सियासत: केजरीवाल के इस्तीफ़े के मायने
आप नेता और मंत्री आतिशी दिल्ली की नई मुख्यमंत्री होंगी। आज मंगलवार, 17 सितंबर को हुई आम आदमी पार्टी (आप) की विधायक दल की बैठक में अरविंद केजरीवाल ने उनके नाम का प्रस्ताव किया। जिसे सर्वसम्मति से पास कर दिया गया। ज़मानत पर जेल से बाहर आने के बाद मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने दो दिन बाद अपने पद से इस्तीफा देने वाला बयान देकर सबको चौंका दिया था। केजरीवाल के इस बयान ने राजनीतिक हल्कों खलबली पैदा कर दी और दिल्ली को चुनावी मोड में ला खड़ा कर दिया है।
आम आदमी पार्टी ने भी जल्द से जल्द चुनाव कराने की मांग की है। वैसे भी दिल्ली विधानसभा के चुनाव फरवरी 2025 तक होने तय हैं। फिर सवाल यह उठता है कि आखिर जेल से भी सरकार चलाने वाले केजरीवाल ने अचानक इस्तीफ़ा देने का फैसला क्यों लिया?
कांग्रेस ने उनके इस्तीफे का स्वागत किया है लेकिन कहा है कि उन्हें इस्तीफा जेल जाने के समय ही दे देना चाहिए था। भाजपा ने कहा है कि उनके पास इस्तीफा देने के अलावा कोई चारा ही नहीं बचा था। केजरीवाल ने कहा है कि वे सीएम की कुर्सी पर तब तक नहीं बैठेंगे, जब तक कि “लोग अपना फैसला नहीं सुना देते।”
इस्तीफ़े के पीछे के कुछ कारण
केजरीवाल के इस्तीफ़े की घोषणा की रोशनी में उन कारणों/कारकों की खोज करना आवश्यक है जिनकी वजह से उन्हें यह फैसला लेने पर मजबूर होना पड़ा है। इसके लिए थोड़ा आम आदमी पार्टी के इतिहास पर नज़र डालने की जरूरत है। जैसा कि सबको मालूम है कि आम आदमी पार्टी भ्रष्टाचार विरोधी अभियान से निकालकर आई थी जिसे इंडिया अगेन्स्ट करप्शन के बैनर तले लड़ा गया था। इस आंदोलन को अन्ना हज़ारे और केजरीवाल की लीडरशिप में चलाया गया था और अंतत केजरीवाल की टीम इस नतीजे पर पहुंची थी कि बिना राजनीति में आए व्यवस्था में सुधार नहीं किया जा सकता है और नतीजतन आम आदमी पार्टी का उदय हुआ।
अन्ना हज़ारे ने केजरीवाल के इस फैसले से अपने को दूर कर लिया था। आम आदमी पार्टी के गठन के बाद केजरीवाल ने घोषणा की थी कि देश के सभी राजनीतिक दल भ्रष्टाचार में लिप्त है और नई गठित आम आदमी पार्टी सभी भ्रष्ट राजनीतिक दलों का विकल्प है और वे देश से भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकेंगे। नतीजतन आम आदमी पार्टी ने सत्तारूढ़ कांग्रेस और विपक्षी भाजपा को हराकर दिल्ली में सत्ता हासिल की। इसी तरह पंजाब में कांग्रेस में टूटन और भाजपा-अकाली गठबंधन में दरार पड़ने से उन्हे फायदा हुआ और आम आदमी पंजाब की सत्ता में आ गई।
पंजाब, दिल्ली और गुजरात में मिले मतों की वजह से आम आदमी पार्टी थोड़े समय में ही देश की एक और राष्ट्रीय पार्टी बन गई। लेकिन एक बात जो आम आदमी पार्टी को समझ में आई है वह यह कि आज वह उन सभी पार्टियों के साथ गठबंधन बनाने पर मजबूर है जिन्हे वह कभी भ्रष्टाचार का सरगना कहा करती थी खासकर कांग्रेस पार्टी। यानी मार पड़ने पर केजरीवाल और आम आदमी पार्टी ने राजनीति के कुछ सबक सीखे। क्योंकि राजनीति में यह तय करना जरूरी होता है उसका सबसे बड़ा दुश्मन कौन है। इसी का नतीजा है कि आम आदमी पार्टी आज देश के राजनीतिक व्यापक मंच इंडिया गठबंधन का हिस्सा है।
