ट्रंप की जीत और उदारवाद का संकट
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में ट्रंप की जीत उसी पैटर्न का अनुसरण करती है जो इस समय दुनिया भर में देखने को मिल रहा है। यह पैटर्न है उदार मध्यमार्ग के बैठ जाने और वामपंथ के लिए समर्थन बढ़ने का या फिर जहां वामपंथ कमजोर हो या नामौजूद हो, घोर दक्षिणपंथ के, नव-फासीवादियों के लिए समर्थन बढ़ने का। यही फ्रांस में देखने को मिला था, जहां मैक्रों की पार्टी की उल्लेखनीय हार हुई थी और नव-फासीवाद के उभार को एक जल्दी-जल्दी खड़े किए गए वामपंथी गठबंधन के जरिए ही रोका जा सका था। यही हमारे पड़ौस में श्रीलंका में भी देखने को मिला है, जहां एक वामपंथी उम्मीदवार, वोट के अपने हिस्से में अचानक और उल्लेखनीय बढ़ोतरी के बल पर राष्ट्रपति चुना गया है और उसने उदार-मध्यपंथ से आने वाले निवर्तमान राष्ट्रपति को हराया है।
उदार मध्यपंथ का यह सर्वव्यापी पराभव, जो कि उदारवाद के संकट का संकेतक है, समकालीन दौर की सबसे ध्यान खींचने वाली परिघटना है। इस संकट की जड़ें इस तथ्य में निहित हैं कि आज राजनीतिक उदारवाद, आर्थिक उदारवाद के खूंटे से बंधा हुआ है और आर्थिक उदारवाद खुद ही संकट में फंस गया है।
उदार-मध्यमार्ग का संकट और खुले बाज़ार का दर्शन
शास्त्रीय या क्लासिकल उदारवाद का राजनीतिक दर्शन, जो उदार राजनीतिक आचार के लिए आधार मुहैया कराता था, पूंजीवादी विचार की सुदीर्घ परंपरा पर टिका हुआ था, जो शास्त्रीय राजनीतिक अर्थशास्त्र से नव-शास्त्रीय अर्थशास्त्र तक फैली हुई थी। ये दोनों ही धाराएं, अपने उल्लेखनीय मतभेदों के बावजूद मुक्त बाजार के गुणों में विश्वास करती थीं, जिस पर राज्य के हस्तक्षेप के जरिए डाली जाने वाली बेड़ियों को प्राथमिकता के आधार पर हटाए जाने की जरूरत थी।
इस पूरी तर्क शृंखला का खोखलापन पहले विश्व युद्ध तक उजागर हो चुका था, जिसकी आर्थिक जड़ें बाजार के गुणों के सारे दावों को झुठलाती थीं और यह खोखलापन इससे भी ज्यादा खुलकर उजागर हुआ जाहिर है कि महामंदी के दौरान। केन्स ने दिखाया था कि मुक्त बाजार पर टिका पूंजीवाद, ‘उत्तेजना के संक्षिप्त दौरों’ को छोड़कर, व्यवस्थित तरीके से मजदूरों की विशाल संख्या को बेरोजगार रहने के लिए मबजूर करता है, और एक आदर्श संस्था होना तो दूर रहा, जैसा कि उसे चित्रित किया जाता है, मुक्त बाजार वास्तव में इतना ज्यादा त्रुटिपूर्ण है कि वह तो पूंजीवाद के ही, समाजवाद के चढ़ते ज्वार द्वारा उखाड़ फेंके जाने का खतरा पैदा कर देता है। लेकिन, चूंकि वह उदारपंथी थे और डरते थे कि अगर पूंजीवादी व्यवस्था को सुधारा नहीं गया तो समाजवाद उसके लिए खतरा बन जाएगा, उन्होंने उदारवाद का एक नया रूप पेश किया था, जिसे वह ‘नव-उदारवाद’ कहते थे। इसकी पहचान सकल मांग को उठाने और ऊंची रोजगार दर हासिल करने के लिए, साल दर साल राज्य के हस्तक्षेप से होनी थी, न कि इनसे बचे जाने से, जो कि शास्त्रीय उदारवाद की निशानी थी।
केन्सवाद का त्याग
