महारानी एजिलाबेथ-II : ...पर माफ़ी कभी नहीं मांगी गयी
महारानी एलिजाबेथ-द्वितीय और ब्रिटिश तख्त पर उनके 70 साल के राज को हमें किस तरह याद करना चाहिए?
उनके राज का जिस तरह महिमा मंडन हो रहा है, उस पर बहुत से लोगों ने प्रतिकूल प्रतिक्रिया की है। इस सिलसिले में उन्होंने गुलामों के व्यापार के साथ ब्रिटिश राजशाही के प्रत्यक्ष रिश्तों की याद दिलायी है, उपनिवेशों में ब्रिटिश शासकों द्वारा किए गए नरसंहारों की याद दिलायी है और उपनिवेशों से उनकी लूट की याद दिलायी है।
औपनिवेशिक ज़ुल्म, लूट और पूंजीवादी विकास
वास्तव में ब्रिटेन की दौलत, उन औपनिवेशिक जनगणों के खून-पसीने से जुटायी गयी है, जिनकी जमीनें तथा घर साम्राजी सत्ता ने हड़प लिए थे और जो आज गरीब देश बनकर रह गए हैं। और यह कोई नहीं भूले कि गुलामों के व्यापार में ब्रिटिश ताज की इजारेदारी थी। पहले तो यह 1660 से अफ्रीका में व्यापार कर रही कंपनी आफ रायल एडवेंचरर्स के नाम पर होता था, जिसे आगे चलकर रॉयल अफ्रीकन कंपनी ऑफ इंग्लेंड में तब्दील कर दिया गया था। ब्रिटिश व्यापारी पूंजी ने ‘‘मुक्त व्यापार’’ के लिए जो लड़ाई लड़ी थी, वास्तव में इस बहुत ही फायदेमंद शाही इजारेदारी के खिलाफ लड़ाई थी ताकि वह भी इस व्यापार में शामिल हो सके और अफ्रीकी जनता को गुलाम बनाने और अमेरिकी व कैरीबियाई इलाकों के बागान में मजदूरी के लिए उन्हें बेचने की कमाई में हिस्सा ले सके।
गुलामों के व्यापार के उभार के पश्चिमी विवरणों के अनुसार, इस सब की शुरूआत 16वीं सदी में, आविष्कार के युग से हुई थी, जहां से प्रबोधन के युग की भी शुरुआत होती है। वास्को डि गामा, कोलम्बस तथा मेगेल्लन जैसे अन्वेषकों ने दुनिया भर में घूमकर, नये भूभागों की खोज की। प्रबोधन के फलस्वरूप तर्क व विज्ञान का विकास हुआ, जिसने इंग्लेंड में औद्योगिक क्रांति के लिए आधार मुहैया कराया। औद्योगिक क्रांति इसके बाद यूरोप में तथा अमरीका में पहुंची और इसने संपन्न पश्चिम और गरीबी के मारे ‘बाकी सब’ के बीच खाई पैदा की। बहरहाल, पूंजीवाद के विकास की रंगी-चुनी तस्वीर में गुलामी, नरसंहार, ‘देसियों’ से जमीनों का हड़पा जाना और औपनिवेशिक लूट, कहीं आते ही नहीं हैं। या उनका जिक्र होता भी है तो पश्चिम के उभार की मुख्य कथा के किसी उप-आख्यान के रूप में ही होता है।
आदिम संचय और ग़ुलामों का व्यापार
लेकिन, वास्तविक इतिहास इन प्रस्तुतियों से बहुत भिन्न है। औद्योगिक क्रांति, 18वीं सदी के उत्तराद्ध में हुई थी। 16वीं तथा 17वीं सदियों में चंद, मुट्ठीभर पश्चिमी देश अमरीकी क्षेत्र में पहुंचे, जहां की देसी आबादियों का नरसंहार किया गया और जो बच गए उन्हें गुलाम बना लिया गया। 16वीं-17वीं सदियों में ही अफ्रीका से कैरीबियाई क्षेत्र तथा अमेरिकी क्षेत्र के लिए गुलामों का व्यापार भी बढ़ा। इसने अफ्रीकी समाज और अर्थव्यवस्था को ध्वस्त कर दिया। इसी के लिए वाल्टर रॉडनी कहते हैं कि ऐसे यूरोप ने अफ्रीका को अविकसित किया। दास प्रथा के बल पर कैरीबियाई क्षेत्र में और महाद्वीपीय अमरीका में जो बागान या प्लांटेशन अर्थव्यवस्था खड़ी हुई, उसने ही बड़े पैमाने पर माल उत्पादन और वैश्विक बाजारों को खड़ा किया।
