साल 2022 : इस बार भी विधानसभा चुनावों में दिखा आधी आबादी का आधा अधूरा प्रतिनिधित्व
राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाने के वादे और दावे तो सभी राजनीतिक दल खूब करते हैं लेकिन संसद और विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व देश में लैंगिक समानता की निराशाजनक तस्वीर ही पेश करता है। संसद में महिला आरक्षण बिल सालों से अटका है। लेकिन महिला सशक्तिकरण के बड़े-बड़े दावे करती ये मौजूदा सरकार की नाकामी ही है कि पूर्ण बहुमत होने के बावजूद वो अब तक इसे पास नहीं करवा पाई। आज भी देश के 19 राज्यों की विधानसभाओं में महिला विधायकों का प्रतिनिधित्व 10 प्रतिशत से भी कम है। ये जानकारी लोकसभा में खुद सरकार की ओर से विधि एवं न्याय मंत्री किरेन रिजीजू ने साझा की है। आइए एक नड़र डालते हैं इस साल हुए विधानसभा चुनाव में महिलाओं की स्थिति पर...
इस साल की शुरूआत में पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर, गोवा और पंजाब में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने चार राज्यों में बाजी मारी थी तो वहीं पंजाब में सभी पार्टियों पर झाड़ू फेर आम आदमी पार्टी सत्ता पर काबिज़ हुई थी। इन चुनावों में जहां महिला वोटरों को अहमियत समझते हुए कई राजनीतिक पार्टियों ने वायदे और नारे दिए। वहीं, ये भी देखा गया कि कई ऐसी महिला उम्मीदवार भी चुनीं गईं जो पहली बार चुनावी मैदान में थीं। इन पांच राज्यों में महिला उम्मीदवारों ने साल 2017 के मुक़ाबले बेहतर प्रदर्शन किया। हालांकि इसके बावजूद राजनीति में उनका बेहद कम प्रतिनिधित्व देखने को मिला।
उत्तर प्रदेश
देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की बात की जाए तो, यहां महिलाएं शुरू से राजनीति में सक्रिय रही हैं बावजूद इसके 403 सीटों वाली विधानसभा में केवल 47 महिलाओं का जीतकर आना बड़ी उपलब्धि नहीं मानी जा सकती। हालांकि ये इस प्रदेश के इतिहास में अबतक का सबसे बड़ा नबंर जरूर है। यहां कुल 560 महिला उम्मीदवार मैदान में थीं, जो कि कुल 4,442 प्रत्याशियों का लगभग 12 प्रतिशत है।
इस बार के चुनाव में बीजेपी ने सत्ता फिर से हासिल की थी, तो वहीं सबसे ज्यादा बीजेपी की 29 महिला प्रत्याशियों को जीत भी मिली थी। समाजवादी पार्टी की 14 महिला प्रत्याशी विधायक चुनी गईं। तो वहीं कांग्रेस ने इस बार सबसे ज्यादा महिलाओं को टिकट दिया था, लेकिन सिर्फ एक सीट पर ही जीत मिली है। इसके अलावा अपना दल (सोनेलाल) की तीन महिला प्रत्याशी विधायक चुनी गईं। यहां 2017 के 42 महिलाओं ने जीत हासिल की थी, बाद में अलग-अलग क्षेत्रों के लिए हुए उप-चुनाव में तीन अन्य महिलाओं ने भी जीत हासिल की थी। इस तरह से कुल संख्या पिछली विधानसभा में 44 महिला सदस्यों की थी।
पंजाब
पंजाब में इस साल हुए विधानसभा चुनावों में लोगों ने पारंपरिक राजनीतिक पार्टियों को छोड़ आम आदमी पार्टी पर भरोसा दिखाया। हालांकि यहां भी महिलाओं की समुचित भागीदारी ही देखी गई। महिलाओं के प्रतिनिधित्व का रिकाॅर्ड पिछली बार से बेहतर तो हुआ है, लेकिन फिर भी इसे बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता। 117 सदस्यों वाली पंजाब विधानसभा में इस बार 13 महिलाएं चुनकर आई हैं। इनमें से 11 आम आदमी पार्टी से हैं। बीते 2017 के चुनाव में ये संख्या केवल 6 थी।
