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बलिया : भाजपा नेता की आत्महत्या व्यक्तिगत नहीं, बल्कि व्यापक आर्थिक संकट का उदाहरण है

लगता है मोदी सरकार की नीतियों में ख़ामी का नतीजा अब बीजेपी के कार्यकर्ता भी भुगतने लगे हैं, दरअसल बलिया में एक भाजपा नेता ने आर्थिक तंगी के कारण खुदकुशी कर ली है।
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साल 1971 था, जब कांग्रेस पार्टी ने एक नारा दिया ‘’वो कहते हैं इंदिरा हटाओ, हम कहते हैं ग़रीबी हटाओ’’। इंदिरा गांधी की जीत के लिए सभी राजनीतिक विश्लेषकों ने इसे एक सुर में स्वीकार कर लिया।

आंकडों के लिहाज़ से देखें तो उस दौर में भारत की ग़रीबी दर करीब 57 फीसदी थी, आगे चलकर इंदिरा गांधी ने इसी नारे को अपने कई कार्यक्रमों का हिस्सा बनाया, लेकिन आज करीब 51 साल बाद भी गरीबी तो नहीं हटी, बल्कि देश का सबसे बड़ा सियासी सूबा सबसे ग़रीब तीन राज्यों में शामिल ज़रूर हो गया है।

पिछले दिनों जारी एक आंकड़े में सबसे ग़रीब राज्य बिहार है, दूसरे नंबर पर झारखंड है और तीसरे नंबर पर उत्तर प्रदेश। बावजूद इसके आज भी जब चुनाव होते हैं, तो इन परेशानियों से निपटने का पैमाना हिंदू और मुसलमान की राजनीति तक ही समेट दिया जाता है। और कभी बात बढ़ती जनसंख्या पर लाकर खत्म कर दी जाती है, तो कभी पुरानी राजनीतिक पार्टियों की गलत नीतियों को दोषी ठहरा दिया जाता है।

लेकिन सही मायने में ये राजनेताओं की राजनीति के सधे हुए पैंतरे हैं, जिसमें जनता फिलहाल बुरी तरह से उलझ चुकी है। एक और बात ये कि अब सिर्फ मामला ग़रीबी हटाने तक नहीं रह गया, अब बेरोज़गारी, स्वास्थ्य समस्याएं, किसानों का दमन, लचर शिक्षा व्यवस्था और महंगाई भी आम आदमी के सुख को निगल जाने के लिए तैयार है। विडंबना ये है कि मौजूदा राजनीतिक दल इसका हल निकालने की बजाय कभी मस्ज़िदों में मूर्तियां ढूंढने लगते हैं, तो कभी कहने लगते हैं कि कांग्रेस न होती तो ये होता। तो कभी सिर्फ तोड़ने की छवि रखने वाले बुलडोज़र को हथियार बनाकर एक वर्ग को निशाने पर ले लिया जाता है। या एक लब्ज़ में यूं कह लीजिए कि मौजूद वक्त आघोषित आपातकाल के दौर से गुज़र रहा है।

कितना भी छिपाया जाए, रिपोर्ट्स तो सच्चाई बयां कर ही देती हैं, लेकिन सत्ताधारी दलों और उनके तमाम बुद्धिजीवियों का जो एक गिरोह जनता की हालत पर पर्दा डालने के लिए तैयार हो चुका है। वो बहुत तेज़ी से सक्रिय हो रहा है।

हालांकि राजनीतिक दलों और उनके बुद्धिजीवियों दमनकारी नीति कभी-कभी ख़ुद के लिए भी आईना साबित हो जाती है। जिसका एक उदाहरण उत्तर प्रदेश के देवरिया ज़िले में देखने को मिला।

दरअसल देवरिया के रहने वाले भाजपा के बूथ अध्यक्ष श्रीराम गौड़ ने एक पेड़ से लटकर ख़ुदकुशी कर ली। जब पुलिस ने श्रीराम गौड़ के शव को नीचे उतारा तब उनकी जेब से एक चिट्ठी मिली जिसमें भाजपा की ग़लत नीतियों का पर्दाफाश होता देखा गया। दरअसल गौड़ ने चिट्ठी में लिखा था कि वो आर्थिक तंगी के कारण खुदकुशी करने को मजबूर हैं।

बताया जा रहा है कि भाजपा के बूथ अध्यक्ष श्री राम गौड़ के पॉकेट से सुसाइड नोट भी मिला है, जिसमें लिखा है कि उनके घर कोई और कमाने वाला नहीं है। अधिक कर्जा होने की वजह से जिंदगी तनाव में है। पुलिस सुसाइड नोट को कब्जे में लेकर जांच कर रही है।

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार श्रीराम गौड़ जीविका चलाने के लिए एलआईसी सहित अन्य कंपनियों में एजेंट का काम करते थे। कुछ चिटफंड कंपनियों के भाग जाने से जमाकर्ता अपने पैसे मांग रहे थे, जिसे चुकाने के लिए श्रीराम गौड़ ने लगभग 14 कट्ठा खेत भी बेच दिया था और अब तनाव में आकर फांसी लगा ली।

भाजपा के बूथ अध्यक्ष श्रीराम गौड़ की ख़ुदकुशी कोई मामूली बात इसलिए नहीं है, क्योंकि वो ख़ुद सत्ताधारी पार्टी के लिए एक पद पर थे। आप ख़ुद स्मरण करिए अगर श्रीराम गौड़ ही आर्थिक तंगी से जूझ रहे थे तो फिर वो अपने बूथ के लिए क्या प्रचार करते होंगे। सोचिए कि श्रीराम गौड़ क्या कारण बताते होंगे कि उनकी पार्टी को वोट दिया जाए। ज़ाहिर है, नौकरी और ग़रीबी मिटाने की बात तो नहीं ही करते होंगे।