जहां इन बागान से निकलकर शक्कर पहला वैश्विक माल बनी, इसके बाद तम्बाकू, कहवा तथा कोको और आगे चलकर कपास ने यह दर्जा हासिल किया। हालांकि, यह बागान अर्थव्यवस्था विश्व बाजार के लिए माल उपलब्ध कराती थी, वहीं यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उस जमाने में सबसे महत्वपूर्ण ‘माल’ तो खुद गुलाम ही थे। गुलामों का व्यापार यूरोपीय--ब्रिटिश, फ्रांसीसी, डच, स्पेनी तथा पुर्तगाली--पूंजी का मुख्य स्रोत था। गेराल्ड हॉर्न लिखते हैं: ‘गुलाम, जो श्रम में बंद किया हुआ पूंजी का एक विचित्र रूप था, एक साथ उदीयमान पूंजीवाद की बर्बरता और उसके साथ ही उसकी उत्पादक शक्ति का प्रतिनिधित्व करता था।’ (‘द एपोक्लिप्स ऑफ सैटलर कोलोनिअलिज्म’, मंथली रिव्यू, 1 अप्रैल 2018)
मार्क्स ने इसका चरित्रांकन तथाकथित आदिम संचय तथा हड़पे जाने या एक्सप्रोप्रिएशन के रूप में किया था, न कि संचय के रूप में। पूंजी शुरू से इसी हड़पे जाने पर यानी ताकत का सहारा लेकर डाकेजनी, लूट तथा लोगों को गुलाम बनाने पर आधारित थी। इस प्रक्रिया में कोई पूंजी संचय नहीं था। जैसा कि मार्क्स ने लिखा था, पूंजी का जन्म हुआ था, ‘सिर से पांव तक, रोम-रोम से रक्त और गर्द टपकाते हुए।’
ब्रिटिश ताज और ग़ुलामों का व्यापार
ब्रिटिश शाही खानदान ने गुलामी व तथाकथित आदिम संचय के इस इतिहास में, एक कुंजीभूत भूमिका अदा की थी। 17वीं सदी के आरंभ में ब्रिटेन एक दोयम दर्जे की ताकत था। ब्रिटेन का रूपांतरण शुरूआत में गुलामों के व्यापार पर आधारित था और आगे चलकर कैरीबियाई क्षेत्र के शक्कर के बागानों पर। उसके पोत तथा व्यापारी, गुलामों के व्यापार में एक प्रमुख ताकत बनकर उभरे और 1680 के दशक तक इंसानों की तिजारत के इस ‘बाजार’ का तीन-चौथाई हिस्सा, उनके ही हाथों में था। इसमें से 90 फीसद हिस्सा रायल अफ्रीकन कंपनी के हाथों में था, जो ब्रिटिश ताज की मिल्कियत थी। गुलामों के व्यापार में ब्रिटेन के दबदबे की अगुआई सीधे ब्रिटिश राज परिवार करता था।
यह दिलचस्प बात है कि ‘मुक्त व्यापार’ का नारा, जिसके झंडे तले आगे चलकर विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) को खड़ा किया गया, वास्तव में उस ब्रिटिश तिजारती पूंजी का नारा था, जो गुलामों के व्यापार पर शाही इजारेदारी को खत्म कराना चाहती थी। दूसरे शब्दों में यह नारा, पूंजी की इसकी स्वतंत्रता का नारा था कि शाही इजारेदारी से मुक्त होकर वह, इंसानों को गुलाम बना सके और उन्हें खरीद-बेच सके। इसी पूंजी ने, जिसे गुलामों के व्यापार से तथा सीधे-सीधे डाकेजनी व लूट से जुटाया गया था, औद्योगिक क्रांति के लिए संसाधन मुहैया कराए थे।
