इकोलॉजिकल इमरजेंसी की तरफ तो नहीं बढ़ रहे हम!
क्लाइमेट वैरिएबिलिटी, क्लाइमेट चेंज, ग्लोबल वॉर्मिंग, बारिश-बाढ़, फिर भी सूखा, ग्लेशियरों का पिघलना, जंगलों की आग, आपदाएं हर वर्ष, हर तरह से, नई तीव्रता और नई मुश्किलों के साथ हमारी परीक्षा ले रही हैं। इसे हम प्रकृति का कहर समझ कर अपना रहे हैं या ये आपदाएं हमें कुछ सबक भी दे रही हैं? अर्थव्यवस्था की रफ्तार बढ़ाने के लिए प्रकृति के साथ हो रहे खिलवाड़ के नतीजे हमारे सामने हैं।
जंगल की आग से बचने के लिए उत्तराखंड जून महीने तक बारिश का इंतज़ार कर रहा था। थोड़ा रुकते-रुकाते बारिश आई और जंगल शांत हुए तो पहाड़ धसकने लगे। अल्मोड़ा, चमोली, टिहरी, कोटद्वार तक जिस बारिश का हम इंतज़ार करते हैं, स्वागत करना चाहते हैं, वो कहर बनकर टूटने लगी। 8 और 9 अगस्त की रात उत्तराखंड में एक साथ तीन जगह बादल फटने की घटनाएं हुईं। जिससे भारी नुकसान हुआ। चमोली के थराली तहसील के फल्दिया गांव की महिला ने कहा कि वर्ष 2013 में हमने कुदरत का ऐसा विकराल रूप नहीं देखा, जो इस बार दिखा। बादल फटने जैसी तीव्रता से हुई बरसात में गदेरों का पानी गांव की गलियों में उफान ला रहा था, घरों में रखा सब सामान बहा ले गया। दुकानें ढह गईं। यहां एक मां और बेटी मलबे के साथ तेज़ बहाव में बह गईं।
केरल के हालात पर डायलॉग हाईवे के देविंदर शर्मा अपने ट्विटर हैंडल पर लिखते हैं कि केरल इकोलॉजिकल इमरजेंसी का सामना कर रहा है। पिछले वर्ष दक्षिण केरल में बारिश से भारी तबाही हुई थी, इस वर्ष केंद्रीय और उत्तरी केरल बाढ़ की विभीषिका का सामना कर रहा है। भारी बारिश, बाढ़-भूस्खलन यहां तबाही और गरीबी लेकर आ रही है और तब भी लोग कहते हैं कि विकास हमारे लिए पर्यावरण से ज्यादा जरूरी है। वे कहते हैं कि ऊंची आर्थिक वृद्धि की चाह, हमारी आर्द्र भूमि, जंगल, पर्वत को तबाह कर रही है। जैसे ही बाढ़ कम होगी, राज्य फिर प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने वाले अपने सामान्य रवैये में वापस आ जाएंगे।
महाराष्ट्र, उड़ीसा, बिहार, उत्तर प्रदेश, असम समेत कई राज्यों में बारिश-बाढ़ हर साल तबाही लेकर आती है। जिसका पानी उतरते ही सबकुछ फिर सामान्य तरीके से चलने लगता है। ये वीभीषिकाएं क्या कोई संदेश नहीं दे रहीं।
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उत्तरी हिमालयी राज्यों में उत्तराखंड में सबसे अधिक भूस्खलन के लिहाज़ से संवेदनशील और अस्थिर ज़ोन हैं। वर्ष 2016 में संसद में दी गई रिपोर्ट में बताया गया था कि अकेले उत्तरकाशी में ही सबसे अधिक 235 अस्थिर ज़ोन हैं जहां तकरीबन हर साल ही बारिश के साथ भूस्खलन शुरू हो जाता है। इस रिपोर्ट में बताया गया था कि राज्य में 24 क्षेत्रों के344 लोकेशन को अस्थिर ज़ोन की श्रेणी में रखा गया है।
पिछले वर्ष राज्य में जब ऑल वेदर रोड का काम शुरू किया गया तो इस रिपोर्ट के मुताबिक अस्थिर ज़ोन का पहले उपचार करना चाहिए था। क्या यहां पहाड़ों को काट कर सड़क चौड़ी करना प्रकृति के साथ संतुलन बनाता है या नहीं, इसे चेक करना चाहिए था।
