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रिकॉर्ड फ़सल; फिर भी गेहूं, चावल के दाम इतने ज़्यादा क्यों?

सरकार ने खाद्यान्न क्षेत्र का कुप्रबंधन इतने बड़े पैमाने पर किया है कि किसानों और उपभोक्ताओं, दोनों को इसका खामियाज़ा भुगतना पड़ रहा है।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। PTI

देश के भीतर खाद्यान्न की जो हालत है वह विचित्र एवं अशुभ है। इस साल की शुरुआत में कृषि मंत्रालय द्वारा जारी दूसरे अग्रिम अनुमान के अनुसार, चावल और गेहूं के साथ-साथ विभिन्न पोषक/मोटे अनाज की लगातार रिकॉर्ड पैदावार हुई है। यहां तक कि दालों का कुल उत्पादन भी रिकॉर्ड स्तर पर रहा है, हालांकि कुछ दालों (जैसे तुअर/अरहर) का उत्पादन थोड़ा कम हुआ है। कई उपायों के माध्यम से, सरकार ने बहुत अधिक निर्यात को रोका है। सरकार द्वारा खरीदे गये गेहूँ की एक बड़ी मात्रा खुले बाज़ार में पहले ही बेची जा चुकी है।

तो ये सारा अनाज देश के अंदर है। फिर भी, गेहूं और चावल जैसे मुख्य खाद्य पदार्थों और दालों की कीमतें ऊंची बनी हुई हैं, जिससे आम लोगों के पारिवारिक बजट पर भारी असर पड़ रहा है। इससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि सरकार के पास दामों को कम करने के लिए कोई योजना या रणनीति नजर नहीं आती है। साल के अंत में प्रमुख विधानसभा चुनाव होने हैं और फिर अगले साल की शुरुआत में लोकसभा चुनाव होने हैं। किसी को भी लगेगा कि सरकार बढ़ती महंगाई से चिंतित होगी। लेकिन लगता ये है कि सरकार के पास विकल्प ख़त्म हो गए हैं। यह चौंकाने वाली गड़बड़ी कैसे हुई? इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकार यह कैसे सुनिश्चित करे कि खुदरा कीमतें भी कम हो जाए और किसानों को भी कम से कम न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल जाए?

खाद्य पदार्थों के दाम बेहिसाब बढ़े

हालाँकि सरकार द्वारा पेश किए गए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक डेटा से पता चला है कि अगस्त 2023 में खाद्य पदार्थों की मुद्रास्फीति में कुछ कमी आई है, लेकिन वास्तविकता यह है कि पिछले कुछ वर्षों में, शुद्ध मूल्य वृद्धि असहनीय रूप से अधिक रही है, जैसा कि नीचे दिए गए चार्ट में दिखाया गया है। ये सरकार के उपभोक्ता मामलों के विभाग द्वारा देश भर से इकट्ठे किए गए दैनिक आंकड़ों पर आधारित हैं।

21 सितंबर, 2019 और 21 सितंबर, 2023 के बीच, चावल की कीमतों में लगभग एक तिहाई, गेहूं में 13 प्रतिशत और गेहूं के आटे (आटा) में लगभग एक चौथाई की वृद्धि हुई है। सभी दालों की कीमतें, जो भारतीयों के लिए प्रोटीन का एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं, असहनीय रूप से बढ़ गई हैं, तुअर/अरहर में 73 फीसदी, उड़द में 60 फीसदी और मसूर में 49 फीसदी की वृद्धि हुई है। (नीचे दिए चार्ट अपर गौर करें)

स्टेपल अनाज में इस मूल्य वृद्धि को खाना पकाने के तेल, दूध और यहां तक कि नमक जैसे अन्य खाद्य पदार्थों में समान मूल्य वृद्धि के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। (नीचे दिया चार्ट देखें)

परिवार का भोजन पर अब्धता खर्च अब और भी असहनीय होता जा रहा है क्योंकि सरकार ने महामारी के दौरान सभी राशन कार्ड धारकों (और अन्य) को 2020 में शुरू की गई 5 किलोग्राम खाद्यान्न की मुफ्त आपूर्ति को भी रोकने का भी फैसला कर लिया है।

