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‘उत्तर-पूर्व’ : मणिपुर के अतीत और वर्तमान की‌ त्रासदी की कहानी

मौजूदा वक़्त में मणिपुर में जो कुछ भी हो रहा है उसकी जड़े तलाश करने के लिए बेहद ज़रूरी उपन्यास है ‘उत्तर-पूर्व’, जो मणिपुर के इतिहास, राजनीति, संस्कृति और जनजीवन को बेहद नज़दीक से बयां करता है।
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इतिहासकार ई.एच.कार के मुताबिक़, “इतिहास भूत, भविष्य और वर्तमान के बीच निरंतर चलने वाला संवाद है।” कुछ पुस्तकें ऐसी होती हैं जो वर्तमान में जीते हुए भविष्य को भी ‌देख‌ लेती‌ हैं। संभवतः इसी कारण मार्क्स ने लिखा था 'बाल्ज़ाक के उपन्यास' फ्रांस का मनोवैज्ञानिक इतिहास है। लेनिन ने भी टाल्सटाय के उपन्यासों को 'रूसी क्रांति का दर्पण' कहा ‌था। आज पचास दिनों बाद भी मणिपुर भयानक हिंसा से जूझ रहा है। केंद्र तथा मणिपुर की भाजपा सरकार इसे अपनी हिंदुत्ववादी नीतियों के कारण और भी बढ़ा रही है। इतिहासकार, एक्टिविस्ट और संस्कृतिकर्मी‌ प्रोफेसर लाल बहादुर वर्मा लंबे समय तक मणिपुर के इंफाल विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग में अध्यापन करते रहे, लेकिन वे अन्य अध्यापकों की तरह‌ मात्र एक अध्यापक नहीं थे, बल्कि उन्होंने मणिपुर के इतिहास, राजनीति, संस्कृति और जनजीवन को बहुत निकट से देखा तथा इसी पर केंद्रित एक‌ उपन्यास 'उत्तर पूर्व' लिखा। यह उपन्यास सबसे पहले 2002 में प्रकाशित हुआ, फिर दूसरा संस्करण 2004 में आया। आश्चर्य की बात यह‌ है कि आज 2023 में मणिपुर में जो कुछ हो रहा है, उसकी जड़े तलाश करने के लिए यह बहुत ज़रूरी उपन्यास बन‌ गया है। किसी विचार को या ऐतिहासिक संदर्भों को, जो बिलकुल सच्चाई के निकट हो, उसे एक उपन्यास के रूप में अभिव्यक्त करना एक बहुत कठिन और जटिल काम होता है, लेखक ने इसे बहुत कुशलता से व्यक्त किया है, जबकि लेखक कोई पेशेवर साहित्यकार या उपन्यासकार नहीं थे। यह उपन्यास इंफाल विश्वविद्यालय से शुरू होकर सारे मणिपुर तक फैला है, इसमें मणिपुर की उस जनजाति संस्कृति का चित्रण है, जिसे आज आरएसएस हिंदुत्व का जामा पहनाकर मणिपुर समाज में विभाजन का ज़हर बो रही है। वे एक जगह लिखते हैं, "दिल्ली या कहें संपूर्ण उत्तर भारत हज़ारों साल से सत्ता का केंद्र रहा है, यही कारण है कि उत्तर भारत के लोग यह मानने लगे कि उनकी संस्कृति सारे भारत की संस्कृति है।"

पृष्ठ संख्या-80 पर उपन्यासकार लिखते हैं, "दिल्ली में सारे पूर्वोत्तर भारत के विद्यार्थी अपमानित होते हैं, अजनबियत के शिकार होते हैं और उन्हें दिल्ली वैसे ही लगता है, जैसे किसी दूसरी दुनिया में आ गए हों जो उनके प्रति तनिक भी सहानुभूति नहीं रखती हो। चौराहे पर खड़े युवा सबसे पहले आकर्षक रोज़ी-रोटी वाला रास्ता चुनते हैं। कुछ संवेदनशील आदर्शवादी राहों पर भी भटकते हैं।

इराबो को‌ याद था, चीन-भारत युद्ध के समय वह‌ दिल्ली आया था। टेम्पोवाले ने उससे स्टेशन से मॉडल टाउन का सत्तर रुपया लिया था और सड़क पर ही छोड़कर चलता बना था। पता तलाशते शाम हो गई थी। एक पुलिसवाले ने उसे चीनी समझ कई घंटे तक थाने पर बिठा दिया था। असलियत पता चलने पर किसी ने उसे सॉरी तक नहीं कहा था।"