अंतत: ब्रिटेन में जब दासप्रथा का खात्मा किया भी गया तो, गुलामों को नहीं बल्कि गुलामों के मालिकों को ही अपनी ‘संपत्ति’ के छिनने के एवज में मुआवजा दिया गया। 1833 में इसके लिए दी गयी रकम, ब्रिटेन के राष्ट्रीय बजट के 40 फीसद से बराबर थी और चूंकि यह रकम ऋण लेकर बांटी गयी थी, यह ऋण यूके के नागरिकों के सिर से 2015 में ही कहीं जाकर उतर पाया था! भारत के हिस्से में इस कहानी का एक और ही पहलू है। चूंकि आजादी मिलने के बाद पूर्व-गुलामों ने उन बागान में मजदूरी करने से इंकार कर दिया, जहां वे गुलाम मजदूरी करते रहे थे, उनकी जगह लेने के लिए ही भारत से गिरमिटिया मजदूर या इंडेंचर्ड लेबर को ले जाया गया था।
ब्रिटिश ताज और उपनिवेश
खैर! ब्रिटिश शाही खानदान पर लौटें। ब्रिटिश ताज की संपत्तियां तथा पोर्टफोलियो निवेश इस समय 28 अरब पाउंड के हैं, जिससे किंग चार्ल्स-तृतीय यूके के सबसे धनी व्यक्तियों में से एक हो गया है। चार्ल्स-तृतीय की निजी संपत्ति ही एक अरब पाउंड से ज्यादा की बैठेगी। निजी संपदा के अश्लील स्तर तक बढ़ जाने के वर्तमान दौर के हिसाब से भी, यह संपदा खासी ज्यादा है। और यह संपदा इसलिए और भी ज्यादा हो जाती है कि यह आय करीब-करीब कर-मुक्त ही है। शाही परिवार को मृत्यु संबंधी शुल्क भी नहीं भरने पड़ते हैं।
फिर भी, चूंकि हम यूके के नागरिक तो हैं नहीं, इस सबसे हमें कोई खास लेना-देना नहीं है। अलबत्ता हमें इससे लेना-देना जरूर है कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद के तीन सौ साल के इतिहास में इसी ताज के नाम पर तथा उसी के नेतृत्व में नृशंस युद्ध, नरसंहार, दासता और संपदा हड़पने के अभियान चलाए गए थे। औद्योगिक क्रांति के बाद, ब्रिटेन को अपने उपनिवेशों से सिर्फ उनका कच्चा माल चाहिए था, उनका कोई औद्योगिक उत्पाद नहीं। उसका नारा था, ‘उपनिवेशों से, एक कील तक नहीं।’ उपनिवेशों से, दूसरे उपनिवेशों तक तमाम व्यापार भी, बारास्ता ब्रिटेन ही हो सकता था और वहां से आगे दोबारा निर्यात करने से पहले, इन मालों पर कर देना पड़ता था। ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति के सिक्के का दूसरा पहलू था, उसके उपनिवेशों का निरुद्योगीकरण--उन्हें कच्चे मालों तथा कृषि उत्पादों के उत्पादक की हैसियत तक ही सीमित कर के रखा जाना।
पूछा जा सकता है कि रानी एलिजाबेथ-द्वितीय की मौत के मौके पर हम, ब्रिटेन के इस औपनिवेशिक अतीत की याद लेकर क्यों बैठ गए। वैसे भी वह तो सिर्फ पिछले 70 साल से रानी के पद पर थीं और यह तो वही दौर है जब ब्रिटिश औपनिवेशिक साम्राज्य खत्म होता गया। लेकिन, हम जिसे लेकर बैठ गए हैं, वह सिर्फ अतीत की याद भी तो नहीं है। क्या यह भी सच नहीं है कि अपने साम्राज्य की नृशंसता पर और उसके दास प्रथा तथा नरसंहारों पर टिके रहने पर, न तो ब्रिटिश शाही तख्त ने कभी कोई पछतावा जताया है और न ही उस पर बैठे शासकों ने।