उत्पादन बढ़ रहा है

कुछ लोग ऐसा भी सोच सकते हैं कि भीषण गर्मी और अत्यधिक बारिश जैसी विभिन्न मौसम संबंधी उथल-पुथल के कारण उत्पादन में कमी आई है, जिससे आपूर्ति कम हो गई है और इसलिए कीमतें बढ़ गई हैं। यद्द्पि, मीडिया रिपोर्टों से इस सोच को बढ़ावा मिला है। लेकिन, जैसा कि सरकारी आंकड़ों के आधार पर नीचे दिए गए चार्ट में दिखाया गया है, चावल और गेहूं का उत्पादन लगातार बढ़ रहा है। 2019-20 के बाद से गेहूं का उत्पादन 4 प्रतिशत और चावल का 10 प्रतिशत बढ़ा है। सरकार भी हर साल दावा करती ही है कि रिकॉर्ड फसल उत्पादन हुआ है। 

दालों के उत्पादन में 20 पार्टीशत से अधिक की वृद्धि हुई है - इसी अवधि में दालों का उत्पादन 230 लाख मीट्रिक टन (एलएमटी) से 278 एलएमटी तक बढ़ा है।

उपरोक्त से साफ हो जाता है कि यह उत्पादन की कमी और कम आपूर्ति नहीं है जो पिछले कुछ वर्षों में, विशेष रूप से 2022 के बाद से लगातार बढ़ती कीमतों का कारण बन रही है। इसका कारण कुछ और ही हैं जिन पर गौर किया जाना चाहिए। 

सरकार ने क़ीमतों को नियंत्रित करने के लिए क्या किया है?

सरकार ने जो प्रशासनिक उपाय किए हैं उसमें मई 2022 में गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध लगाना और फिर अगस्त 2022 में आटा और ऐसे अन्य उत्पादों के निर्यात पर प्रतिबंध लगाना शामिल है। इससे हंगामा मच गया, क्योंकि प्रतिबंध से कुछ हफ्ते पहले ही सरकार ने खुद बड़े जोर-शोर से आहवान किया था कि गेहूं का निर्यात किया जाना चाहिए। चूंकि यूक्रेन युद्ध छिड़ गया था और इस कारण विश्व में गेहूं की कमी पैदा हुई और इसका लाभ उठाने के लिए निर्यात के कदम को आगे बढ़ाया गया था। हालाँकि, घरेलू कीमतों पर इसका बहुत कम प्रभाव पड़ा और दाम ऊंचे रहे। जून 2023 से, व्यापारियों, मिल मालिकों, थोक विक्रेताओं और खुदरा व्यापारियों को 3,000 टन से अधिक गेहूं रखने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, जबकि छोटे खुदरा विक्रेताओं के लिए यह प्रतिबंध 10 टन की स्टॉक सीमा तक है। कथित तौर पर, ऐसे कदम 15 वर्षों में पहली बार उठाए गए हैं।

चावल के मामले में सरकार ने इस साल गैर-बासमती चावल के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया है। इसने पारबॉयल्ड चावल पर 20 प्रतिशत निर्यात शुल्क लगा दिया है। फिर व्यापारियों को बासमती का निर्यात करने से रोकने के कदम के तौर पर न्यूनतम निर्यात मूल्य तय कर दिया है। 

सरकार इस पर भी निर्भर थी कि वह अपने भंडार से गेहूं और चावल बेच कर कीमतें कम कर लेगी, लेकिन यह दावा भी काम नहीं आया। इस साल जून में उसने घोषणा की कि 15 लाख मीट्रिक टन गेहूं और 5 लाख मीट्रिक टन चावल खुले बाजार में बेचा जाएगा। फिर अगस्त में, घोषणा की गई कि अतिरिक्त 50 एलएमटी गेहूं और 25 एलएमटी चावल ओपन मार्केट सेल्स स्कीम (ओएमएसएस) के माध्यम से थोक खरीदारों को बेचा जाएगा। नवीनतम रिपोर्टों में कहा गया है कि सरकार ने ई-नीलामी के 13 दौर के माध्यम से 18 एलएमटी गेहूं पहले ही खुले बाजार में बेच दिया है।

ये कदम भी कीमतों में कोई खास कमी नहीं ला पाए हैं। इसका आंशिक कार्न यह है क्योंकि पूरी की पूरी कीमतों को प्रभावित करने के मामले में इसका वॉल्यूम बहुत कम है और इसलिए भी क्योंकि इन खरीदारियों का लाभ थोक खरीदार (जैसे बिस्किट, ब्रेड, या स्नैक्स उत्पादकों) द्वारा उठाया जा रहा है। इससे न तो किसानों को लाभ हो रहा है और न ही गेहूं-चावल उपभोक्ताओं को।

क्या किया जा सकता था?