पंजाब का इतिहास देखें तो यहां 1951 से 2017 तक कुल 1799 पुरुष विधायक बनें तो केवल 89 महिलाएं ही विधानसभा पहुंचीं। यहां राजनीतिक पार्टियां महिलाओं के वोट की अहमियत बखूबी जानती हैं लेकिन उन्हें प्रतिनिधित्व देने की बात पर पीछे हट जाती हैं। इस बार कुल 1304 प्रताशियों में से केवल 93 महिला उम्मीदवारों को ही टिकट दिया गया, जो कि लगभग 7 प्रतिशत है। यानी यहां भी महिलाओं को राजनीति में बराबरी की पहुंच बनाने के लिए लंबा संघर्ष करना है।
उत्तराखंड
उत्तराखंड का गठन साल 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग होकर पहाड़ी और मैदानी राज्य के रूप में हुआ था। इस बार यहां बीजेपी ने दोबारा सत्ता में वापसी की। कुल 70 सीटों पर हुए विधानसभा चुनाव में आठ महिलाओं ने बाज़ी मारी, बावजूद इसके ये आंकड़ा बमुश्किल 10 प्रतिशत है। पिछले चुनाव साल 2017 में यहां से पांच महिलाएं जीत कर आईं थीं। ये अचंभा है कि आज तक उत्तराखंड विधानसभा में महिला विधायकों की संख्या दोहरे अंक में नहीं गई है।
यहां के सामाजिक ढांचे पर नज़र डालें तो राज्य में महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करती हैं। यहां पुरुषों का पलायन आम बात हैं, वहीं ज्यादातर महिलाएं घर संभालने, सामाजिक ज़िम्मेदारियों के साथ-साथ आर्थिक ज़िम्मेदारियां भी निभाती हैं। बावजूद इसके राजनीतिक पार्टियां उनमें जीत का फैक्टर या जीतने की क्षमता को नहीं देखती।
गोवा
भारत की सबसे छोटी विधानसभा गोवा है, जिसमें केवल 40 सीटें हैं। इस बार विधानसभा चुनाव में बीजेपी 20 विधायकों के साथ यहां सबसे बड़ी पार्टी बनी। हालांकि राज्य की तरह ही महिलाओं की भागीदारी भी यहां छोटी ही नज़र आती है। 1972 और 1980 में ऐसा भी हुआ, जब विधानसभा में एक भी महिला विधायक नहीं थीं। साल 1994 में सबसे ज़्यादा चार महिलाएं जीत कर आईं थीं और इस आंकड़े को बदल नहीं पाई हैं। गोवा में महिलाओं की उम्मीदवारी को लेकर अक्सर पार्टियों बेरुखी ही दिखाती नज़र आती हैं। जबकि विधानसभा चुनाव में महिला मतदाताओं की संख्या पुरुष मतदाताओं से अधिक है। वैसे भी गोवा का समाज एक उदारवादी समाज के तौर पर जाना जाता है। यहां औरतें जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं फिर चाहे वो राजनीति ही क्यों ना हो। लेकिन राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मामले में उन्हें तरजीह नहीं दी जाती है।
इस बार के चुनावों की बात करें, तो मैदान में 300 उम्मीदवारों में से केवल 26 महिलाओं को टिकट दिए गए थे। दिलचस्प बात ये रही कि जो तीन महिलाएं चुनाव जीत कर आईं हैं उनके पति भी इस बार चुनावी मैदान में थे और उन्होंने भी जीत हासिल की है यानि तीन जोड़ों ने चुनाव जीता है। बीते चुनाव साल 2017 में यहां दो महिलाएं जीत कर आईं थीं। इससे पहले गोवा में ज्यादातर 1 या 2 महिला विधायक ही चुनी जाती रही हैं।
मणिपुर
पूर्वोतर राज्य मणिपुर के समाज को मातृसत्तात्मक समाज कहा जाता है। महिला मतदाताओं की संख्या पुरुषों के मुक़ाबले अधिक है। लेकिन राजनीति में अगर आधी आबादी की भागीदारी की बात की जाए तो उसका सूरते हाल अन्य राज्यों से अलग नहीं दिखता। इस बार चुनावी मैदान में कुल 265 दावेदारों में से विभिन्न दलों की 17 महिला उम्मीदवार थीं, जो की 6.42 प्रतिशत है।
इनमें कांग्रेस से चार, सत्तारूढ़ बीजेपी और एनपीपी के तीन-तीन, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के दो, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, जनता दल-यूनाइटेड और एक स्थानीय पार्टी के एक-एक और दो स्वतंत्र उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा। जिसमें केवल पांच ही विधानसभा पहुंचने में सफल रहीं। हालांकि यह पिछली बार की तुलना में बेहतर है जब 2017 में केवल दो महिलाओं ने चुनाव जीता था।
