कटाक्ष: किसी की दिवाली, किसी का दिवाला!
दिवाली की अगली दोपहर थी। रात का खुमार अभी पूरी तरह से टूटा नहीं था। लक्ष्मी जी ने उबासियों के बीच उलूक को आवाज लगायी। पहली एक-दो आवाजों का तो कोई प्रत्युत्तर ही नहीं मिला। खीझकर कुछ तीखे सुर में उन्होंने आवाज लगायी, तो दूर से सुस्त से सुर में जवाब आया—जी आया। जब तक दरवाजे से—जी आज्ञा, का प्रश्र सुनाई दिया, लक्ष्मी जी कई उबासियां ले चुकी थीं। लक्ष्मी जी ने कुछ लढ़ियाते हुए पूछा—लगता है नींद पूरी नहीं हुई। रात भर की कृपा वृष्टि की ड्यूटी के बाद, थकान तो हो ही जाती है। फिर तेरी उम्र भी तो बढ़ रही है। वर्ना मुझे तो लगता है कि इस साल काम पिछले साल से तो कम ही रहा था। इस साल दिवाली पिछले साल के मुकाबले हल्की जो रही। क्या तुझे नहीं लगा, इस बार दिवाली में वैसी रौनक नजर नहीं आयी।
उलूक को अपनी राय देने की कोई जल्दी नहीं थी। उसने पहले देवी का रुख भांपने की कोशिश की। फिर धीमे सुर में अपनी असहमति जताते हुए कहने लगा—वैसे देखा जाए तो रौनक वाली आप की बात भी गलत नहीं है। पर इस बार रौनक किसलिए कम नजर आयी? दिल्ली में बम-पटाखों पर पाबंदी लगा दी गयी, इसलिए। दिल्ली की हिंदू-विरोधी सरकार ने, दिवाली की रौनक कम करने के लिए पटाखों वगैरह पर पाबंदी जो लगा दी। बहाना यह कि दिल्ली में और आस-पास के इलाकों में भी वायु प्रदूषण पहले ही बहुत ज्यादा हो चुका था। दिवाली पर पटाखे भी चलाने दिए जाएं, तब तो फिर भगवान ही मालिक है। बस लगा दी पाबंदी। अदालत ने उस पर अपनी मोहर भी लगा दी। वह तो जागे हुए हिंदुओं ने साफ-साफ कह दिया कि हम फेफड़ों के डर से अपने त्योहार की रौनक कम नहीं होने देंगे। पट्ठों ने नागरिक अवज्ञा सत्याग्रह जैसा ही कर दिया और पटाखे चला-चलाकर पाबंदी के ही चिथड़े उड़ा दिए, वर्ना इन हिंदू-विरोधियों ने तो दिवाली हल्की क्या खोटी ही कर दी थी। फिर भी भारतवर्ष में क्या एक दिल्ली ही है? इत्ती बड़ी यूपी भी तो है, जहां राम राज तो चल ही रहा है, राम जी की नगरी, अयोध्या भी है। दिल्ली की रौनक की हम नहीं कह सकते, पर अयोध्या में रौनक पिछली बार से ड्योढ़ी ही थी, कम किसी भी तरह से नहीं।
लक्ष्मी जी ने आधे मन से कुछ कहने की कोशिश की, पर उलूक की जुबान गति पकड़ चुकी थी। अयोध्या कैसे सरकारी दीपों से जगमग हो रही थी, इसका वर्णन चल रहा था। फिर दो-दो गिनीज बुक स्तर के विश्व रिकार्डों की बात आयी तो उलूक ने जोश में अपनी जगह पर ही उछलना शुरू कर दिया। सबसे पहले तो 25 लाख से ज्यादा दीप एक साथ जलाने का विश्व विश्व रिकार्ड कायम कर सनातन संस्कृति का जयघोष हुआ है। इसके साथ ही साथ, एक साथ 1,121 लोगों के पवित्र आरती करने का, एक अलग रिकार्ड कायम हुआ है। यानी दो-दो विश्व रिकार्ड इस बार की दिवाली के नाम रहे हैं। और आप को दिवाली फीकी लग रही है, उसमें रौनक कम दिखाई दे रही है! हिंदू देवी होकर भी हिंदुओं के कारनामे पर पीठ ठोकने में कोताही! उलूक के अतिरिक्त जोश से लक्ष्मी जी कुछ खीझ सी गयीं। सनातन संस्कृति के जयघोष वाली बात तो उन्हें जरा भी नहीं जंंची। चिढ़कर बोलीं--हां! लगता है कि इस साल भी एक रिकार्ड बुझे हुए दीयों से घर में उपयोग के लिए कडुआ तेल इकट्ठा करने वाले गरीब बच्चों की गिनती का भी बन गया होगा। उसका सार्टिफिकेट लिया कि नहीं? तनिक आकाश मार्ग से जाकर देखो तो हमारी यह परंपरा भी सुरक्षित तो है!
