ख़बरों के आगे-पीछे: मोदी ने चुनाव नतीजों से कोई सबक़ नहीं लिया
मोदी टकराव का रास्ता नहीं छोड़ेंगे
लगता है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव के नतीजों से कोई सबक नहीं लिया है और अपने तीसरे कार्यकाल में भी वे विपक्ष को अपमानित करते हुए उसके साथ टकराव का रास्ता ही अख्तियार करेंगे। इस बात के संकेत उन्होंने 18वीं लोकसभा के पहले ही सत्र में दे दिए हैं। स्थापित और मान्य संसदीय परंपरा है कि लोकसभा की चुनाव प्रक्रिया पूरी होने के बाद उसके नव निर्वाचित सदस्यों को शपथ दिलाने के लिए एक अस्थायी अध्यक्ष (प्रो-टेम स्पीकर) की नियुक्ति होती है। परंपरा के मुताबिक नए सदन के लिए चुने गए सबसे वरिष्ठ सदस्य को यह जिम्मेदारी दी जाती है। प्रो-टेम स्पीकर का कार्यकाल बमुश्किल दो दिन का होता है और इस दौरान शपथ दिलाने के अलावा उनके पास कोई और कार्य नहीं होता है। इसलिए इस पद पर नियुक्ति को लेकर कोई विवाद हो, यह कल्पना से भी परे है। लेकिन शायद का मौजूदा सत्ताधारी नेतृत्व अपने दायरे से बाहर किसी व्यक्ति, दल या जमात को देश का हिस्सा ही नहीं मानता, इसीलिए उसने परंपरा की अनदेखी करते हुए अपनी पार्टी के सबसे वरिष्ठ निर्वाचित सदस्य भर्तृहरि महताब को प्रो-टेम स्पीकर बनाया। ऐसा करते हुए उसने वरिष्ठतम सदस्य कांग्रेस के के..सुरेश की उपेक्षा कर दी। इस तरह अनपेक्षित टकराव की जड़ें पड़ गईं और इस प्रकरण से उचित ही यह संदेश मिला है कि वर्तमान लोकसभा की कहानी भी पिछली दो लोकसभाओं के जैसी ही होगी। दूसरी बार स्पीकर चुने गए ओम बिड़ला ने भी विपक्षी सदस्यों के साथ अहंकारी लहेजे में अपमानजनक व्यवहार से इस आशंका की पुष्टि की है।
मणिपुर को लेकर केंद्र की आपराधिक लापरवाही
मणिपुर को हिंसा के आगोश में गए 14 महीने पूरे हो चुके हैं। केंद्र सरकार की उपेक्षा और राज्य सरकार के एकतरफा नजरिए से मणिपुर दुर्दशा के किस गर्त में जा चुका है, उसका अंदाजा वैसे तो रोजमर्रा की खबरों से भी लगता है, पर अब मणिपुर हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणियों से भी ध्यान उस तरफ गया है। जस्टिस सिद्धार्थ मृदुल ने अपनी बात कहने के लिए एक राष्ट्रीय अखबार को इंटरव्यू देने की जरूरत महसूस की, यही तथ्य मणिपुर में जारी हालात की एक झलक है। इंटरव्यू में जस्टिस मृदुल ने राज्य सरकार के रवैये पर घोर असंतोष जताया। राज्य में हिंसा की स्थिति को अभूतपूर्व बताते हुए उन्होंने उन चुनौतियों का जिक्र किया, जिनका सामना न्यायिक व्यवस्था को करना पड़ रहा है। उन्होंने बताया कि आज मणिपुर में मैतेई समुदाय के व्यक्तियों की पोस्टिंग कुकी समुदाय वाले इलाकों मे करना नामुमकिन हो गया है। इस कारण न्यायपालिका के लिए सामान्य ढंग से काम करने की स्थिति नहीं रह गई है। स्पष्ट है कि राज्य में संवैधानिक व्यवस्था ढह चुकी है। मगर केंद्र की भाजपा सरकार खुद दलगत नजरिए का शिकार रही है। संकट के पूरे दौर में वह राज्य सरकार की संरक्षक की भूमिका में नजर आई। मुख्यमंत्री एन. वीरेन सिंह ने हाल में कहा कि अब हालात सुधर सकते हैं, क्योंकि केंद्र मणिपुर को प्राथमिकता दे रहा है। यह बयान खुद इस बात की तसदीक है कि अब तक मणिपुर उसकी प्राथमिकता नहीं रहा है। तो क्या उन हालात के लिए मुख्य रूप से केंद्र ही जिम्मेदार नहीं ठहरता है, जिनका विवरण जस्टिस मृदुल ने दिया है?
