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स्त्री, प्रेम और कविता : मुक्ति कभी अकेले की नहीं होती

स्त्री की यौन स्वतंत्रता एक बड़ा महत्वपूर्ण सवाल है। लेकिन सिर्फ़ इसी सवाल को मुख्य सवाल मानना बाक़ी सवालों को गौण समझना, एक व्यर्थ की चालाकी के साथ बेइमानी भी है क्योंकि मुक्ति कभी अकेले की नहीं होती।
women freedom
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : गूगल

ये आँखें हैं तुम्हारी / तकलीफ़ का उमड़ता हुआ समुन्दर / इस दुनिया को

जितनी जल्दी हो बदल देना चाहिये

ये गोरख की कविता की पंक्तियां हैं। किसकी आंखें हैं ये, आखिर किसकी पीड़ा भरी आँखों को देखकर गोरख दुनिया को जल्दी से बदल देना चाहते हैं।

किसकी आँखें थीं जिसके लिए कवि के मन में सौंदर्य के प्रतिमान गढ़ने की इच्छा नहीं उठी जल्दी से जल्दी दुनिया बदल देने की छटपटाहट उठी है, जाहिर सी बात है दुःख और पीड़ा से भरी आँखों की बात है जो एक न्यायप्रिय संवेदनशील मन के लिए यातना होती हैं एक लोकतांत्रिक समावेशी समाज के लिए यातना होनी चाहिये।

अब बात आती है कि समाज में ऐसी आंखें किसकी हैं जाहिर सी बात है जो हाशिये पर हैं,सदियां जिनके शोषण की गवाह हैं। उनके पास जीवन के गीत हैं, पीड़ा के किस्से हैं दुःख-सुख के,कजरी,उठान,चैईता,सोहर,निर्गुन है पर कोई ठोस इतिहास नहीं है। दुःख की यही बिरादरी अपने दुःख को दर्ज करना चाहती है। अन्याय और असमानता के चलन को कहना चाहती है और दुःख ,अन्याय को कहते रहना प्रतिरोध ही है।

अब तक सबसे ज्यादा चुप रहे लोग जब बोलेंगे तो जरूरी नहीं कि वो आदर्श फ्रेम में बंधे ही रहेगें। परम्परा और चलन के एक बने बनाये ढाँचे में तोड़फोड़ होगी और तरह-तरह से जोड़ भी लगेगा तो वहाँ दरारें और जोड़तोड़ का खड़बिधपन भी होगा। इससे घबराकर उनके कहने पर वहाँ सरोकारों पर प्रश्नचिह्न तो हो सकता है लेकिन एकदम खारिज करना जल्दबाजी होगी।

सारी अस्मिताएँ अपने-अपने मुक्ति के नारों के साथ खड़े होने पर भी कहीं न कहीं एक ही आवाज में बोल उठते हैं। और वे सम्मिलित आवाजें मुक्ति की अनुगूँज आवाज होती हैं। अब इसकी दिशा और आंदोलन की जमीन पर अलग से बहस हो सकती है क्योंकि लड़ाई में प्रमुखता का प्रश्न आयेगा जरूरत और भूख व दमन का प्रश्न सबसे पहले आयेगा पर इनसब जरूरी प्रश्नों के साथ स्त्री यौनिकता या अधिकार का प्रश्न साथ खड़ा रहेगा क्योंकि कोई भी मुक्ति की लड़ाई अलग से नहीं लड़ी जायेगी। मनुष्य के प्रतिरोध करने के विभिन्न स्वरूप और क्रियाएं होती हैं और बहुत कुछ मनुष्य की संरचना और परिस्थितियों पर निर्भर होती है गाँवों में स्त्रियां अपने दुःखों को कह -कह रोतीं थीं और वो उनका रोना एक बेहद करुण लय में होता है।

क्या भारत जैसे देश में जहाँ स्त्रियों की यौन-स्वतंत्रता पर लगातार प्रश्नचिह्न बने हुए हैं, जहाँ समाज में स्त्रियों के प्रेम चुनने पर उनकी हत्या हो जाती है ,जिस समाज में आज भी स्त्री के विवाहेत्तर सम्बन्धों में सजा के रूप में स्त्री के जननांगों को दाग दिया जाता है, जहाँ स्कूल जाती बच्चियों की छाती पर हाथ मारा जाता है, जिस समाज में आज भी प्रेम को लेकर खाप पंचायतें जिंदा हैं, क्या वहाँ स्त्री का प्रेम कविता लिखना या यौन स्वतंत्रता के अधिकार पर कविता लिखना महज मनसायन है। अगर हम उस शासित करने की संस्कृति के भीतर झाँककर देखें तो सामन्ती व्यवस्था की सारी कड़ियाँ एकदूसरे से जुड़ी हुईं हैं जैसे अगर कोई स्त्रीद्वेषी है तो निश्चित ही कहीं न कहीं वो जातिवादी भी होगा या जो रंगभेदी है तो कहीं न कहीं नस्लभेदी भी होगा। तो इस श्रृंखला के लिहाज से प्रतिरोध की भी अपनी एक श्रृंखला होती ही है क्योंकि जब बने-बनाये पूर्वाग्रह, मिथक आदि टूटते हैं तो एक एक करके लगभग सब ही टूट जाते हैं क्योंकि मुक्ति का रास्ता ही और कई सारी मुक्तियों की पगडंडियों से गुजरते हुए जाता है ।

प्रेम समाज की बनायी हुई बहुत सी धारणाओं और वर्जनाओं को स्वतः ही तोड़ देता है और ये कोई महज वैचारिक रूप से कही गयी बात नही है उसी समाज में रोज इसके उदाहरण रोज दिख रहे हैं।

स्त्री की यौन स्वतंत्रता एक बड़ा महत्वपूर्ण सवाल है। पितृसत्तात्मक समाज के ढाँचे को सबसे ज्यादा खतरा वही से रहता है और उनकी जातिवादी व्यवस्था वहाँ से टूटती है और यह भी सच है इस सवाल को ठेल कर पीछे भी किया गया क्योंकि यहां से एक चिरसत्ता के कई सारे विशेषाधिकार तुरंत टूट जाते हैं लेकिन सिर्फ इसी सवाल को मुख्य सवाल मानना बाकी सवालों को गौण समझना, एक व्यर्थ की चालाकी के साथ बेइमानी भी है क्योंकि मुक्ति कभी अकेले की नहीं होती।

मैं अपने आसपास गाँव की सुविधा सम्पन्न घर की स्त्रियों को देखती हूँ वे अपनी आजादी की तो बात करती हैं कि उनको घर में अधिकार घूमने, टहलने, कपड़े पहनने या जीवन साथी चुनने की आजादी मिले लेकिन जातिगत भेदभाव आदि के लिए न्याय की बात पर गोलमाल बातें करती हैं या उसको प्रकृति जन्य आदि बताकर पल्ला झाड़ना चाहती हैं अपने सामाजिक प्रिविलेज को किसी भी तरह छोड़ना नहीं चाहतीं। ये स्थिति किसी भी मुक्ति की लड़ाई के साथ बेइमानी करना है और यथास्थितिवाद को कायम करना है।

अगर सामाजिक परिवेश के दायरे में देखा जाये तो प्रेम एक तरह का बहुत बड़ा बदलाव करता है। अब प्रेम कविता कितना बदलाव करती है ये अलग सवाल है जिसमें बाजार के दखल का सवाल भी जुड़ा है। अब जब समय बहुत हद तक बाजार के कब्जे में है तो बाजार से काटकर चीजें देखना गलत आकलन हो सकता है। लेकिन प्रेम और राजनीति के ही विषय पर थोड़ा और आगे जाने पर देखेगें कि दोनों परस्पर विरोधी बातें नहीं हैं। एक मनुष्य की संवेदना के वृहत्तर आयाम होते हैं । कोई सामाजिक मुद्दा हर किसी के लिए उतना ही जरूरी हो ये उसकी संवेदना के चयन पर निर्भर करता है लेकिन जो भी है प्रतिरोध की एक श्रृंखला का वो हिस्सा है जो एक बड़ा प्रश्न है प्रतिरोध का वो उसके साथ अपने हिस्से के साथ खड़ा है अगर उस बड़े समाजिक सरोकार के साथ उसके सवाल छूट रहे हैं तो वो जगह उसकी कैसे हो सकती है। एक समावेशी परिवेश समाज के सारे सरोकारों को जगह और न्याय मिलता है। यौनिकता का सवाल बराबरी के सवाल का ही हिस्सा है। यह नजरिये की बात है कि स्त्री की यौनिकता के सवाल को ही मूल सवाल मान लिया जाय और बाकी को दरकिनार कर दिया जाय या फिर इसे मर्दवादी नजरिये से देखकर इसे स्त्रियों का विचलन कहा जाय, यह दोनों प्रवृतियां कई बार दिखायी देती हैं।

गोरख पांडेय की ही एक कविता है जो कि लोकगीत पर आधारित है जिसमें बताया गया है कि कैसे विवाह नाम की सामाजिक संस्था को प्रेम धता बता देता है चयन की स्वतंत्रता का अधिकार स्त्री स्वयं ले लेती है और विद्रोह की ये ताकत उसे प्रेम देती है।

माँ, मैं जोगी के साथ जाऊँगी


जोगी शिरीष तले

मुझे मिला


सिर्फ एक बाँसुरी थी उसके हाथ में

आँखों में आकाश का सपना

पैरों में धूल और घाव


गाँव-गाँव वन-वन

भटकता है जोगी

जैसे ढूँढ रहा हो खोया हुआ प्यार

भूली-बिसरी सुधियों और

नामों को बाँसुरी पर टेरता


जोगी देखते ही भा गया मुझे

माँ, मैं जोगी के साथ जाऊँगी


नहीं उसका कोई ठौर ठिकाना

नहीं जात-पाँत

दर्द का एक राग

गाँवों और जंगलों को

गुंजाता भटकता है जोगी

कौन-सा दर्द है उसे माँ

क्या धरती पर उसे

कभी प्यार नहीं मिला?

माँ, मैं जोगी के साथ जाऊँगी

सात सुरों में पुकार रहा है प्यार

भला मैं कैसे

मना कर सकती हूँ उसे ?

दुनिया में मुक्ति की जो भी लड़ाई हुई है स्त्रियों की हमेशा उसमें महत्वपूर्ण भागीदारी रही है। देश में तमाम आंदोलन हुए और उन आंदोलनों में महिलाओं की मुख्य भूमिका रही, चाहे तेभागा आंदोलन हो, तेलंगाना आंदोलन हो,चिपको आंदोलन हो या मिलों की हड़ताल रही हो या फैक्ट्रियों में छंटनी के लिए आंदोलन या फिर शराबबंदी आंदोलन रहा हो या उत्तराखंड जैसे राज्यों के निर्माण का आंदोलन या आदिवासियों का आंदोलन हो- जो जल जंगल जमीन की लड़ाई लड़ रहे हैं या किसानों का आंदोलन रहा हो ...लेकिन उसको महिलाओं की आवाज या महिलाओं का मुद्दा है, इस रूप में नहीं देखा जाता हैं जबकि इन आन्दोलनों से जुड़ी महिलाओं ने खुद को एक स्वतंत्रचेता मनुष्य के रूप में स्थापित किया और इस प्रक्रिया में उन्होंने अपनी यौनिकता की भी पहचान की।

किसी बने बनाये ढाँचे में अगर स्त्री या कोई भी हाशिये का समाज महज अपनी मुक्ति ढूंढेगा तो वो वहाँ सम्पूर्ण मुक्ति नहीं मिलेगी। श्रम की साँझीयरिंन स्त्रियां कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी रहती हैं अपने संघर्ष के साथी के साथ। श्रम और मुक्ति संघर्ष के साँझी लड़ाई की बात सोचते हुए मुझे फिर से गोरख का ही एक श्रमगीत याद आता है श्रम का सौंदर्य कैसा होता है और कला न्याय और समानता के लिए जब खड़ी होती है तो उसका सौंदर्य कैसा होता ये इस गीत में अंधेरे आकाश में चमकते तारे की तरह उजहा है। श्रम करते हुए जोड़े यहाँ मुक्ति की राह को ही अपना लक्ष्य बनाकर चले जा रहे हैं।

तूँ हवऽ श्रम के सुरुजवा हो, हम किरिनिया तोहार

तोहरा से भगली बन्हनवा के रतिया

हमरा से हरियर भइली धरतिया

तूँ हवऽ जग के परनवा हो, हम संसरिया तोहार

तोहरा से डगरेला जिनगी के पहिया

हमरा से बन-बन उपजेले रहिया

रचना के हवऽ तूँ बसूलवा हो, हम रुखनिया तोहार

तूँ हवऽ श्रम के सुरुजवा हो, हम किरिनिया तोहार।

हमरा के छोडि़के न जइहऽ बिदेसवा

तूँ हवऽ जूझे के पुकरवा हो, हम तुरहिया तोहार

तूँ हवऽ श्रम के सुरुजवा हो, हम किरिनिया तोहार।

चाहे जहाँ रहऽ जो न मथवा झुकइबऽ

हमरा के हरदम संगे-संगे पइबऽ

तूँ हवऽ मुकुति के धरवा हो, हम लहरिया तोहार

क्रांति की ही अगर मशाल थामने की बात है तो अकेले पुरुषों के थामने से कोई भी मशाल नहीं जली है। श्रम और संघर्ष करते समाज में प्रेम करते स्त्री-पुरुष साथ खड़े होकर उस संस्कृति के वाहक होते हैं। खेत जल जमीन जंगल के लिए लड़ते स्त्री पुरुष ही किसी सामाजिक बदलाव की नींव होते हैं साहित्य और कला एक स्तर तक अपना काम करते हैं। अगर वहाँ भी संघर्ष के लिए अपनी सुविधा, सहूलियत का चयन है जनपक्षधरता नहीं है तो उसका कोई अर्थ संघर्ष की राह में नहीं है।

भारत जैसे देश में एक लोकतांत्रिक समाज तब समावेशी बनता है जब वर्ग,जेंडर, जाति आदि की खाइयों को देखते हुए उनकी योग्यता या प्रतिक्रिया का आकलन करता है। स्त्री के लिए अपनी यौनिकता की पहचान जरूरी है, साथ ही साथ वैश्विक दृष्टि भी जिससे अपनी अस्मिता और अधिकार व कर्तव्य के लिए वो और मजबूती से खड़ी हो।

(लेखिका एक कवि और संस्कृतिकर्मी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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