विश्व एड्स दिवस: शर्मिंदगी से सहानुभूति तक सेक्स वर्कर्स और समलैंगिकों को बहुत कुछ झेलना पड़ता है!
विश्व एड्स दिवस हर साल 1 दिसंबर को दुनिया भर में आम लोगों के बीच इस बीमारी प्रति जागरूकता के उद्देश्य से मनाया जाता है। ऐकवायर्ड इम्यूनो डेफिशियेंसी सिंड्रोम यानी एड्स बीते कई दशकों से हमारे बीच एक जानलेवा बीमारी का नाम बना हुआ है। क्योंकि ये एक यौन संक्रामक रोग है इसलिए इससे संक्रमित लोगों को अक्सर सहानुभूति की जगह नफ़रत, घिन और उत्पीड़न की नज़रों से देखा जाता है। कई बार इसे पितृसत्ता के नुमाइंदे ‘चरित्रहीन’ होने का ठप्पा तक लगा देते हैं। हालांकि ये बीमारी असुरक्षित यौन संबंध के साथ ही संक्रमित सुई, रक्त संचरण समेत कई और वजहों से भी हो सकती है लेकिन ज्यादातर लोग इसे आज भी बीमारी से ज्यादा शर्मिंदगी ही समझते हैं।
बता दें कि करीब तीन दशक पहले देश में एचआईवी एड्स का पहला केस मिला था जब छह सेक्स वर्कर्स के ब्लड सैंपल की जांच के दौरान उन्हें पॉज़िटिव पाया गया था। तब एचआईवी को 'अय्याश' पश्चिमी देशों की बीमारी बताया जाता था जहां कथित तौर पर खुले सेक्स और समलैंगिकता का प्रचलन था। लेकिन एक लंबा अरसा बीतने के बाद आज भी हमारे समाज में सेक्स की तरह ही सेक्स संबंधित बीमारियों पर भी खुलकर बात नहीं करना चाहते जो करते भी हैं उन्हें ग़लत नज़रों से देखा जाता है। और शायद यही वजह है कि इन बीमारियों से पीड़ितों को इलाज तो छोड़िए सम्मान और मौलिक अधिकार भी हासिल नहीं होते।
जानकारियों से ज्यादा भ्रांतियां
इस बीमारी को लेकर आज भी समाज में जानकारियों से ज्यादा भ्रांतियां फैली हुई हैं जो इसे कलंक और छुआछूत से ज्यादा जोड़ती हैं। यहां पीड़ितों को इलाज़ से ज्यादा भेदभाव और बहिष्कार का सामना करना पड़ता है। ऐसा बहिष्कार जो उन्हें उनके जिंदगी जीने के बुनियादी अधिकार से भी दूर कर देता है। इसी भेदभाव के खिलाफ जागरूकता के लिए साल 1988 में दिल्ली में शुरू हुआ था एड्स भेदभाव विरोधी आंदोलन। मानवतावाद और नारीवाद की दृष्टिकोण से ऐतिहासिक रहे इस संघर्ष का मकसद सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था को सुधारना और सेक्स वर्कर्स, LGBTQ समुदाय के लोगों को समाज में बराबरी का ह़क़ और सम्मान दिलाना भी था।
ये आंदोलन राजधानी दिल्ली से शुरू हुआ था जिसमें कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने रेड लाइट डिस्ट्रिक्ट,जी.बी.रोड में सेक्स वर्कर्स के साथ मिलकर काम किया ताकि ये पता लगाया जा सके कि ये बीमारी किस तरह फैलती है और इससे संक्रमित लोगों का क्या हाल होता है। इस पूरे मामले को समझने के बाद साल1990 में उन्होंने ‘वीमेन एंड एड्स’ नाम की रिपोर्ट भी छापी थी। इस रिपोर्ट में विस्तार से बताया गया था कि किस तरस सेक्स वर्कर्स का शोषण-उत्पीड़न होता है। उन पर बिना उनकी रज़ामंदी के पुलिस और डॉक्टर ज़बरदस्ती एड्स के लिए टेस्ट करते हैं और अगर उस में कोई पॉजीटिव निकला तो कैसे पुलिस उन्हें गिरफ़्तार करके उन पर अत्याचार करती है। इसके अलावा उन्हें अपने ही आसपास के लोगों से लांछन भी सहना पड़ता है।
स्वास्थ्य व्यवस्था की कमियां