चार महीने में चार राज्यों के चुनाव
चुनाव आयोग ने चार राज्यों में विधानसभा चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है। आयोग की ओर से 20 अगस्त तक फाइनल मतदाता सूची जारी करने की घोषणा कर दी गई है। एक-एक महीने के अंतराल पर चार महीने में चार राज्यों के विधानसभा चुनाव! पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली कमेटी की सिफारिशों के मुताबिक 2029 से लोकसभा और सभी राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ होंगे। सवाल है कि क्या उससे पहले चार राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ नहीं हो सकते? गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर में 30 सितंबर तक विधानसभा चुनाव कराने को कहा है। सो, 30 सितंबर से पहले जम्मू-कश्मीर में चुनाव होगा। सितंबर में दूसरे किसी राज्य में चुनाव नहीं हो पाएगा क्योंकि उस समय उत्तर और पश्चिमी भारत में मानसून लौटा नहीं होता है। यानी बारिश और बाढ़ की संभावना रहती है। अक्टूबर में हर हाल में महाराष्ट्र का चुनाव कराना होगा क्योंकि महाराष्ट्र विधानसभा का कार्यकाल पांच नवंबर को खत्म हो रहा है। हरियाणा विधानसभा का कार्यकाल 25 नवंबर को खत्म होने वाला है। अगर चुनाव आयोग चाहे तो इसका चुनाव भी महाराष्ट्र के साथ हो सकता है। झारखंड विधानसभा का कार्यकाल पांच जनवरी 2025 तक है। इसीलिए वहां दिसंबर में मतदान होना है। चुनाव आयोग अक्टूबर में महाराष्ट्र के साथ वहां का भी चुनाव करा सकता है। लेकिन कम से कम अभी तक ऐसा नहीं लग रहा है कि चुनाव आयोग इन सभी राज्यों में एक साथ चुनाव कराने की तैयारी कर रहा है।
शरद पवार के यहां घर वापसी शुरू
लोकसभा चुनाव के नतीजों ने शरद पवार को एक बार फिर मराठा महानायक के तौर पर स्थापित किया है। उनकी पार्टी सिर्फ 10 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, जिसमें से नौ सीटों पर जीती। शरद पवार का साथ छोड़ कर गए अजित पवार की पार्टी चार सीटों पर लड़ कर सिर्फ एक सीट जीत पाई। इसीलिए अक्टूबर में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले अजित पवार की असली एनसीपी में भगदड़ मचने की संभावना है। पार्टी के कई नेता घर वापसी करना चाहते हैं। भाजपा और दूसरी पार्टियों में भी जो एनसीपी नेता चले गए थे उनकी वापसी शुरू हो गई है। पार्टी के एक बड़े नेता सूर्यकांत पाटिल ने एनसीपी के शरद पवार खेमे में वापसी की है। वे 10 साल पहले एनसीपी छोड़ कर भाजपा में चले गए थे और केंद्र में मंत्री भी रहे। उन्हें शरद पवार ने एनसीपी में शामिल कराया। इस मौके पर उन्होंने कह दिया कि वे अपनी पार्टी के नेताओं के साथ विचार विमर्श करके उन नेताओं को साथ लेने को तैयार है, जो पार्टी छोड़ गए थे। हालांकि उन्होंने कहा कि वे उन्हीं नेताओं को वापस लेंगे, जो उनका साथ छोड़ कर गए फिर भी पार्टी या परिवार के बारे में उलटे-सीधे बयान नहीं दिए और उन्हें कमजोर करने का काम नहीं किया। यानी जो चुप रहे और ज्यादा राजनीति नहीं की, लोकसभा चुनाव में भी बहुत सक्रिय नहीं रहे, उन तमाम विधायकों की शरद पवार के साथ वापसी हो सकती है।
महाराष्ट्र में अकेले लड़ सकती है भाजपा
