तिरछी नज़र: जैसे सीजेआई सर को भगवान की सलाह मिली हम सबको भी मिले
प्रतीकात्मक प्रयोग के लिए। कार्टून सतीश आचार्य के X हैंडल से साभार
आदरणीय, माननीय, उच्चतम न्यायालय के सर्वोच्च न्यायाधीश (सीजेआई) महोदय ने अपने गृह गांव में एक जनसभा सम्बोधित करते हुए बताया कि जब वे राम जन्मभूमि के मुकदमे के बारे में फैसला लेने की कगार पर थे तो बहुत दुविधा में थे। लगभग तीन महीने तक फैसला नहीं ले पाए और जब भगवान जी की शरण में गए तो फैसला पा गए।
उन्होंने यह भी बताया कि ऐसा उन्होंने पहली बार नहीं किया। पहले भी करते रहे हैं और हम समझ सकते हैं शायद आगे भी करेंगे। वैसे वे अभी नौ नवंबर को ही रिटायर होने वाले हैं इसलिए हो सकता है कि न्याय देने के मामलों में वे आगे ऐसा न कर पाएं पर अन्य मामलों में तो ऐसा कर ही सकते हैं।
सीजेआई जी के व्यवहार से हमें एक सीख मिलती है। सीख यह मिलती है कि जब दुविधा में हो, कोई फैसला न कर पा रहे हो तो भगवान जी की शरण में जाओ। भगवान जी जरूर ही दुविधा दूर करेंगे। जरूर ही रास्ता दिखाएंगे। सीजेआई सर कुछ ऐसे बोल रहे थे जैसे देश के चीफ जस्टिस न बोल रहे हों, किसी मठ के मठाधीश बोल रहे हों। कोई धार्मिक प्रवचनकर्ता बोल रहे हों। कोई कथा वाचक बोल रहे हों।
सर ने बताया कि यह काम उन्होंने एक महत्वपूर्ण मुकदमे का फैसला लेने में किया। चीफ जस्टिस सर उस समय चीफ जस्टिस नहीं थे। उस मुकदमे की बेंच के पांच सदस्यों में से एक थे, तब उन्होंने ऐसा किया। सीजेआई जी ने बताया कि मुकदमे में मुश्किल आने पर उन्होंने कानून की किताबें नहीं पढ़ीं, न ही संविधान को रेफर किया। बल्कि मुकदमा ईश्वर को रेफर कर दिया। ऐसा ही उन्होंने राम जन्मभूमि मुकदमे में किया। है ना कितनी अनुसरणीय बात।
इस अच्छी बात से मैंने भी सीख ली है। मैं चिकित्सक हूँ। कभी कभी कोई मुश्किल केस भी आ जाता है। जैसे कि ऐसा बुखार जो टूट ना रहा हो और किसी जाँच में भी कुछ न आ रहा हो। बड़ी दुविधा होती है। अभी तक तो मैं डेविडसन की या हेरीसन की मेडिसिन की किताब रेफर करता था, चिकित्सा शास्त्र के कुछ जर्नल देखता था। पर अब मुझे एक नया रास्ता मिला है। अपने आप नहीं मिला है, सीजेआई साहब ने दिखाया है। बताया है कि दुविधा होने पर मैं चिकित्सा विज्ञान की किताब न पढ़ूं, जर्नल न देखूँ, बस भगवान के सामने केस रख दूँ। इलाज मिल जायेगा, मरीज ठीक हो जायेगा। ऐसा ही एक सर्जन करे। ऑपरेशन थिएटर में मरीज का ऑपरेशन करते हुए कठिनाई आने पर, मरीज को बीच ऑपरेशन में छोड़, भगवान के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो जाये।
देश में ऐसा हो भी रहा है। सीजेआई साहब तो ऐसा अब कर रहे हैं, देश के इंजीनियर तो ऐसा सालों से कर रहे हैं। वे किसी भी सड़क, भवन या पुल को बनाने से पहले उसके नक्शों का, ड्राइंग का अध्ययन नहीं करते हैं। यह नहीं देखते हैं कि यह सड़क यातायात का बोझ सह भी पायेगी या नहीं या फिर भवन बारिश में टपकेगा तो नहीं। बस भगवान जी के सामने सिर नवां देते हैं, दक्षिणा दे आते हैं और पुल, भवन या सड़क का निर्माण कर देते हैं। बस फिर पुल या सड़क का भगवान ही मालिक होता है।
वैसे वह मुकदमा पांच जजों की बेंच के सामने था। लगता है सबने ही भगवान से सलाह की। चार जज हिन्दू थे और एक मुसलमान। सबने अपने अपने भगवान से सलाह ली और न्याय किया। न्याय अच्छा रहा हो या ना रहा हो, फल सबको अच्छा मिला। उन पांच में से एक तो उस समय ही चीफ जस्टिस थे ही। ऐसा फैसला लेने के बाद वे राज्यसभा के सदस्य बने। उन पांच में से दो बाद में बारी बारी से चीफ जस्टिस बने। एक बन कर रिटायर हो गए और एक वर्तमान में हैं। एक जज साहब अवकाश प्राप्त करने के बाद गवर्नर बने। जो एक बचे वे भी एक आयोग के अध्यक्ष बने।
आज के सीजेआई जी ने किस भगवान से सलाह की, किस भगवान के सामने अपना कष्ट रोया कि भगवन समझ नहीं आ रहा है, न्याय नहीं कर पा रहा हूँ, आप ही राह सुझाओ, यह स्पष्ट नहीं किया है। किस भगवान की भक्ति की, यह बताया नहीं है। कुछ भगवान तो ऊपर हैं, स्वर्ग में निवास करते हैं। उनकी भक्ति की या उन भगवान की भक्ति की जो यहीं, पृथ्वी पर, जम्बू द्वीप के भारत खंड में, वर्तमान में विद्यमान हैं। वे भी अन्य भगवानों की तरह नॉन बायोलॉजिकल तरीके से अवतरित हुए हैं। स्वर्ग में मौजूद भगवानों की भक्ति फल दे, ना दे, उनकी भक्ति, उनकी सलाह से किये गए फैसले, तत्काल फल देते हैं। राम जन्मभूमि विवाद में फैसला देने वाले चार जजों को तो उसका फल मिल ही चुका है, पांचवे को इंतज़ार है।
(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)
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