बहरहाल, वित्तीय पूंजी ने केन्सवाद को कभी भी मंजूर नहीं किया था। केन्स खुद इससे चकित थे और इसके लिए अपने सिद्धांत की समझ के ही अभाव को जिम्मेदार बताते थे। लेकिन, असली कारण कहीं गहरा था। असली कारण इसका डर था कि राज्य का कोई भी व्यवस्थित हस्तक्षेप, पूंजीपतियों की सामाजिक भूमिका की वैधता को और खासतौर पर पूंजीपतियों के उस हिस्से की सामाजिक भूमिका को ध्वस्त कर देता, जो वित्त के क्षेत्र में सक्रिय थे और जिन्हें केन्स ‘उपयोगहीन निवेशक’ कहते थे। यह डर स्थायी है और आज भी बना हुआ है। केन्सवाद राज्य की नीति बना तो सिर्फ दूसरे विश्व युद्ध के बाद, क्योंकि युद्ध ने वित्तीय पूंजी को कमजोर कर दिया था और सामाजिक जनवाद को उभार दे दिया, जिसने केन्सवाद को अपना लिया था।
उन्नत देशों में युद्धोत्तर उछाल के दौरान वित्तीय पूंजी ने अपनी स्थिति पुख्ता कर ली और अपने आकार को इतना फैला लिया कि यह बढ़ते पैमाने पर अंतर्राष्ट्रीय होती चली गयी। इसके साथ ही साथ युद्धोत्तर पूंजीवाद, राजकीय हस्तक्षेप की मदद हासिल होने के बावजूद, एक अलग तरह के संकट में फंस गया। यह संकट सकल मांग की अपर्याप्तता से पैदा हुआ संकट नहीं था बल्कि उस मुद्रास्फीतिकारी उभार से आया था, जो साठ के दशक के आखिरी और सत्तर के दशक के आरंभ के वर्षों में आया था। यह संकट उस जुड़वां परिघटना पर आधारित था, जिससे यद्धोत्तर पूंजीवाद की पहचान होती थी। एक ओर रोजगार की ऊंची दर थी, जो श्रम की सुरक्षित सेना को घटाती थी तथा पूंंजीवादी अर्थव्यस्था में उसके ‘स्थिरताकारी प्रभाव’ को खत्म करती थी और दूसरी ओर निरुपनिवेशीकरण था, जिसका नतीजा यह था कि तीसरी दुनिया में प्राथमिक मालों की मांग को दबाए रखने का तंत्र खत्म हो गया था। इसने नयी अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी को इसका मौका दिया कि केन्सवादी मांग प्रबंधन व्यवस्था को बदनाम कर दे और इसमें एक बार फिर मुक्त बाजार के गुणों का प्रचार करने वाले पैरोकार पूंजीवाद के पुनर्जीवन ने मदद दी। अब हर जगह नवउदारवादी निजामों को बढ़ावा दिया जा रहा था। चूंकि इन नये हालात में ‘निवेशकर्ताओं का भरोसा’ बनाए रखना (यानी अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी की मांगों की हां में हां मिलाकर पूंजी के पलायन को रोकना ही राज्य की नीति की सर्वोपरि चिंता बन गया, केन्स के ‘नव-उदारवाद’ का परित्याग कर दिया गया। उदार केंद्र, सामाजिक जनवाद का अधिकांश हिस्सा और वामपंथ तक के कुछ हिस्से, इस नव-उदारवाद के पीछे लाइन में लग गए।
बहरहाल, नव-उदारवाद ने खुद संकट में फंसने से पहले ही, उन्नत देशों में मजदूर वर्ग के लिए भारी तकलीफें पैदा की थीं और तीसरी दुनिया के मेहनतकशों के लिए और भी ज्यादा तकलीफें पैदा की थीं। और उसके संकट में फंसने के बाद से ये तकलीफें और भी बढ़ गयी हैं। नव-उदारवादी दौर में विश्व अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर, नियंत्रणात्मक दौर की तुलना में उल्लेखनीय रूप से धीमी पड़ गयी है। और 2008 में अमरीका में जब पिछली बार परिसपंत्ति की कीमतों का बुलबुला बैठा था, उसके बाद यह वृद्धि दर और भी धीमी पड़ गयी है। यह संकट नतीजा तो है अपर्याप्त सकल मांग के संकट का, जोकि नवउदारवाद के अंतर्गत आयी आय में भी असमानता का नतीजा है और यह अपरिहार्य रूप से अधि-उत्पादन की प्रवृत्ति पैदा करता है। लेकिन, अमरीका के परिसंपत्ति मूल्य बुलबुले ने इस संकट को टाले रखा था क्योंकि उसने संपदा प्रभाव के जरिए सकल मांग को उठाए रखा था।