हालांकि दिल्ली और हरियाणा के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के साथ किसी भी तरह का गठबंधन नामुमकिन है क्योंकि हरियाणा में कांग्रेस सत्ता की दावेदार है और दिल्ली में आप पार्टी सत्ता की दावेदार है इसलिए दोनों ही अपने राज्यों में एक दूसरे से गठबंधन नहीं करना चाहेंगे। यही वजह है कि हरियाणा में आप-कांग्रेस गठबंधन नहीं बन पाया है।
आप की सफलता के कारण
सत्ता में आने के बाद आम आदमी पार्टी ने जरूर कुछ ऐसे काम किए हैं जिनकी वजह से दिल्ली की जनता को बहुत राहत मिली है और जिसकी वजह से आम आदमी पार्टी का समर्थन बढ़ता गया। जिसमें सस्ती बिजली, पानी, स्कूली शिक्षा में सुधार, अस्पतालों में मुफ्त दवाइयां, बसों में महिलाओं के लिए मुफ्त यात्रा जैसे निर्णय शामिल थे। लेकिन इस सब के बावजूद आम आदमी पार्टी 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में एक भी सीट हासिल नहीं कर पाई। 2024 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के साथ तालमेल के बावजूद भी पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली। पंजाब में वह 13 में मात्र तीन सीटें ही जीत पाई। दिल्ली नगर निगम चुनावों में पार्टी को 250 में से 134 सीटें मिली लेकिन भाजपा और आम आदमी पार्टी में मत प्रतिशत का फर्क मात्र 3 प्रतिशत का ही रहा। हालांकि लोकसभा चुनाव में मत प्रतिशत में बढ़ोतरी हुई लेकिन एक भी सीट न मिलना आप पार्टी के लिए कोई सुखद बात नहीं थी।
आबकारी नीति
दिल्ली आबकारी नीति में 2021-2022 में लाए गए बदलाव की वजह से केजरीवाल और आम आदमी पार्टी को सबसे बड़ा आघात झेलना पड़ा है। केजरीवाल समेत आधे दर्जन से अधिक पार्टी नेताओं का भ्रष्टाचार के मामले में जेल जाना पार्टी की छवी के लिए अच्छी बात साबित नहीं हुई। हालांकि इस बात से किसी को भी गुरेज़ नहीं है कि यदि आबकारी नीति के तहत कोई भी घोटाला हुआ है तो उसकी निष्पक्ष जांच होनी चाहिए और अपराधियों को सलाखों के पीछे भेजना चाहिए। लेकिन जिस राजनीतिक पूर्वाग्रह के साथ सुरक्षा एजेंसियों का इस्तेमाल विपक्ष के नेताओं को दबाने के लिए किया जा रहा है वह जांच को संदेह के घेरे में ला देता है। जिस तरह से दिल्ली के मुख्यमंत्री और वरिष्ठ मंत्रियों को जेल में डाला गया वह शराब घोटाले की जांच कम और राजनीतिक पूर्वाग्रह ज्यादा नज़र आता है।
उपराज्यपाल और मोदी सरकार के साथ टकराव
आम आदमी पार्टी के सत्ता में आने के बाद से ही, मोदी सरकार और उपराज्यपाल के बीच तनाव शुरू हो गया था। इन तनावपूर्ण संबंधों के कारण उनके बीच अक्सर कई मुद्दों पर टकराव होता रहा है। आबकारी नीति, फिनलैंड में शिक्षकों का प्रशिक्षण, मुफ्त योग कक्षाएं, मोहल्ला क्लीनिक, नौकरशाहों का स्थानांतरण, धन की मंजूरी, भ्रष्टाचार निरोधक शाखा पर नियंत्रण और उपभोक्ताओं को बिजली सब्सिडी का विस्तार आदि कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन पर उपराज्यपाल के साथ व केंद्र सरकार के साथ टकराव रहा है। नतीजतन पिछले साल अक्टूबर में दिल्ली सरकार ने "दिल्ली की योगशाला" योजना को बंद कर दिया था, यह दावा करते हुए कि एलजी ने इसे हरी झंडी नहीं दी थी। इसने यह भी आरोप लगाया कि वित्त विभाग ने एलजी के कहने पर बिजली बिल, किराया, लैब टेस्ट और मोहल्ला क्लीनिकों के डॉक्टरों के वेतन के भुगतान के लिए धन मंजूर नहीं किया। इन टकरावों की फेहरिस्त काफी लंबी है। 2013 से शुरू हुआ यह टकराव आज तक थमने का नाम नहीं ले रहा है।