उलूक के सुर में जोश की जगह अब रुंआसेपन ने ले ली। बताने लगा कि बुझे या लगभग बुझे दीयों से तेल जमा करने की यह परंपरा जरूर इस बार कुछ कमजोर पड़ी है। 25 लाख दियों का विश्व रिकार्ड बनने के बाद, सरकार ने जलते दियों को ही झाडू से बुहरवा कर फिंकवा दिया। न बुझे हुए दिए रहेंगे और न गरीबों के बुझे दियों से तेल इकट्ठा करने की तस्वीरें सोशल मीडिया पर वाइरल होंगी। लक्ष्मी जी कुछ विकृत-तोष से बोलीं, फिर भी तस्वीरें तो सोशल मीडिया पर वाइरल हो रही हैं। अब उलूक ने भी चिढ़कर कहा—वाइरल तो रोक के बावजूद दिल्ली में चले पटाखों की तस्वीरें भी हो ही रहे हैं।
लक्ष्मी जी ने उलूक के सिर पर हाथ फेरकर समझाया—तू काहे को दु:खी होता है। दिवाली जैसी भी हो, हमारे हिस्से में तो एक दिवाली ही है। दिवाली पर ही हमारी पूछ है, मेरी भी और तेरी भी। और दिवाली चाहे पिछले साल से हल्की हो या और भी धमाकेदार हो, हमारी दिवाली हर हाल में अपनी जगह रहेगी। मैं तो सिर्फ इतना कह रही थी कि इस बार दिवाली थोड़ी हल्की सी लगी। सिर्फ पटाखों की ही बात नहीं थी। पटाखों के पीछे तो सरकारों से लेकर अदालतें और समाजसेवी संस्थाओं तक सब पड़ी ही हुई हैं। पर बाजारों में भी तो इस बार दिवाली की पहले जैसी रौनक नहीं दिखाई दी।
उलूक के मुंह से बरबस निकल गया—रौनक कैसे दिखाई देती, महंगाई का हाल आप को नहीं पता है क्या? तेल पकाने का हो या जलाने का, सब में आग लगी हुई है। वही हाल दालों का है और सब्जी-भाजी का भी। टमाटर के दाम तो फलों से ऊपर हो रखे हैं। दवा-दारू की तो पूछे ही मत। उसके ऊपर से दिवाली के बीस खटराग और। और जिनका कमाई का कोई हीला ही नहीं है, उन करोड़ों बेरोजगारों की भी तो सोचिए? गरीबों के लिए तो ये दिवाली नहीं दिवाला था।
अब लक्ष्मी जी के पलटने की बारी थी। कहने लगीं, सब का टैम ऐसा खराब ही थोड़े ही है। ऐसे लोग भी तो हैं जिनकी किस्मत अच्छी है। पैसे से पैसा बना रहे हैं और बेहिसाब बना रहे हैं। सच पूछ तो वे ही हमारे सच्चे पुजारी हैं और उनकी दिवाली, साल में एक दिन वाली नहीं, पूरे साल वाली है। देखा नहीं कैसे दिवाली के बाद दूसरी दिवाली आ गयी, पर मुकेश भाई के छोटे बेटे की शादी के जश्र खत्म होने में ही नहीं आ रहे हैं। और इतने मालदार न सही, फिर भी अरबपति भी हजारों-लाखों में हैं। इनकी हर दिन दिवाली है। जब तक अमीर रहेंगे, हमारी पूजा होती रहेगी।
(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोक लहर के संपादक हैं।)
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