एक सवाल ये भी उठता है कि भाजपा जैसे राजनीतिक दल ने किसी ज़िले के एक छोटे से गांव में घुसकर बूथ अध्यक्ष तो ढूंढ निकाला लेकिन उसके परिवार और उस गांव या उस ज़िले की आर्थिक स्थिति को नहीं देख पाए।

ये कहना भी गलत नहीं होगा कि भाजपा अपने किए हुए वादों को पूरा ज़रूर कर रही है। लेकिन सिर्फ कुछ पूंजीपतियों और ख़ुद के विस्तार के लिए।

हो सकता है कि आने वाले दिनों में भाजपा का कोई बड़ा नेता श्रीराम गौड़ के परिवार को सांत्वना देना पहुंचे और अनके परिवार को आर्थिक सहायता के ज़रिए मदद भी करे। लेकिन विचार करने वाली बात ये ही श्रीराम गौड़ के जैसे ही कितने भाजपा के कार्यकर्ता होंगे जो पार्टी के बहकावे में आकर उसके लिए झूठा प्रचार करने को मजबूर होंगे। जबकि वो ख़ुद परिवार का पेट पालने के लिए सरकार की नीतियों का शिकार हो रहे होंगे।

अकसर लोग समझते हैं कि ग़रीब होने का मतलब है लोगों के पास पैसा नहीं होना होता है, लेकिन नीति आयोग की 'ग़रीबी सूचकांक' पर पिछले दिनों आई रिपोर्ट प्रति व्यक्ति आय या फिर ग़रीबी रेखा से कितने लोग ऊपर हैं या कितने नीचे-इस आधार पर नहीं है।

दरअसल ग़रीबी का सही आकलन इसी बात से लगाया जा सकता है कि अच्छा जीवन जीने के लिए आपके पास सारी सुविधाएं है या नहीं। कुछ चीज़े ऐसी होती हैं जो आप पैसे से ख़रीद सकते हैं, कुछ चीज़ें है जो पैसे से नहीं ख़रीद सकते हैं।

इसके अलावा कुछ चीजें ऐसी भी हैं कि पैसा होने के बाद भी आप ख़ुद बेहतर नहीं कर सकते। जैसे पीने का साफ़ पानी। सरकार जब तक आपके इलाके में इसकी सुविधा मुहैया ना करा पाएआपके लिए आसान सुविधापूर्ण जीवन जीना मुश्किल हो सकता है।

जैसे इलाके में स्कूल नहीं है तो आप कहां पढ़ने जाओगे, आपके इलाके में अस्पताल ना हो तो दिक़्क़त आएगी।

अब ऐसे में ये सोचने की भी ज़रूरत है कि अगर समाज इन चीज़ों से वंचित है तो इसे चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बनाया जातादरअसल बीबीसी की ओर रिपोर्ट के अनुसार पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं, " आज जनता के बीच 'इंस्टेंट नूडल्स' हिट है। चुनाव के ठीक पहले 'फ्री बी' यानी मुफ़्त उपहार की घोषणा कर चुनाव जीतने का जमाना है। इसलिए जनता को लोन माफ़ी, मुफ़्त लैपटॉप, मुफ़्त राशन, मुफ़्त बिजली, पेंशन जैसी योजनाएं भाने लगी है। इसकी शुरुआत दक्षिण भारत से हुई थी। बाद में उत्तर भारत में इसका चलन बढ़ गया है।"

आंकड़े कहते हैं कि साल 2017 से लेकर 2021 तक खुदरा महंगाई दर 4 प्रतिशत से ऊपर रही है। जबकि इस वक्त तकरीबन 6.1 प्रतिशत है। दूसरी ओर बेरोज़गारी का आलम किसी से छिपा नहीं है। यानी अगर रोज़गार नहीं है, तो इतनी महंगाई में किसी के घर का खर्चा कैसे चल सकता है।

प्रदेश के दैनिक मजदूरी के आंकड़े देखें तो पिछले 5 साल में सरकार महंगाई और मजदूरी के मोर्चे पर फेल साबित हुई है। सबसे पहली बात तो यह है कि उत्तर प्रदेश का लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट 32% के आसपास है। जो योगी आदित्यनाथ की सरकार बनने से पहले 38% के आसपास हुआ करता था। पूरे भारत के लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट 40% से कम है। पूरी दुनिया के औसत लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट 57% से कम है। यानी उत्तर प्रदेश की बहुत बड़ी आबादी बेरोजगारी में जी रही है। जिसके पास रोजगार नहीं है। फिर भी दैनिक मजदूरी के हिसाब से देखें तो गैर कृषि क्षेत्र में लगा हुआ एक मजदूर साल 2017 में एक दिन काम करके ₹212 कमाता था। अब उसकी दैनिक मजदूरी 2021 में बढकर ₹285 तक पहुंची है। कृषि क्षेत्र में काम कर रहा मजदूर साल 2017 में प्रतिदिन औसतन ₹212 कमाता था 5 साल बाद उसकी दैनिक मजदूरी बढ़कर औसतन ₹275 हुई है। कंस्ट्रक्शन सेक्टर में काम करने वाला मजदूर साल 2017 में ₹270 प्रतिदिन काम आता था उसकी दैनिक मजदूरी बढ़कर के 314 रुपए हुई है।

ख़ैर... जब स्थिति इतनी भयावह है, तब महज़ हिंदुत्व की ब्रांडिग पर 23 से 24 करोड़ की जनता के विकास पर खर्च होने वाला अगर व्यर्थ होगा तो विकास की कल्पना करना ख़ुद के लिए धोखा है।

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