उपन्यासकार का मानना है कि जीवन और महाकाव्यों में कोई नायक या खलनायक नहीं होता। व्यक्ति की निजी क्षमताएं या कमजोरियां ही किसी को नायक या खलनायक बनाती हैं, यही कारण है कि इस उपन्यास में कोई नायक या खलनायक नहीं है। इस उपन्यास में दो प्रेम कहानियां भी चलती हैं जो कहीं से भी ज़बरदस्ती डाली हुई कहानियां नहीं लगती हैं, इसके माध्यम से उपन्यासकार ने वहां के समाज की प्रगतिशीलता और रूढ़िवाद दोनों को ही दिखाया है। मणिपुर के बारे में एक मिथक है कि "यह महाभारत के पात्र अर्जुन की ससुराल थी, तथा अर्जुन की पत्नी चित्रांगदा यहीं की थी।" यहां का मैतेई समुदाय अपने को अर्जुन का वंशज मानता है। मूलतः ये लोग मैतेई जनजाति समाज के थे, लेकिन चैतन्य महाप्रभु ने इनके बीच में हिंदू धर्म का प्रचार किया। ये लोग अपने आप को अन्य जनजातियों से श्रेष्ठ मानते हैं तथा ख़ुद राजपूत कहते हैं। मणिपुर में सबसे बड़ी संख्या होने के कारण इनका राजनीति समेत हर क्षेत्र में वर्चस्व है।

उपन्यास के पृष्ठ संख्या-261 के मुताबिक़, "जैसे मणिपुर में ही देखें – व्यक्ति की कितनी अस्मिताएं हैं। एक तो तुम मैतेई हो, फिर मणिपुरी हो और फिर भारतीय भी। हर आदमी की कई-कई पहचान होती है, जैसे, भारत जैसे विराट देश में अनगिनत सांस्कृतिक इकाइयां हैं, वैसे ही भारत के छोटे-छोटे राज्य में भी, मणिपुर और सिक्किम में भी, कहीं भी। अब‌ भारत तो सदियों में एक देश और बाद में एक राज्य बना है पर देश के अंदर वाले प्रांत जिन्हें अब राज्य कहते हैं, कई तरह के बने हैं और भाषा के आधार पर पुनर्गठन भी हुआ है, पर वे एक सुगठित हमवार राजनीतिक इकाई इसलिए नहीं बन पा रहे हैं क्योंकि एक तो आर्थिक असंतुलन और विषमता है, दूसरे सांस्कृतिक विविधता और ‌विषमता भी है।"

इस उपन्यास में उपन्यासकार बतलाता है कि भले ही मैतेई समुदाय हिंदू है और कुकी तथा अन्य जनजाति समुदाय ईसाई हैं, लेकिन इनके रीति-रिवाज और परम्पराएं एक ही हैं, लेकिन ढेरों हिंदूवादी संगठन जिसमें आरएसएस प्रमुख है, बड़े पैमाने पर इनके बीच घुसपैठ करके मैतेई समुदाय पर उत्तर भारतीय धार्मिक परम्पराओं को थोपने की साज़िश कर रहा है। उपन्यासकार के मुताबिक़ हर जगह इनका वर्चस्व हो रहा है, जिससे भविष्य में यहां अलगाव बढ़ सकता है और भयंकर परिणाम हो सकते हैं, जो आज प्रत्यक्ष रूप से दिखाई दे रहा है।

उपन्यास का एक महत्वपूर्ण पात्र 'इबोहल' है, "जो मैतेई, मणिपुरी और भारतीय होने की त्रिविधा से जूझ रहा था। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह नैसर्गिक रूप से मैतेई है, थोड़ी कोशिश से वह मणिपुरी भी हो सकता था, परंतु इंडियन होने में कठिनाई होती थी। मणिपुरी होने में वह पूरी तरह मैतेई पहचान और उसकी‌ प्राथमिकता बनाए रख सकता था, पर भारतीय होने में उसे अपनी मैतेई और मणिपुरी पहचान को‌ कम करना पड़ता था। ऐसा गणित और रसायन उसके पल्ले नहीं पड़ता था, उसके लिए जो फाॅर्मूले‌ उसे किताबों और सेमिनारों में मिलते थे, वे विचार होते थे व्यवहार नहीं।" (पृष्ठ संख्या-17)

