वर्धा PhD प्रकरण: दलित स्कॉलर की थीसिस से दोगुना पन्नों की हो गई अर्ज़ी की फ़ाइल
एक पीएचडी स्कॉलर जिसकी थीसिस 344 पन्नों की हो लेकिन उसे अवॉर्ड करवाने की जद्दोजहद के दौरान किया गया पत्राचार और अर्जियों की फाइल अगर थीसिस के पन्नों से दोगुनी हो गई हो, तो हालात कैसे होंगे समझा जा सकता है।
देश में एक विश्वविद्यालय है जिसका नाम है, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र)। इस विश्वविद्यालय के नाम में अंतरराष्ट्रीय जुड़ा है और यहां एक पीएचडी स्कॉलर अपनी थीसिस को अवॉर्ड करवाने के लिए धरना दे रहा है, लगातार पत्राचार कर रहा है, विश्वविद्यालय के वीसी से लेकर प्रशासनिक अधिकारियों तक के चक्कर लगा रहा है।
महात्मा गांधी के नाम पर जिस विश्वविद्यालय का नाम हो वहां एक दलित शोध छात्र अगर आरोप लगा रहा है कि उसे दलित होने की वजह से टारगेट किया जा रहा है तो सोचिए दलितों को लेकर किए गए संघर्ष कहां खड़े नज़र आते हैं?
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पुराने मामले में ताज़ा अपडेट
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के स्त्री अध्ययन विभाग के दलित शोधार्थी रजनीश कुमार का आरोप है कि 13 दिन (27 मार्च से 8 अप्रैल) के सत्याग्रह के बाद उनकी मांगे मान ली थी। लेकिन अब प्रशासन उन मांगों से पलट रहा है।
क्या थी उस सत्याग्रह की मांगें ?
मार्च के आख़िरी और अप्रैल के पहले हफ़्ते तक चले उनके सत्याग्रह धरने की अहम मांगे थीं। उनके पीएचडी शोध प्रबंधन का मूल्यांकन हो। और उनके शोध निर्देशक प्रो.शंभू गुप्त के निर्देशन में पीएचडी की उपाधि प्रदान की जाए। जिसे उस वक़्त प्रशासन ने मान लिया था।
धरने के बाद प्रशासन की तरफ से दिया गया आश्वासन
24 जून को रजनीश कुमार को क्या पता चला?
24 जून को रजनीश कुमार को पता चलता है कि 26 जून को उनका वाइवा ( Viva ) है। और इस सूचना पत्र के माध्यम से ही उन्हें पता चलता है कि शोध-निर्देशक डॉ. शैलेश मरजी कदम को बनाया गया है, जबकि उनका सारा शोध कार्य प्रो. शम्भू गुप्त के शोध निर्देशन में हुआ है। रजनीश कुमार के मुताबिक प्रशासन अपनी बात से मुकर रहा है इसलिए उन्होंने आज 26 जून को अपना वाइवा भी नहीं दिया। और एक बार फिर प्रशासन से पत्र लिखकर जवाब मांगा, जिसमें प्रशासन की तरफ से कहा गया कि '' विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के नियमों के अंतर्गत मूल्यांकन की व्यवस्था करने के लिए स्थाई नियमित शिक्षक का निर्देशक के रूप में कार्यरत होना आवश्यक था इसलिए डॉ. शैलेश मरजी कदम, सहायक प्रोफेसर को प्रशासनिक रूप से शोध-निर्देशक बनाया गया था। सभी अकादमिक मामलों में प्रो. शंभू गुप्त (सेवानिवृत्त) शोध-निर्देशक हैं''।
''सिर्फ हमें बरगलाने की बात की गई''
इसपर हमने रजनीश कुमार आंबेडकर से बात की उन्होंने कहा कि '' प्रो. शम्भू गुप्त के रिटायर होने पर कम से कम दो छात्रों की पीएचडी उनके अंडर अवॉर्ड हो चुकी है। वहीं बात करें विश्वविद्यालय स्तर पर तो सात ऐसे छात्र होंगे'' वे आगे कहते हैं कि ''उन्हीं के मामले में प्रशासन को UGC के नियम क़ानून याद आ गए, ऐसा क्यों'' ? इसके साथ ही वे कहते हैं कि 'जब मैंने वाइवा के लिए मिले पत्र को देखा तो मुझे पता चला कि मेरे शोध निर्देशक बदल दिए गए हैं, जबकि सत्याग्रह के बाद मिले आश्वासन में कहा गया था कि जिस स्थिति में शोध प्रंबधन प्राप्त हुआ है उसे मूल्यांकित करवाया जाएगा, तो उस वक़्त हम यही समझ रहे थे कि पहले के जो ऑर्डर थे जिसमें सुप्रिया पाठक और डॉ. शैलेश मरजी कदम को जिन आदेश में हमारा शोध निर्देशक बनाया गया था वे कैंसिल समझा जाएगा लेकिन ऐसा नहीं है, उन्होंने कहा कि प्रशासनिक रूप से शोध निर्देशक बनाया गया है यानी कि पिछले ऑर्डर जो हैं उसे कैंसिल नहीं किया गया, सिर्फ हमें बरगलाने की बात की गई।''
सुप्रिया पाठक और शैलेश मरजी के शोध निर्देशक बनाए जाने के ऑर्डर की कॉपी
''रिसर्च एथिक्स के भी ख़िलाफ़ है''
रजनीश कहते हैं कि ''मैंने जिनके अंडर काम किया है श्रेय भी उन्हीं को मिलना चाहिए, जिस शख्स ने मुझे कभी गाइड ही नहीं किया तो हम उसे कैसे अपना गाइड मान सकते हैं ये रिसर्च एथिक्स के बिल्कुल खिलाफ है। हमें जो कहा गया उस फैसले को पलट दिया गया।''
थीसिस लिखने के दौरान रजनीश कुमार ने जितनी कलम नहीं चलाई थी उससे कहीं ज़्यादा दौड़-धूप उन्हें थीसिस को अवॉर्ड करवाने में करनी पड़ रही है। वे कहते हैं कि ''344 पेज की मेरी थीसिस है लेकिन उससे डबल मेरी वो फाइल है जिसमें तमाम अर्जियां हैं जिन्हें मैंने विश्वविद्यालय को, UGC, PMO, ST आयोग को, राष्ट्रपति, मानवाधिकार आयोग को भेजा है, इन सब के दौरान मेरी छोटी बच्ची है मेरी पत्नी है हम तीनों ही ऐसे मानसिक तनाव से गुज़र रहे हैं कि क्या बताऊं, मेरी आर्थिक हालत की बात ही छोड़ दीजिए।''
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