महाराष्ट्र विधानसभा का चुनाव भाजपा अकेले लड़ सकती है, क्योंकि लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद उसे सहयोगी पार्टियों की उपयोगिता समझ में नहीं आ रही है। मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की शिव सेना ने सात सीटें जरूर जीतीं, लेकिन उसका फायदा भाजपा को नहीं मिला। इसी तरह अजित पवार की एनसीपी ने चार सीटें लडी थीं और वह एक सीट ही जीत पाई। इसीलिए भाजपा को शिंदे की शिव सेना और अजित पवार की एनसीपी से तालमेल करने में कोई फायदा नहीं दिख रहा है। भाजपा नेताओं का कहना है कि अगर ये दोनों पार्टियां भाजपा के साथ गठबंधन में बनी रहती हैं तो भाजपा को करीब 150 सीटें ही लड़ने के लिए मिल पाएंगी और तब मौजूदा हालात में वह 100 सीट का आंकड़ा नहीं पार कर पाएगी। पिछले दो चुनावों में भाजपा ने 100 से ज्यादा सीटें जीती हैं। इसीलिए भाजपा के नेता अकेले लड़ने में फायदा देख रहे हैं। उन्हें दो फायदे दिख रहे हैं। पहला फायदा तो यह है कि अकेले सभी 288 सीटों पर लड़ेंगे। दूसरा फायदा यह है कि शिव सेना का शिंदे गुट अकेले लड़ेगा तो वह उद्धव ठाकरे का वोट काटेगा और अजित पवार अकेले लड़ कर शरद पवार का वोट काटेंगे। इस तरह चुनाव को चारकोणीय बना देने में भाजपा को फायदा दिख रहा है। आमने-सामने के चुनाव में लोकसभा जैसे नतीजे आने की पूरी संभावना है। भाजपा को एक तीसरा फायदा यह भी दिख रहा है कि अकेले लड़ने पर चुनाव बाद के गठबंधन का रास्ता खुला रहेगा।
नायडू का मकसद जगन से बदला लेना
आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस पार्टी के नेता जगन मोहन रेड्डी जब मुख्यमंत्री थे तब पिछले साल तेलुगू देशम पार्टी के नेता चंद्रबाबू नायडू को उन्होंने गिरफ्तार कराया था। सुबह छह बजे नायडू की पार्टी की एक यात्रा के कैम्प ऑफिस से चंद्रबाबू नायडू को गिरफ्तार किया गया था। उसके बाद नायडू काफी समय जेल में रहे और उनका परिवार परेशान रहा। अब पासा पलट गया है। अब नायडू की सरकार बनते ही बदले की कार्रवाई तेज हो गई है। 24 जून को गुंटूर में जगन मोहन की पार्टी के कार्यालय पर बुलडोजर चल गया। माना जा रहा है कि सुबह छह बजे की गिरफ्तारी का बदला सुबह साढ़े पांच बजे बुलडोजर चला कर लिया गया। इससे पहले जगन मोहन रेड्डी के आवास के बाहर हुआ कथित अवैध निर्माण तोड़ दिया गया था। कहा जा रहा है कि चंद्रबाबू नायडू की इस बार की सरकार का एकमात्र लक्ष्य जगन मोहन रेड्डी से बदला लेने का है। आमतौर पर आंध्र प्रदेश में इस तरह की राजनीति नहीं होती थी लेकिन जगन ने शुरुआत कर दी है तो नायडू उसे आगे बढ़ा रहे हैं। जगन की गिरफ्तारी की संभावना भी जताई जा रही है। इसीलिए जगन ने केंद्र सरकार और भाजपा को यह संदेश दिया कि उनके पास राज्यसभा में 11 और लोकसभा में चार सांसद हैं। उन्होंने कहा कि नायडू के पास कुल 16 सांसद लोकसभा में हैं और जगन के पास दोनों सदनों में 15 सदस्य हैं। अब देखना है कि केंद्र सरकार उनकी रक्षा कर पाती है या नहीं।
अमरिंदर सिंह का परिवार क्या करेगा?
पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह न घर के रहे और न घाट के। दो पारी में करीब साढ़े नौ साल तक मुख्यमंत्री रहने के बाद जब कांग्रेस आलाकमान ने उनको हटाया तो वे बागी हो गए। उन्होंने कांग्रेस छोड़ कर अलग पार्टी बनाई और बाद में उस पार्टी का भाजपा में विलय कर दिया। फिर लोकसभा चुनाव से पहले उनकी पत्नी परनीत कौर ने भी पार्टी छोड़ दी और भाजपा के टिकट पर पटियाला से चुनाव लड़ा लेकिन वहां वे बुरी तरह से हारीं। कांग्रेस के टिकट पर 2019 में जीतीं परनीत कौर इस बार तीसरे स्थान पर रहीं। कांग्रेस के धर्मवीर गांधी इस सीट से जीते और अकाली दल का उम्मीदवार दूसरे स्थान पर रहा। पूरे चुनाव प्रचार में कैप्टन नहीं निकले। उनकी सेहत खराब है। उनकी दूसरी समस्या यह है कि जाट सिख नेता के तौर पर भाजपा ने पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के पोते रवनीत सिंह बिट्टू को आगे बढ़ा दिया है। लोकसभा का चुनाव हारने के बाद भी उनको केंद्र सरकार में मंत्री बनाया गया है। तभी सवाल है कि कैप्टेन अमरिंदर सिंह का परिवार अब क्या करेगा? इस बात की चर्चा शुरू हो गई है कि परनीत कौर और बेटे रणइंदर की फिर से कांग्रेस में वापसी हो सकती है। हालांकि यह बहुत आसान नहीं है। लेकिन दोनों परिवारों का इतना पुराना संबंध है कि कोई कुछ नहीं कह सकता है। उनके साथ ही भाजपा में गए सुनील जाखड़ के लिए भी आगे मुश्किलें हैं।