जवाहरलाल नेहरू ने मणिपुर की जातीय नायिका रानी 'गियाडलू' को 'पूर्वोत्तर की झांसी की रानी' का ख़िताब दिया था। ब्रिटिश काल में ही जनजातीय नेता जादोनांग के नेतृत्व में एक रहस्यवादी आंदोलन उभरा था। गियाडलू उनकी अनुयायी थी। इस पराजित विद्रोह में भी वह गाथात्मक महत्ता पा गईं। जब उपनिवेश विरोधी संघर्ष में स्थानीय किसान और जनजातीय विद्रोहों को पिरोकर एक व्यापक राष्ट्रीय संग्राम का इतिहास रचा जाने लगा, तो गियाडलू का 'झांसी की रानी' जैसा बन जाना स्वाभाविक था। इस गौरवान्वयन से राष्ट्रीय अस्मिता तो समृद्ध नहीं हुई, क्योंकि तथाकथित मेन-स्ट्रीम या सवर्ण शासक वर्ग हाशिए की अभिव्यक्तियों को मुख्य पाठ में शामिल नहीं करना चाहता था लेकिन क्षेत्रीय नायकों ने स्थानीय और क्षेत्रीय एकजुटता को आगे बढ़ाने में मदद मिली।

जब मणिपुर में हिंदूवादी राजनीति सिर उठाने लगी, तो उसने पहले हिंदुओं को लामबंद किया और फिर मुस्लिमों को खलनायक बना दिया। सदियों से उपेक्षित जनजातियां भी गले लगाई जाने लगीं। उनके बीच आश्रम तथा स्कूल खोलकर ईसाई मिशनरियों को देशद्रोही करार दिया गया और एक दिन गियाडलू को हिंदू घोषित कर दिया गया, जिन्होंने हिंदू-स्वाभिमान की रक्षा के लिए ईसाइयों से संघर्ष किया। इस 'गलत' इतिहासबोध ने मणिपुर के जनजाति समाज में व्यापक दरारें पैदा कीं। आज मणिपुर में हिंसा और जनजातियों के टकराव में इन सबका भी बहुत बड़ा ‌योगदान है।

भारत का पढ़ा-लिखा व्यक्ति हो या मुख्यधारा की मीडिया, मणिपुर समेत समूचे उत्तर-पूर्व के बारे में उसकी जानकारी बहुत सीमित है। मणिपुर की महिला मुक्केबाज़ मैरीकॉम जब विश्वविजेता बनीं तथा उन्हें ओलिंपिक पदक मिला, तब लोग मणिपुर को उनके नाम से जानने लगे। शायद बहुत कम लोगों को पता है कि मणिपुर की मानवाधिकार कार्यकर्ता इरोम चानू शर्मिला पूर्वोत्तर राज्यों में लागू 'सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम 1958’ को हटाने के लिए लगभग सोलह वर्षों तक भूख-हड़ताल पर‌ रहीं जिसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। बाद में चुनाव लड़ने पर उन्हें केवल नब्बे वोट मिले। बहुत कम लोगों को मालूम है कि मणिपुर में साल 2004 में मनोरमा नाम की एक महिला की बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई थी। मनोरमा के लिए न्याय की मांग करते हुए महिलाओं ने निर्वस्त्र होकर प्रदर्शन भी किया था। इस चर्चित घटना पर कवि अंशु मालवीय ने 'मांस के झंडे' नामक एक कविता भी लिखी थी जो इस पुस्तक के प्रारंभ में दी गई है। आज के मणिपुर को समझने तथा वहां पर‌ हिंदुत्ववादी राजनीति के प्रयोग को जानने के लिए यह उपन्यास बहुत महत्वपूर्ण है।‌ निश्चय ही समकालीन उपन्यासों से हटकर इस उपन्यास का अपना अलग ही रंग और गंध है। निश्चित रूप से इसमें इतिहास और राजनीति की बोझिलता कुछ ज़्यादा ही है, परंतु आज के समय में यह बहुत ही पठनीय उपन्यास बन गया है। दुर्भाग्यवश यह आज-कल अनुपलब्ध है, इसे पुनः प्रकाशित करने की ज़रूरत है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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