Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

साझी विरासत: ...फिर फिर याद आते हैं नज़ीर अकबराबादी

हिंदी-उर्दू की‌ साझी विरासत के कवि आमजन के हमदर्द शायर नज़ीर अकबराबादी को आज के दौर में बार-बार पढ़े जाने, दोहराए जाने की ज़रूरत है।
Nazir Akbarabadi

आज जब नफ़रत और हिंसा का दौर बढ़ता जा रहा है। सियासी फ़ायदे के लिए ज़बान से लेकर मज़हब तक के झगड़े जानबूझकर बढ़ाए जा रहे हैं। हिंदू-मुस्लिम को एक-दूसरे से अलग करने की साज़िशें रची जा रही हैं, ऐसे में हमें अपने तमाम कवि-शायर याद आते हैं जिन्होंने इस सब भेद, इस सब झगड़े को मिटाने की भरसक कोशिश की। प्रेम और प्रतिरोध की नायाब शायरी की।

हमारी इसी साझी विरासत के एक शानदार और विरले कवि-शायर हैं नज़ीर अकबराबादी। जिन्हें आज के दौर में बार-बार पढ़े जाने, दोहराए जाने की ज़रूरत है। हिंदी-उर्दू की‌ साझी विरासत के कवि और आमजन के हमदर्द इस शायर को अपने ढंग से याद कर रहे हैं कवि और संस्कृतिकर्मी श्याम कुलपत। संपादक। 

डॉ. राज नारायण पाण्डेय ने, अठारहवीं सदी के शायर जनाब नज़ीर अकबराबादी की चुनिंदा नज्मों और नग्मों को इतिहास के अंधेरे से निकाल कर, काव्य प्रेमियों के समक्ष प्रस्तुत किया। नज़ीर का जन्म सन् 1735 में दिल्ली में हुआ था।

डॉ. राजनारायण पाण्डेय शब्द शास्त्र मर्मज्ञ और बहुभाषा विद् रहे हैं। उन्होंने भाषा विज्ञानी के बतौर प्राचीन भारतीय भाषाओं, अपभ्रंश, तद्भव प्राकृत, का गहन अध्ययन, अन्वेषण और शोध पूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत किया। नज़ीर, रूढ़िवादी काव्य-परम्परा से हटकर समन्वयवादी आदर्श को अंगीकार करते हुए गली-कूचे में रहने वाले, आम लोगों के सुख-दुख के वास्ते उनके महबूब शायर बन गए, अपने युग के यथार्थ को स्वर देते हुए अपनी शायरी/कविता को माध्यम के रूप में युगीन संवेदना और उसके सामाजिक धरातल के सच और उनके जीवन मूल्य एवं उनकी जीवंत अनुभूतियों को अपनी समूची शिद्दत के साथ जिया, लिखा और गाया।

लेखक का उद्देश्य 18वीं सदी के मस्तमौला शायर नज़ीर अकबराबादी के व्यक्तित्व और कृतित्व को हिन्दी समाज के समक्ष पेश करना है।

अपने विशिष्ट मार्ग का अनुगमन करने वाला यह कवि यथार्थ रूप में धरती का गायक था। उनकी नजर में दुनिया के सुख-दुख जीवन के पड़ाव भर थे। उन्हें दुनिया की हर चीज़ से मुहब्बत थी। अपने जीवन काल में ही नज़ीर मशहूर हो गए थे।

उनकी  कविता की जादुई मौसीकी आगरे के गली-कूचों और बाजा़रों तक गूंजती थी। त्योहारों और मेलों में उनके गीत लोकगीतों की तरह गाये जाते थे।

श्रीकृष्ण के जीवन पर नज़ीर द्वारा रचे गए उनके गीत ‌फकीर मस्त हो कर गाते थे।

क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन।

ऐसा था बांसुरी के बजैया का  बालपन।

यारों सुनो, वह दधि के लुटैया का बालपन

और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन

नज़ीर की पैदाइश के समय में दिल्ली के तख्त पर मुहम्मद शाह गद्दीनशीं थे। सियासी नजरिए से देखा जाए तो मुगल  साम्राज्य दिन प्रतिदिन कमजोर और पतनशील होता जा रहा  था। बाहरी ताकतों की दखलंदाजी बढ़ती जा रही थी। नादिरशाह और इब्राहिम अब्दाली ने दिल्ली पर हमला कर दिया था। उसके हमलों ने दिल्ली को श्री-विहीन कर दिया था। वहां के बाशिंदे अन्य जगहों की ओर पलायन कर गए। नज़ीर का परिवार भी दिल्ली से आगरे आ गया और नूरी दरवाजे में मीर साहब का मकान किराए पर लेकर रहने लगा। नज़ीर की जिंदगी का ज्यादातर वक्त आगरे में बीता। नज़ीर के परिवार के लोगों को दिल्ली से आने की सही‌-सही तारीख मालूम नहीं थी। किन्तु अंदाजन उस वक्त सात या आठ साल की उम्र रही होगी नजीर की। उनका पूरा बालपन आगरे में ही बीता।