तमिलनाडु में सक्रिय होंगी शशिकला
जयललिता की सबसे करीबी सहयोगी रही वीके शशिकला एक बार फिर राजनीति में सक्रिय होने की तैयारी कर रही है। आय से अधिक संपत्ति के मामले में जेल से रिहा होने के बाद उन्होंने थोड़े दिन तक राजनीति करने का प्रयास किया था लेकिन जल्दी ही उन्हें लग गया कि वे तमिल राजनीति में अप्रासंगिक हो गई हैं। परंतु लोकसभा चुनाव में अन्ना डीएमके के लगातार दूसरी बार बुरी तरह से हारने के बाद उन्हें लग रहा है कि राज्य की राजनीति में उनकी भूमिका बन सकती है। गौरतलब है कि एक समय वे अन्ना डीएमके में जयललिता के बाद दूसरी सबसे शक्तिशाली हस्ती थीं। लेकिन अब पार्टी पर पूर्व मुख्यमंत्री ई. पलानीस्वामी का कब्जा है। उनकी बराबरी की हैसियत वाले पूर्व मुख्यमंत्री ओ. पनीरसेल्वम राजनीति में हाशिए पर है। एक तरह से प्रदेश की राजनीति पर डीएमके का कब्जा हो गया है और भाजपा भी अपने पैर जमाने की कोशिश में है। इसीलिए शशिकला ने फिर सक्रिय होने का फैसला किया है। उन्होंने अपने समर्थकों से कहा कि 2026 के विधानसभा चुनाव में अम्मा राज लाना है और इसके लिए वे अन्ना डीएमके को कंट्रोल करने का प्रयास कर सकती हैं। अगर वे ऐसा करती हैं तो राज्य की राजनीति बहुत दिलचस्प हो जाएगी। गौरतलब है कि भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष के. अन्नामलाई ने जयललिता की राजनीति की तुलना हिंदुत्ववादी राजनीति से की थी, जिससे अन्ना डीएमके नेता नाराज हुए थे। यह देखना दिलचस्प होगा कि शशिकला इस लाइन पर आगे बढ़ती हैं या पारंपरिक द्रविड राजनीति के रास्ते पर चलती हैं।
मराठा बनाम ओबीसी आरक्षण विवाद तेज़ हुआ
महाराष्ट्र में विधानसभा का चुनाव नजदीक आ गया है। सितंबर में चुनाव की घोषणा हो सकती है। उससे पहले राज्य में मराठा बनाम ओबीसी आरक्षण का आंदोलन तेज हो गया है। अन्य पिछड़ी जाति यानी ओबीसी समाज के दो सामाजिक कार्यकर्ता, मनोज हाके और नवनाथ वाघमारे धरने पर बैठे थे और 10 दिन की भूख हड़ताल के बाद सरकार के भरोसा दिलाने पर उन्होंने धरना खत्म किया है। दूसरी ओर मराठा आरक्षण के लिए कई बार आंदोलन कर चुके मनोज जरांगे पाटिल ने भी फिर आंदोलन करने की चेतावनी दी है। एक तरफ मनोज जरांगे पाटिल का आंदोलन इस बात के लिए है कि मराठाओं को ओबीसी का दर्जा दिया जाए। उनको कुनबी में शामिल करके ओबीसी कोटे में आरक्षण दिया जाए। महाराष्ट्र सरकार ने उनके पिछले आंदोलन के समय कुनबी प्रमाणपत्र देने का समझौता कर लिया था। इसके खिलाफ ही ओबीसी का आंदोलन शुरू हुआ। पहले तो राज्य सरकार के मंत्री और अजित पवार गुट के नेता छगन भुजबल ने ही आंदोलन कराया लेकिन बाद में मनोज हाके और नवनाथ वाघमारे ने अनशन शुरू कर दिया। उनका कहना है कि मराठाओं को ओबीसी कोटे से आरक्षण देने पर बड़ा आंदोलन होगा। चुनाव से पहले इस तरह का विवाद भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियों के लिए मुश्किल पैदा करने वाला है। लोकसभा चुनाव में भी इसका असर दिखा और विधानसभा चुनाव में यह मुद्दा असरदार होगा। ज्यादा दिलचस्प यह है कि दोनों आंदोलनों के बीच भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियों के नेताओं का ही हाथ बताया जा रहा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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