प्राप्त जानकारी के मुताबिक इस रिपोर्ट ने एड्स की जांच और इलाज में हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था की कमियां उजागर कीं। इसके साथ ही ये भी पता चला कि अक्सर चिकित्सक वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन (WHO) के दिए गए गाइडलाइन्स का पालन नहीं करते। ऊपर से वे इस खुद बीमारी को बीमारी नहीं, गुनाह समझते हैं। इस रिपोर्ट में ‘इम्मॉरल ट्रैफिक (प्रिवेंशन) एक्ट,1956 जैसे कानूनों की भी चर्चा की गई। ये कानून वास्तव में तो मानव तस्करी का शिकार हुई औरतों के लिए बने हैं लेकिन ये भी सच था कि ये सबसे ज़्यादा उन्हीं के ख़िलाफ़ इस्तेमाल होते थे। ये औरतें उन्हीं के हाथों शोषित होती हैं जो उनकी हिफ़ाज़त करने के लिए हैं और अगर वे एड्स की मरीज़ हैं तो कोई भी उन्हें पूछता तक नहीं है। एक बार वेश्यावृत्ति की दुनिया से निकलने के बाद इन औरतों को पुलिस और प्रशासन के हाथों भी उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता था। कभी-कभी तो ये जेल में सिर्फ इसलिए डाल दी जाती थीं क्योंकि इन्हें एड्स था।
एड्स भेदभाव विरोधी आंदोलन का संघर्ष
इस आंदोलन का सबसे बड़ा हासिल ये था कि जब साल1989 में एड्स-पीड़ितों के ख़िलाफ़ एक क्रूर क़ानून एड्स प्रिवेंशन बिल संसद में पास कराने की खबर सामने आई तो एड्स भेदभाव विरोधी आंदोलन ने इसका जमकर विरोध किया। दिल्ली हाईकोर्ट के सामने पेटिशन पेश किया और तब जाकर लगातार विरोध के बाद ये बिल वापस ले लिया गया। दरअसल ये बिल सरकार को किसी भी ‘संदिग्ध’ इंसान का ज़बरदस्ती उसकी मर्ज़ी के बगैर एड्स टेस्ट करने की अनुमति देता था। इसके अलावा संदिग्ध व्यक्ति की सारी व्यक्तिगत जानकारी भी पुलिस और सरकार के पास होती और उसके इलाज के लिए कोई भी निर्देश भी नहीं देने की बात कही गई थी। ये बिल सीधे तौर पर आमलोगों की निजी सीमाओं और मौलिक अधिकारों का सरासर उल्लंघन करता था।
इस आंदोलन ने समलैंगिकों के अधिकारों की लड़ाई भी लड़ी। इस बीमारी को लेकर समलैंगिकता से जुड़े और कई मिथकों का भंडाफोड़ इसकी एक रिपोर्ट ‘लेस दैन गे’ में किया था जो साल 1991 में छपी थी। इस रिपोर्ट में ‘गे’,’लेस्बियन’,’ट्रांसजेंडर’ जैसे शब्दों का अर्थ विस्तार में समझाया गया और ये बताया गया था कि अलग-अलग यौनिकताएं कोई बीमारी नहीं बल्कि पूरी तरह स्वाभाविक है। तब आईपीसी के सेक्शन377पर भी इस रिपोर्ट ने कठोर आलोचना की थी और समलैंगिक लोगों को क्रिमिनल की तरह देखने के नज़रिए को बदलने की बात कही थी। इस रिपोर्ट में समलैंगिकों के हितों को ध्यान में रखते हुए शादी और बच्चा गोद लेने के अधिकार की भी पैरवी की गई थी। हालांकि साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में धारा 377 को निरस्त कर दिया लेकिन सेम सेक्स मैरिज और तमाम अधिकारों पर आज भी समलैंगिक संघर्ष कर रहे हैं।
एड्स भेदभाव विरोधी आंदोलन को अब लगभग35साल हो गए हैं और इसका कारवां अभी भी जारी है। बीते तीन दशक में सेक्स, यौनिकता और यौन-संक्रमित रोगों के बारे में इस आंदोलन ने समाज को जागरूक करने के लिए अनगिनत प्रदर्शन, मीटिंग, सेमिनार और रिसर्च की है। हज़ारों जिंदगियों पर इसका असर भी देखने को मिला है। लेकिन इस ओर अभी भी बहुत काम बाकी है जो अकेले किसी संगठन के बस का नहीं है इसे हमें, आपको और पूरे समाज को मिलकर पूरा करना होगा।
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