पर्यावरण विशेषज्ञों के मुताबिक ऑल वेदर रोड के लिए किये जा रहे निर्माण कार्यों की वजह से राज्य में कई नए भूस्खलन क्षेत्र बन गए हैं और कई निष्क्रिय पड़े भूस्खलन ज़ोन भी सक्रिय हो गए हैं। बारिश और भूस्खलन पहले ही राज्य को आपदा के संकट में धकेल देता है ऐसे में ये नए भूस्खलन ज़ोन इस तबाही को और बढ़ाने का ही काम करेंगे। बाढ़ और बारिश के चलते होने वाली मौतों के लिहाज से उत्तराखंड शीर्ष पर है। सड़कों के लिए काटे गए पेड़ों ने पहाड़ों को और कमज़ोर कर दिया है। फिर मलबे को सीधे खाइयों में और कहीं-कहीं तो नदियों में उड़ेला गया। वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा का उदाहरण हमारे सामने हैं।
राज्यसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में 19 मार्च 2018 को जल संसाधन मंत्रालय ने वर्ष 1953 से 2017 के बीच बाढ़ और बारिश से हुए नुकसान की जानकारी दी। जिसमें बताया गया कि वर्ष 1953 में बाढ़-बारिश से करीब 52.400 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था। समय के साथ ये नुकसान साल-दर-साल बढ़ता गया। वर्ष 2006 में करीब19790.922 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। वर्ष 2009 में 32551.758 करोड़ का, वर्ष 2013 में 47348.751 करोड़ का, वर्ष 2015 में 57291.099 करोड़ का। वर्ष 1953 से2017 तक कुल 365860.832 करोड़ रुपये का नुकसान हो चुका है।
राज्य आपदा प्रबंधन की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2010 से 2018 के बीच राज्य में बारिश-बाढ़ से 3835.878 हेक्टेअर कृषि भूमि का नुकसान हुआ है। 6395 सड़कें, 395 इमारतें, 6970 पुलिया-पुल टूट चुके हैं।
अल्मोड़ा में जीबी पंत इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन इनवायरमेंट एंड सस्टेनेबल डेवलपमेंट के डायरेक्टर डॉ आरएस रावल कहते हैं कि हिमालयी राज्य प्रकृति के लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं। यहां हम विकास से जुड़ी जो भी नीतियां बनाएं, उसमें हिमालय की संवेदनशील पारिस्थितकीय तंत्र का ध्यान रखना ही होगा। वे कहते हैं कि जब भी हम विकास की बातें करते हैं तो पर्यावरण की बात दबकर रह जाती है। जबकि हिमालय जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में दोनों के बीच संतुलन कायम करना हर हाल में जरूरी है।
इसी इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक इंजीनियर किरीट कुमार कहते हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते हिमालयी क्षेत्र बेहद संवेदनशील हो गए हैं। यहां अचानक तेज़ रफ्तार से बारिश और बादल फटने जैसी स्थितियों की तीव्रता बढ़ गई है। हमारे पास अब भी बादल फटने जैसी घटनाओं के अनुमान के पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं हैं। वे कहते हैं कि हम इन घटनाओं को रोक नहीं सकते, इसले हमें इनसे बचने और आपदा प्रबंधन के उपाय के लिए तैयार होना चाहिए।
ये बातें हिमालयी क्षेत्र के लिए तो जरूरी हैं ही, अंतरिक्ष में विकास के यान ले जा रहे देश और दुनिया के लिए जरूरी हैं। दिक्कत ये है कि पर्यावरण की चिंता सिर्फ कॉन्फ्रेंस-सेमिनार में की जाती है। गर्मी-सर्दी-बरसात का रोना, हमारी आम बातों में शामिल है। इस सबके बावजूद हम पर्यावरण के प्रति बेपरवाह बने रहते हैं। अपने चारों ओर नज़रें दौड़ाइये- इकोलॉजिकल इमरजेंसी दिखाई देती है आपको।
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