एक सवाल यह भी उठता है कि लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार के साथ इस तरह बर्ताव क्या संविधान का उल्लंघन नहीं है। इसका खामियाज़ा किसी और को नहीं बल्कि दिल्ली की आम जनता को भुगतना पड़ा है। इस टकराव से यह भी साबित हुआ कि मोदी सरकार किसी भी विपक्षी पार्टी की सरकार को चलने देना नहीं चाहती है। इस तरह का टकराव विपक्ष की सरकारों जैसे कि केरल, तमिलनाडु और अन्य राज्यों में देखने को मिला है। इस टकराव के चलते दिल्ली सरकार की कई योजनाएं अधर में लटकी हुई हैं।
आम आदमी पार्टी का वर्तमान संकट
इस सब के चलते आम आदमी पार्टी को कहीं न कहीं यह बात सताने लगी कि आने वाले दिनों में उसका राजनीतिक असर आम जनता पर कम होने की संभावना है। इसकी सबसे बड़ी पुष्टि हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों में देखने को मिली जब आप-कांग्रेस गठबंधन एक भी सीट नहीं जीत पाया। यह बावजूद इस तथ्य के है कि केजरीवाल को चुनावों में अभियान के लिए कोर्ट ने जमानत दे दी थी। सबसे बड़ी बात जो आम आदमी पार्टी को सता रही है वह यह कि इसके सर्वोच्च नेता भ्रष्टाचार के मामले में जेल जा चुके हैं या अभी भी जेलों में बंद हैं। इसलिए लगातार लोकसभा चुनावों में हार और पार्टी के खिलाफ मोदी सरकार के अभियान को देखते हुए कहीं न कहीं यह बात काम कर रही है कि जनता के बीच जाए बिना फिर से आम आदमी पार्टी के पक्ष में जनमत तैयार किए बिना इससे लड़ना कठिन होगा।
राजनीतिक सीख
कहीं न कहीं आम आदमी पार्टी को यह राजनीतिक सीख लेने की भी जरूरत है कि भ्रष्टाचार व्यवस्थागत मुद्दा है जो उन आर्थिक नीतियों की देन है जिन्हें मोदी सरकार और अधिकतर राज्य सरकारें अपना रही हैं। केजरीवाल सरकार खुद निजीकरण के पक्ष में रही है और सरकारी महकमों में इसे रिवर्स नहीं कर पाई है। जिसकी वजह से दिल्ली के युवाओं के सामने सरकारी नौकरियों के अवसर बहुत कम हैं। मजदूरों की स्थिति खराब है। कारखानों में काम करने वाले मजदूरों को घोषित न्यूनतम वेतन भी नहीं मिलता है। दिल्ली का बेरोजगार युवा 8 से 10 हज़ार रुपए के वेतन पर काम करने पर मजबूर है। इसके प्रति केजरीवाल सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया है। दिल्ली शहर में काम करने वाले मजदूरों की बड़ी संख्या दलित आबादी से आती है। इसलिए उनके लिए खास प्रावधान करने की जरूरत है जिससे पूरे के पूरे मजदूर वर्ग को फायदा होगा और आम आदमी पार्टी का आधार मजबूत होगा।
आम आदमी पार्टी को यह भी समझना होगा कि दिल्ली जैसी है हमेशा वैसी नहीं रहेगी। बदलाव कुदरत का नियम है। इसलिए आप पार्टी को दिल्ली के छोटे दलों, ट्रेड यूनियनों, युवा संगठनों और सामाजिक संगठनों से राब्ता क़ायम करने की जरूरत है ताकि जनमत को सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ आपसी भाईचारे की तरफ मोड़ा जा सके।
इसलिए यह वक़्त की जरूरत है कि, आम आदमी पार्टी समावेशी नीतियों के एक विकल्प को पेश करे। जिसमें न केवल नव-उदारवादी नीतियों के खिलाफ मुहीम चलाने की बात हो बल्कि उन वैकल्पिक नीतियों का जिक्र हो जो कॉर्पोरेट लूट को खत्म कर सार्वजनिक इदारों को मजबूत करने की बात करती हो। जो देश के भीतर भीषण बेरोज़गारी के समाधान की बात करती हो। जो गरीब लोगों और आम आदमी को आर्थिक और सामाजिक पायदान पर आगे बढ़ाने की बात करती हो।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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