उनकी शिक्षा का समुचित प्रबंध किया गया, वे उर्दू-फारसी के अच्छे ज्ञाता थे। इसके अलावा ब्रजभाषा, मारवाड़ी, पंजाबी आदि का व्यावहारिक ज्ञान उन्हें था। उनकी कविताओं में संस्कृत के शब्द भी मिलते हैं ।

नज़ीर के जीवन में और कविताओं में आगरा एक‌ नॉस्टेलजिया की तरह जीता रहा है। उनकी कविता में आगरा का जितना जिक्र आता है उतना दिल्ली का नहीं होता है। बड़े आत्मसंतोष के साथ वह स्वयं को आगरे का बताते हैं।

आशिक़ कहो असीर कहो आगरे का है।

मुल्ला  कहो  दबीर   कहो आगरे  का है।

मुफ़लिस कहो फ़क़ीर कहो आगरे का है।

शायर  कहो  नज़ीर  कहो  आगरे  का है ।

नज़ीर की रुचि दर्शन और चित्रकारी में भी थी। पवित्र क़ुरआन का सबक उन्होंने भले याद कर लिया हो, परन्तु अरबी का विशेष ज्ञान उन्हें नहीं था। 'उन पर ज्ञानगुरुता एवं विद्वता का प्रभाव तो नहीं था, किन्तु वे जीवन रहित ज्ञान तथा अनुभव शून्य विद्वता को त्याज्य ज़रूर मानते थे'। उन्होंने लिखा है—

जहां में क्या क्या, खुदी के अपनी, हर एक बजाता शादियाने। 

कोई हकीम और कोई महंइदंस, कोई हो पण्डित कथा बखाने।

आगरा उन दिनों साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का मरक़ज था। सौदा (1706-1781)  मीर,(1721-1785) दर्द और ग़ालिब जैसे महान शायरों की जन्मभूमि रही है।

सन् 1707 में मुग़ल सम्राट औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् मुग़ल साम्राज्य बुरी तरह लड़खड़ा गया, उसके पराभव की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी थी। नज़ीर अकबराबादी के वक्त में दिल्ली के तख्त पर मुहम्मद शाह आसीन थे। मराठा,सिख और जाटों ने अपने अपने प्रभुत्व क्षेत्र में खुदमुख्तारी का ऐलान कर दिया। और अपनी आजादी का ऐलान करने लगे। शासन सत्ता के शक्तिहीन होते जाने की वजह से समाज के लोगों की माली हालत दिन पर दिन बिगड़ती जा रही थी।

सन् 1707 में  मुग़ल साम्राज्य विकेन्द्रीकरण और विघटन की तरफ बढ़ता जा रहा था। चारों तरफ आर्थिक विपन्नता तथा सामाजिक दुर्गति का पसारा दिखाई देने लगा। सन् 1739 में नादिरशाह ने भारत पर हमला किया। उसने जी भर कर दिल्ली को लूटा। उसके पश्चात अहमदशाह अब्दाली ने  कई  बार हमले किए। इन हमलों से देश जर्जर होता गया।

चारों तरफ आर्थिक दरिद्रता और सामाजिक बदहाली का करूण नज़ारा विराजमान था। व्यावसाय एवं कारोबार बंद हो गये। नज़ीर ने इस दुरावस्था का वर्णन इन लफ़्ज़ों में किया है—

मारे हैं हाय हाथ पै सब यां के दस्तकार ।

और जितने पेशेवर हैं सो रोते हैं जा़र जा़र।

कुछ एक दो के काम का रोना नहीं है यार.।

छत्तीस पेशे वालों के हैं कारोबार बंद़।।

नज़ीर आम आदमी के शायर रहे हैं, और आम आदमी की जिंदगी की जद्दोजहद से मुंह नहीं मोड़ सकते थे।

आम आदमी की मुफ़्लिसी के बारे में नज़ीर की कलम अति यथार्थवादी रूख़ अख़्तियार करती है ---

जब आदमी के हाथ पे आती है मुफ़्लिसी ।

किस किस तरह से उसको सताती मुफ़्लिसी।

प्यासा तमाम रात रोज बिठाती है मुफ़्लिसी।

भूखा तमाम रात सुलाती  है मुफ़्लिसी।

यह दुख वह जाने जिसपे कि आती है मुफ़्लिसी।

जो अहले फ़ज़ल आलमो फाजिल़ कहाते  हैं ।

जो मुफ्लिस हुए तो कल्मा तक भूल जाते हैं।

नज़ीर ने त्योहारों का वर्णन पूरी सद्भावना और समग्रता के साथ किया है। समाज के मामूली लोगों के लिए उनके दिल में जैसी पीड़ा और कसक है,वैसी उस जमाने में कहीं नहीं  दिखाई पड़ती।

शब-ए-बारात का पर्व पर जहां रईस परिवार हलवा-मिठाई के साथ त्योहार का आनन्द उठाते हैं, वहीं एक गरीब परिवार आटे-गुड़ की लपसी से त्योहार मनाता है।

