊपर छात्र-युवा संगठनों ने संयुक्त युवा मोर्चा का गठन किया है। इस पहल को नागरिक समाज की तमाम प्रमुख लोकतान्त्रिक हस्तियों तथा अर्थशास्त्रियों का समर्थन एवं संरक्षण हासिल है। रोजगार के अधिकार की कानूनी गारंटी की मांग को मंच ने अपना केंद्रीय नारा बनाया है।
जाहिर है इसे जमीन पर उतारने के लिए ठोस प्रयास की जरूरत है। बिना किसी संकीर्णता के देश के तमाम लोकतान्त्रिक प्रगतिशील छात्र-युवा संगठनों, छात्रसंघों, प्रतियोगी छात्र मंचों/आंदोलनों, नागरिक समाज-सबको एक व्यापक प्लेटफ़ॉर्म पर लाने और राष्ट्रीय आंदोलनात्मक कार्यक्रम के साथ आगे बढ़ने की जरूरत है।
मोदी राज की तबाही के ख़िलाफ़ रोज़गार को बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनाने के लिए क्या विपक्षी दल तैयार होंगे ?
किसान आंदोलन से लेकर तमाम जनांदोलनों का अनुभव साक्षी है कि आंदोलन जनता को खुद ही खड़ा करना पड़ता है, उसके अंदर राजनीतिक संभावना देखने-परखने के बाद ही राजनीतिक दल उसके साथ आते हैं। रोजगार का सवाल तो और भी विशिष्ट है क्योंकि इसे छूना आग से खेलना है- इसका मुकम्मल समाधान अर्थनीति में बदलाव की मांग करेगा, जिसे स्वीकार करना नवउदारवाद के लिए प्रतिबद्ध विपक्षी दलों के लिए आसान नहीं है।
आशा की जानी चाहिए छात्र-युवा, मेहनतकश तबके अपने आंदोलन के बल पर रोजगार को 2024 के चुनाव का प्रमुख प्रश्न बनाएंगे और उसे स्वीकार करने के लिए विपक्षी दलों को बाध्य करेंगे।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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