इसी तरह साल के आखिर में हुए गुजरात और हिमाचल के चुनावों की बात करें तो गुजरात में जहां बीजेपी का सातवीं बार कमल खिला तो, वहीं हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस के पंजे ने जीत दर्ज कर बीजेपी को पीछे धकेल दिया। हालांकि इन चुनावों में भी महिला उम्मीवारों की संख्या कम ही रही लेकिन उससे भी कम विधानसभा में कदम रखने वाली महिलाओं की रही।
हिमाचल प्रदेश
हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव की बात करें, तो इस बार यहां 68 विधानसभा सीटों के लिए कुल 412 प्रत्याशी चुनावी मैदान में थे, जिसमें केवल 24 महिला उम्मीदवारों को हा टिकट मिला, यानी लगभग 5 प्रतिशत। इस चुनाव में बीजेपी ने छह, आप ने पांच और कांग्रेस ने तीन महिलाओं को मैदान में उतारा था। इन सभी महिला उम्मीदवारों में से केवल बीजेपी की सिरमौर के पच्छाद से प्रत्याशी रीना कश्यप ही चुनाव जीत सकीं। हालांकि ये विडंबना ही है कि इस बार हिमाचल विधानसभा में 67 पुरुष विधायकों के साथ सिर्फ एक महिला विधायक होंगी। जबकि राज्य के कुल मतदाताओं में आधी संख्या महिलाओं की है।
बीते चुनाव साल 2017 को देखें तो यहां से विधानसभा चुनाव में चार महिलाएं जीतने में सफल हुईं थीं और पांचवी महिला विधायक साल 2019 में हुए उपचुनाव में जीत कर आई थीं। पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश के 40 सालों इतिहास में सिर्फ 42 महिलाएं ही विधानसभा की चौखट को लांघ सकी हैं, जबकि हिमाचल में पुरुषों की तुलना में महिलाएं हर बार 3 से 4% ज्यादा मतदान करती हैं।
गुजरात
गुजरात के इस बार विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने कुल 182 सीटों में से 156 सीटें जीतकर प्रचंड बहुमत हासिल किया। यहां कांग्रेस 17 पर तो आम आदमी पार्टी 5 सीटों पर सिमट गई। इन सबके बीच गुजरात विधानसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व तो बढ़ा, लेकिन उनका सक्सेस रेट कम हो गया। यानी सरल भाषा में समझें तो पिछले विधानसभा चुनावों में महिलाओं की सफलता दर इसलिए अधिक रही, क्योंकि बीजेपी और कांग्रेस के कुल 22 उम्मीदवारों में से 59 प्रतिशत यानी 13 उम्मीदवारों ने 2017 में जीत हासिल की थी।
वहीं इस बार के चुनाव में अलग- अलग पार्टियों ने कुल 40 महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था, लेकिन सिर्फ 15 महिला उम्मीदवार ही सदन में जगह बना पाईं। जहां बीजेपी की 17 में से 14 महिलाओं ने जीत हासिल की है। वहीं वाव सीट से कांग्रेस की उम्मीदवार गेनीबेन ठाकुर जीतने में सफल रहीं। कांग्रेस ने इन चुनाव में 14 महिलाओं को टिकट दी थी। सात उम्मीदवारों को मैदान में उतारने वाली आप की एक भी महिला उम्मीदवार और एआईएमआईएम के दो उम्मीदवारों में से कोई भी सदन में नहीं पहुंच सका।
गौरतलब है कि जब राजनीति में महिला प्रतिनिधित्व की बात करते हैं तो ये सिर्फ़ उन महिलाओं कि बात नहीं हो सकती जो चुनावों में किसी पार्टी के नेता के रूप में सामने आती हैं, बल्कि ये बात होती है उन सभी महिलाओं की जो इस देश की आबादी का हिस्सा हैं। राजनीति में एक लंबे समय से पुरुषों की भूमिका ही अहम मानी जाती रही है। लेकिन औरतों ने जब राजनीति में दस्तक दी तो वे और मुखर और सशक्त होकर सामने आईं। और इसलिए महिला आरक्षण बिल ऐसे समय में इन्हें और बढ़ावा देने के लिए जरूरी हो जाता है।
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