पिसनहारी एक ऐसे ही परिवार के प्रति नज़ीर की हमदर्दी का इज़हार है।  इंसानियत केबचे होने की उम्मीद के प्रति आश्वस्त करती हैं। नज़ीर लिखते हैं—

ठिलिया चपाती हलवे की तो सबमें चाल है।

अदना गरीब के तईं यह भी मुहाल है।

काले से गुड़ की लपसी कढ़ी की मिसाल है ।

पानी की हांडी, गेहूं की रोटी भी लाल है।

अचरज की बात यह है कि इस्लामी शासन के तहत रहते हुए, खुद एक मुसलमान होते हुए भी नज़ीर श्री कृष्ण को परमात्मा और पैग़म्बर जैसा ही मानते हैं। वे कहते हैं—

तू सबका खुदा सब तुझपै फ़िदा अल्लाहो गुनी अल्लाहो गुनी।

नज़ीर ने पूरी तन्मयता के साथ महादेव जी का ब्याह तथा सुदामा चरित जैसी लम्बी कविताएं लिखीं हैं।

नज़ीर की कविताओं में जन साधारण और दीन दुखियों की नुमाइंदगी दिखाई और सुनाई पड़ती है। उनकी कविता में समाज की धड़कनें सुनी जा सकतीं हैं। उन्होंने स्वाभाविक तौर से सरल भाषा में दृश्यों और स्थानों का वर्णन ऐसी कुशलता के साथ किया है कि सम्पूर्ण दृश्य आंखों के सामने दृष्टिगत हो जाता है। आगरा उन दिनों साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र था। मीर और ग़ालिब जैसे महान शायरों की जन्मभूमि होने के साथ ही ब्रजभूमि की काव्य-रसिकता का प्रभाव भी उन पर था। ऐसे माहौल में रहते हुए नज़ीर पर उनका असर पड़ा। वे बचपन से शायरी करने लगे थे। कहा जाता है कि आगरे के एक मुशायरे में नज़ीर जब अपनी एक ग़ज़ल पढ़ रहे थे तो वहां मीर भी मौजूद थे। ग़ज़ल का वह शेर अत्यंत मशहूर हुआ ---

''नज़र पड़ा एक बुत ए परीरा निराली सज धज नयी अदा का/ उमर जो देखी तो दस बरस की/ कहरे आफ़त गज़ब खुदा का''।

कहा जाता है कि इस पर महान शायर मीर ने नज़ीर की पीठ ठोंकी। भरे मुशायरे में मीर की शाबासी नज़ीर के लिए सौभाग्य का द्वार सा खुलना था। आगरे के एक पुलिस अफसर अहदी अब्दुल रहमान ने अपनी लाडली बेटी के रिश्ते के लिए पैग़ाम नज़ीर के यहां भेज दिया।‌ कुछ दिनों बाद तजव्वरुन्निसा बेगम के साथ उनका निकाह हो गया। उनकी दो संतानें हुईं, एक पुत्र गुलज़ार अली और बेटी इमामी बेगम। इमामी बेगम की बेटी, विलायती बेगम 1891 तक जीवित रहीं। उन्ही से अनेक जानकारियां हासिल करके, ज़नाब अब्दुलगफूर सहवाज़ ने नज़ीर अकबराबादी की जीवनी 'कुल्लियातेनज़ीर' लिखी थी।

इस्लाम और वैदिक धर्म की टकराहट यानी मुस्लिम धर्म की टकराहट, यानी मुस्लिम और हिन्दू धर्म के बीच तलवारों से शुरू हुई रिश्तों की गाथा का वह स्वर्ण युग था जब रहीम के मानने वाले राम के करीब आये। काबा और काशी में अजान  और घण्टियों का रिश्ता जुड़ा। औलियों की दरगाह पर हिंदुओं ने सिज़दे किये, चादरें चढ़ाईं  और मुस्लिम कवियों ने राम और कृष्ण पर कविताएं लिखीं। शाम-ए-अवध, सुबह-ए-बनारस का हुस्न परवान चढ़ा। उन्हीं मुस्लिम शोहराओं पर भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने यहां तक कह डाला, इन मुसलमान हरि जननों पर कोटिन हिन्दू वारिये।

भ‌ले  ही उस युग से हम आज आतंक के युग में आ गए हों, पर हमें विश्वास है गांधी की यह प्रार्थना एक न एक दिन इस धरती पर ऐसे ज़ज्बात से लैस बस्तियां आबाद करने में सफल होंगी : ईश्वर अल्लाह तेरे नाम, सब को सन्मति दे भगवान।

आलम की मज़ार पर भले ही फूल चढ़ाने वाले न हों पर हिन्द में शेख़ रंगरेजिन के रूप में उसकी मुग़लानी बीवी की हिंदुआनी यादों का गुलशन आज भी आबाद है:

हौं तो मुग़लानी

हिन्दुआनी ह्वें रहूंगी मैं।

(लेखक एक कवि और संस्कृतिकर्मी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest