ईरान में औरतों का विद्रोह: हमें मत बताओ क्या पहनें, कैसे पहनें
‘‘जहां भी दमन है वहां विद्रोह लाज़मी है’’ माओ-त्से-तुंग के इन शब्दों को चरितार्थ कर रही हैं ईरान की औरतें।"
आपको मालूम है कि वे क्यों अपने हिजाब उतार फेंक रही हैं, क्यों उन्हें जला रही हैं या अपने बालों को काटते हुए तस्वीरें सोशल मीडिया पर डाल रही हैं?
दरअसल साकेज़ निवासी 22 वर्षीय महसा अमीनी को ईरान की नैतिक पुलिस ने 13 सितम्बर को हिरासत में लिया था। महसा अपने परिवार के साथ तेहरान आई थी जब उसकी गिरफ्तारी हुई। कारण बताया गया था उसका ‘हिजाब को सही तरीके से नहीं पहनना’। हिरासत में लिए जाने के तीन दिनों के भीतर महसा की हिरासत में मौत हो गई।
It could’ve been me, It could’ve been you, It could’ve been any of us…#Mahsa_Amini #مهسا_امینی pic.twitter.com/C4NtXF487Z
— Amy 🇩🇪🇺🇸 (@ItsOOAmy) September 16, 2022
ईरान में किसी भी महिला के लिए, चाहे वह किसी भी धर्म को मानती हो, ईरानी हो या बाहरी, यहां तक कि यात्री भी हो, हिजाब पहनना और अपने सिर व गर्दन को ढककर रखना तथा हाथ-पांव ढंकने वाले ढीले कपड़े पहनना अनिवार्य बना दिया गया है।
ईरान में नैतिक पुलिस को गश्त-ए-इर्शाद के नाम से जाना जाता है और यह ईरान पुलिस की एक विशेषज्ञ इकाई है। महसा की मौत के बाद पुलिस कह रही है कि ‘‘उसे केवल मार्गदर्शन और शिक्षा के लिए ग्रेटर तेहरान पुलिस परिसर भेजा गया था, जहां उसे लोगों की उपस्थिति में दिल का दौरा पड़ा’’।
लेकिन महसा के परिवार का कुछ और ही कहना है-कि वह पूरी तरह से स्वस्थ थी और उसे दिल की कोई बीमारी नहीं थी।
Tehran, tonight#مهسا_امینی #Mahsa_Amini pic.twitter.com/6lOydYXsoU
— V4 Creator (@V4_creator) September 19, 2022
सरकार क्यों दबाना चाहती है पूरे मामले को?
सबसे बड़ी हैरानी की बात है कि बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार कासरा अस्पताल, जहां महसा अमीनी को ले जाया गया था, का बयान आया था कि जब महसा को अस्पताल लाया गया था, उसके शरीर में कोई हरकत नहीं थी। लेकिन बाद में इस बयान को अस्पताल के सोशल मीडिया अकाउंट से हटा लिया गया। इसके पीछे सरकार द्वारा ‘कवर अप’ का षडयंत्र साफ नज़र आता है।
ऐम्नेस्टी इंटरनेशनल सहित अन्य एजेंसियों ने भी पुलिस स्टेशन के सीसीटीवी फुटेज को संदिग्ध बताया है। प्रत्यक्षदर्शी पुलिस पर सीधे-सीधे आरोप भी लगा रहे हैं कि महसा के साथ पुलिस वैन में मार-पीट की गई थी, जिसके कारण वह कोमा में चली गई थी।
विरोध का तेवर देखते हुए पुलिस ने महसा की मौत को ‘दुर्भाग्यपूर्ण’ बताया है और एक संदिग्ध वीडियो फुटेज सार्वजनिक किया है जिसमें एक महिला पुलिस अफसर उसके कपड़े पकड़ी है और अमीनी खड़े-खड़े बेहोश होकर गिर रही है। नागरिक अधिकार संगठनों ने और अमीनी के परिवार ने वीडियो को ‘डॉक्टर किया हुआ’ (वह वीडियो जिससे छेड़छाड़ की गई हो) बताया है।
ईरान की नैतिक पुलिस किस हद तक पितृसत्तात्मक व कट्टरपंथी मूल्यों की रक्षा कर रही है हम देख सकते हैं। यही नहीं, यह जानकर कि गलत किया गया है, उसे छिपाने के लिए एड़ी-चोटी का दम भी लगाया जा रहा है।
उधर राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी ने विरोध को ठंडा करने के लिए गृह मंत्री से पूरे मामले की जांच करने का आदेश दिया है। पर सवाल तो यह है कि क्या एक ऐसी सरकार जो ईरान में दकियानूस व कट्टरपंथी तत्वों को खुश करना चाहती है, कैसे निष्पक्ष जांच करा सकेगी? आखिर यदि यह सत्य साबित हो जाता है कि हिरासत में उत्पीड़न के चलते महसा को अपने प्राण से हाथ धोने पड़े तो विद्रोह और भी तेज़ होगा और देश में भयानक उथल-पुथल का दौर शुरू हो सकता है। अयातुल्लाह खोमेनी के समय जो नारा प्रचलित हुआ था-‘डेथ टू द डिक्टेटर’ वही नारा पुनः साकेज़ से लेकर तेहरान में लग रहा है। कई जगहों पर पुलिस के साथ प्रदर्शनकारियों की भिड़ंत भी हुई है और दो लोग पुलिस फायरिंग में मारे गए हैं। पश्चिम अज़रबैजान में एक 10-वर्षीय बच्ची को सिर में गोली भी लगी है। क्या हमेशा के लिए हुकूमत आम लोगों की आकांक्षाओं को दफ़ना सकेगी?
औरतें लड़ रही हैं
Women in Iran burn their hijab as men cheer!#Mahsa_Amini
No to #hijab https://t.co/vD5McUSXf2— Nazila (@nazilagolestan) September 19, 2022
ईरान और बाहर भी इस घटना की कड़ी प्रतिक्रिया हुई है। महिलाएं हज़ारों की संख्या में मसहा के दाह संस्कार के दौरान नारे लगाती रहीं और विरोध जताती रहीं। वे तेहरान की सड़कों-चैराहों पर विरोध प्रदर्शन कर रही हैं। 17 सितम्बर को अमीनी के अंतिम संस्कार के बाद से उनका गुस्सा इस कदर फूट पड़ा है कि वे लगातार सोशल मीडिया में अपने बाल काटकर, हिजाब उतार फेंककर या जलाकर यह बताना चाहती हैं कि अब बहुत हो चुका और वे ईरान का क्रूर ड्रेस कोड हरगिज़ नहीं मानने को तैयार हैं; इसका भले ही कुछ भी अंजाम हो।
हम याद करें कि 2017 में एक बार महिला अधिकार ऐक्टिविस्टों के समर्थन से ईरानी महिलाओं ने सार्वजनिक स्थानों पर अपने हिजाब उतार फेंके थे। पर इसके बाद ही ईरान की दक्षिणपंथी सरकार ने देश के कट्टरपंथियों को संतुष्ट करने के लिए आन्दोलन को सख़्ती से दबा दिया था और ड्रेस कोड कानून को और भी सख़्त बना दिया था। पिछले कुछ समय से यह भी देखा जा रहा है कि न्यायपालिका महिलाओं आज़ादी की किसी भी प्रकार की अभिव्यक्ति के खिलाफ़ याचिका दाखिल करने के लिए तत्पर रहती है।
ऐसी स्थिति में औरतों के सामने अपने आक्रोश का सार्वजनिक इज़हार करने के अलावा कोई और चारा नहीं बचता-उनका संघर्ष जारी रहेगा। विश्व भर के महिला व मानवाधिकार संगठनों को इन औरतों के जायज विद्रोह का खुलकर समर्थन करना चाहिये।
मानवाधिकारों का हनन
2012 में भी एक पत्रकार सत्तर बेहेश्ती की हिरासत में मौत हो गई थी। उसने मरने से पूर्व एलिना जेल से एक औपचारिक पत्र भी लिखा था कि उसके साथ बदसलूकी हो रही थी। व्यापक विरोध के बाद दोषी पुलिसकर्मी को सज़ा सुनाई गई थी-जेल और कोड़े।
ईरान में समलैंगिक संबंध बनाना भी दंडनीय अपराध माना जाता है, जिसके लिए आजीवन कारावास से लेकर मृत्युदंड तक की सज़ा है। 2021 में दो एलजीबीटीक्यू ऐक्टिविस्टों को भी इसलिए मौत की सज़ा सुनाई गई थी कि वे धरती पर ‘भ्रष्टाचार फैला रहे थे’ यानी समलैंगिक संबंधों को सही ठहराते हुए इस समुदाय के अधिकारों के पक्ष में लगातार सोशल मीडिया में लिख रहे थे।
महसा अमीनी का मामला हो या गे ऐक्टिविस्ट सिद्दीकी को मौत की सज़ा सुनाने की बात, ईरान में लगातार मानवाधिकारों का हनन हो रहा है। जहां विश्व भर में आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए संघर्ष जारी हैं और काफी हद तक सफलता भी मिली है, ईरान पिछड़ेपन के दलदल में फंसा हुआ दिखाई पड़ता है।
दकियानूसी व पितृसत्तात्मक मूल्यों के चलते आधी आबादी की क्षमता और उत्पादकता को रौंदा जा रहा है। पश्चिमी मीडिया जब इन मामलों को उजागर करता है, इसे देश के ‘आंतरिक मामलों में दखलंदाज़ी’, ‘पश्चिमी अश्लील संस्कृति का प्रचार’ और ‘महिलाओं को बर्बाद करने’ की कोशिश कहा जाता है।