...पर अब तक माफ़ी नहीं मांगी गयी
साम्राज्य के नृशंस इतिहास के लिए कोई माफी नहीं मांगी गयी है। यहां तक कि नरसंहारों तथा थोक में लोगों को जेलों में बंद रखने के लिए भी नहीं। 1997 में रानी एलिजाबेथ-द्वितीय जलियांवाला बाग भी गयी थीं। उन्होंने जलियांवाला बाग नरसंहार को एक परेशान करने वाला (distressing) और एक मुश्किल प्रकरण तो कहा था, लेकिन एक सामान्य सा ‘हमें खेद है’ तक भी नहीं। राजकुमार फिलिप ने तो इस नरसंहार में शहीद हुए लोगों की संख्या पर भी सवाल उठाए थे।
ब्रिटेन के औपनिवेशिक साम्राज्य के जुल्मों और ज्यादतियों के पीड़ित उन जनगणों के विक्षोभ को हम कैसे देखें, जो अपने शीर्ष नेताओं को ब्रिटिश महारानी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए दौड़-दौड़कर जाते हुए देख रहे हैं। क्या यह भगतसिंह और ब्रिटिश ताज से आजादी की लड़ाई में अपने प्राणों की कुर्बानी देने वाले उन अनगिनत शहीदों की स्मृति का अपमान ही नहीं है कि रानी के सम्मान में, तिरंगा झुकाया जा रहा है।
बेशक, यह दलील दी जा सकती है कि वह सब तो उनके ताज संभालने से बहुत पहले हुआ था और उन्हें निजी तौर पर तो ब्रिटेन के औपनिवेशिक इतिहास के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है! लेकिन, जिम्मेदार तो ठहराया जाना चाहिए क्योंकि वह ब्रिटिश राज्य का प्रतिनिधित्व करती थीं।
सवाल एलिजाबेथ नाम की किसी महिला द्वारा माफी मांगे जाने का नहीं है। सवाल ब्रिटिश राज्य के प्रतीकात्मक प्रमुख द्वारा माफी मांगे जाने का है। इसीलिए, केन्या के विश्व विख्यात लेखक, न्गुगी वा थिओगो के पुत्र, मुकोमा वा न्गुगी ने लिखा: ‘अगर रानी ने गुलामी, उपनिवेशवाद तथा नवउपनिवेशवाद के लिए माफी मांगी होती और ताज से आग्रह किया होता कि उनके नाम पर, दसियों लाख लोगों की जो जानें ली गयी थीं, उनके लिए क्षतिपूर्ति करे, तो शायद मैं मानवीय आचरण करता और उनके निधन पर दु:ख महसूस करता।’ और यह भी कि, ‘एक केन्याई के नाते, मुझे कुछ भी महसूस नहीं हो रहा है। यह स्वांग बिल्कुल बेतुका है।’
मुकोमा न्गुगी, भूमि तथा आजादी के लिए माऊ माऊ विद्रोह की ओर इशारा कर रहे थे, जिसमें भारी संख्या में केन्याइयों का नरसंहार किया गया था और 15 लाख को नृशंस यातना शिविरों में बंद कर के रखा गया था। यह प्रकरण 1952-1960 के बीच का है, जबकि रानी एलिजाबेथ-द्वितीय ने 1952 में ताज संभाला था। यानी यह तो बाकायदा उनके राज्यकाल में हुआ था!
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें-
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