सरकार द्वारा की गई सबसे बड़ी नीतिगत गलती सार्वजनिक वितरण प्रणाली में रियायती दरों पर खाद्यान्न की खरीद और वितरण को बढ़ावा न देना था। भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के नवीनतम उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, 2023-24 के खरीफ विपणन सीजन में 13 सितंबर, 2023 तक चावल की खरीद 569.46 एलएमटी थी, जबकि पिछले सीजन में यह 575.88 एलएमटी थी। गेहूं की खरीद 262 एलएमटी रही, जबकि पिछले साल 187.9 एलएमटी थी, लेकिन 2021-22 में 433 एलएमटी के स्तर से काफी नीचे पहुंच गई थी।

पिछले साल गेहूं की खरीद में भारी गिरावट आई और हालांकि चालू वर्ष में इसमें थोड़ी वृद्धि हुई है, लेकिन यह स्पष्ट रूप से उससे पहले के वर्षों के मानदंडों से काफी कम है। रिकॉर्ड पैदावार के बावजूद, खरीद में गिरावट सरकार की खरीद करने में असमर्थता तथा इससे भी  अधिक संभावना, उसकी खरीदने की अनिच्छा - का संकेत है। इस प्रकार सरकार किसानों को एमएसपी से वंचित कर रही है और साथ ही खुले बाजार में कीमतें बढ़ने की इजाजत दे रही  है। यदि सरकार ने अधिक खरीद की होती और इसे रियायती कीमतों पर लोगों तक पहुंचाया गया होता, तो खुले बाजार की कीमतें अपने आप गिर जातीं। इसके बजाय, यह अपने हाथ मल रही है और खुले बाजार के बारे बढ़ा-चढ़ा कर बात की जा रही है - जो वास्तव में थोक खरीदारों के पास जा रहा है, न कि असहाय आम लोगों के पास यह पहुँच रहा है।

चूँकि सरकार के पास कोई अन्य रणनीति नहीं है, और इसलिए यह दिखावा कर रही है कि कोई संकट नहीं है, इसलिए भविष्य की संभावनाएँ धूमिल दिखती हैं। कीमतें ऊंची बनी रहेंगी, और सामान्य मुद्रास्फीति के कम होने का कोई संकेत नहीं होने के कारण, लोगों को कुप्रबंधन के कारण परेशानी होती रहेगी।

शायद इसे 'कुप्रबंधन' नहीं कहा जाना चाहिए। क्योंकि यह स्थिति सरकार द्वारा चुने गए नीतिगत विकल्पों का सीधा परिणाम है, जिसने बार-बार सब्सिडी में कटौती करने, शासन में सरकारी हस्तक्षेप को कम करने, निजी क्षेत्र को अर्थव्यवस्था चलाने के लिए प्रोत्साहित करने, सार्वजनिक व्यय को कम करने और - विशेष रूप से - खरीद और वितरण और खाद्यान्न की व्यवस्था से छुटकारा पाने की नीति है। 2020 में पारित किए गए तीन कृषि-संबंधित कानून (जिन्हें 2021 में वापस लेने पर मजबूर होना पड़ा था) में बस इसी सेट-अप की परिकल्पना की गई थी, जिसे आज भयंकर चूक के ज़रिए लागू किया जा रहा है। और, परिणाम बिल्कुल वही हैं जिसकी आशंका थी - उपभोक्ताओं यानाई आम आदमी के लिए ऊंची कीमतें, किसानों के लिए कम कीमतें, कॉर्पोरेट थोक खरीदारों और व्यापारियों के लिए वरदान।

मूल अंग्रेजी में प्रकाशित रिपोर्ट को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Record Harvests; Still Why Are Prices of Wheat, Rice So High?

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