पितृसत्ता का बोलबाला
अफ़गानिस्तान में तालिबानी शासन ने 6 वर्ष से अधिक उम्र की लड़कियों की शिक्षा पर रोक लगाई है और महिलाओं को अकेले बाहर जाने की अनुमति नहीं दी है। उन्हें हमेशा अपने खून के रिश्ते में आने वाले पुरुष के साथ ही बाहर जाना पड़ता है और वह भी ज़रूरी हो तब। उनके आधुनिक पोशाक पहनने पर भी प्रतिबंध है। इसलिए वे बुर्के में ही रहती हैं। पर तुर्की में काफी परिवर्तन आ चुका है और लड़कियां पढ़ती हैं, महिलाएं नौकरी करती हैं और अपने मन-पसंद कपड़े भी पहनती हैं। सऊदी अरब में महिलाएं भी हिजाब पहनने के लिए बाध्य नहीं हैं जबकि ईरान में तो ‘हिजाब सप्ताह’ तक मनाया जाता है। इस समय महिलाओं को तरह-तरह की प्रचार सामग्री देकर ‘शिक्षित’ किया जाता है कि हिजाब न पहनने के क्या-क्या परिणाम हो सकते हैं। मस्लन एक वीडियो में दिखाया गया है कि बिना हिजाब की महिला को एक दुकानदार द्विअर्थी बातें करके छेड़ने का प्रयास कर रहा है और बुर्का वाली महिला के सामने सिर झुकाकर बात कर रहा है। हिजाब-विहीन महिला की नकली जेवर से और बुर्काधारी महिला की असली जेवर से तुलना की गई थी।
1979 में, खोमेनी के समय से ईरान में बसिज नाम की अर्धसैनिक स्वयंसेवी मिलिशिया की स्थापना की गई थी जो हिजाब, बुर्का और महिला नैतिकता व सम्मान जैसे विषयों पर काम करती रही है। हिजाब दिवस, हिजाब सप्ताह, हिजाब कांग्रेस जैसे कार्यक्रमों के आयोजन के साथ वे लगातार महिलाओं में लैंगिकता का विरोध करती रही हैं। अब उन्हें ईरान के सरकारी क्रान्तिकारी गार्ड्स में शामिल कर लिया गया है और वे ‘समाज को शुद्ध और नैतिक’ बनाए रखने व सामाजिक नियमों का पालन करने के लिए प्रेरित करते हैं। इसके लिये वे कई बार दमनात्मक कानून का इस्तेमाल भी करते हैं।
इस्लाम के अध्येता कहते हैं कि ‘‘कुरआन में हिजाब को अनिवार्य नहीं बनाया गया है, भले ही इसको धारण करने का सुझाव दिया गया हो। और, साथ-साथ पुरुषों को भी हिदायत दी गई है कि वे महिलाओं पर गलत नज़र न डालें। तो ‘हिजाब’ का अर्थ केवल एक कपड़ा नहीं है बल्कि समाज में शालीनता है। यह मर्दो को छूट नहीं देता कि वे समाज में गलत आचरण करें।’’ पर पितृसत्तात्मक समाज ने महिला की लैंगिकता पर ताला जड़ दिया है क्योंकि उन्हें मर्द की सम्पत्ति समझा जाता है। इसे चुनौती देने के लिए औरतों के भीतर जो जज़्बात पैदा हो गए हैं और आग जल रही है उसे कोई भी तानाशाह बुझा नहीं सकेगा। ईरानी औरतों का संघर्ष ज़िन्दाबाद!
(लेखिका महिला एक्टिविस्ट हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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