बहरहाल, परिसंपत्ति मूल्य बुलबुले के बैठने के साथ यह संकट खुलकर सामने आ गया है। इस संकट से नवउदारवाद के दायरे में नहीं उबरा जा सकता है क्योंकि नवउदारवाद ने केन्सवादी मांग प्रबंधन की संभावनाओं को खत्म कर दिया है और अब कोई नया बुलबुला, जो इस संकट की तीव्रता को किसी हद तक शमित कर सकता हो, ऐसे बुलबुले के पिछले अनुभवों के चलते ही संभव नहीं रह गया है, क्योंकि लोग अब इस मामले में ज्यादा सावधान हो गए हैं। वास्तव में, नये बुलबुले उत्प्रेरित करने की मंशा से अपनायी गयी मौद्रिक नीति मुद्रास्फीति को भड़काने में ही कामयाब रही है और यह हुआ है मांग के गतिरोध में रहने के बीच भी, कीमतों में मुनाफे का हिस्सा बढ़ाए जाने के जरिए। और यह संकट को और बढ़ाने का ही काम कर रहा है।
समकालीन उदारवाद का संकट
संक्षेप में यह कि समकालीन उदारवाद, जो नवउदारवादी व्यवस्था के प्रति प्रतिबद्ध है, जनता की बदहाली को दूर करने के लिए कुछ नहीं करता है और वास्तव में कुछ कर भी नहीं सकता है। हैरानी की बात नहीं है कि लोग उससे विमुख होकर, दक्षिणपंथी या वामपंथी राजनीतिक शक्तियों की ओर मुड़ रहे हैं। वैसे दक्षिणपंथ भी लोगों की बदहाली को दूर करने के लिए शायद ही कुछ कर सकता है। उसकी चुनाव से पहले की लफ्फाजी अपरिहार्य रूप से उसकी चुनाव के बाद की नीति से भिन्न होती है। उसकी चुनाव के बाद की नीति नवउदारवादी होती है, जैसाकि इटली की मेलोनी ने दिखाया है और फ्रांस में मारीन लॉ पेन के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार, जोर्डन बार्डेल्ला ने चुनाव से भी पहले से ही, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के संबंध में अपनी पार्टी के रुख में बदलाव के जरिए प्रदर्शित करना शुरू कर दिया था। लेकिन, दक्षिणपंथ फिर भी ‘‘दूसरों’’ यानी सामान्य रूप से किसी अल्पसंख्यक धार्मिक या इथनिक समूह या अप्रवासियों के खिलाफ भड़काऊ लफ्फाजी के जरिए, संकट के सामने किसी प्रकार की सक्रियता का दिखावा तो पैदा करता है, जबकि उदारपंथी मध्यमार्ग तो सिर्फ संकट की मौजूदगी को स्वीकार कर के रह जाता है। इन हालात में इजारेदार पूंजी अपना समर्थन दक्षिणपंथ की ओर या नव-फासीवादियों की ओर मोड़ देती है, ताकि संकट के सामने अपना वर्चस्व बनाए रख सके। उदारपंथी मध्यमार्ग के कमजोर होने और उदारवाद के संकट का एक कारण यह भी है।
यह कहा जा सकता है कि ट्रंप के पास तो एक आर्थिक एजेंडा है, आयातों से और सिर्फ चीन से ही नहीं यूरोपीय यूनियन से आयातों से भी अमरीकी अर्थव्यवस्था को बचाने का। उन पर यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि मेलोनी की तरह, वह भी पुरानी नव-उदारवादी पटकथा से ही चिपके हुए हैं। बहरहाल, यहां कई बातें दर्ज करने वाली हैं। पहली यह कि उदार व्यापार संरक्षणों से अलग जाते हुए भी ट्रंप ने कभी भी अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी की सीमा पार मुक्त आवाजाही पर अंकुश लगाने का जिक्र तक नहीं किया है। इस तरह अपनी चुनाव-पूर्व की बयानबाजी में भी वह नव-उदारवादी व्यवस्था के सार को बिना चुनौती दिए छोड़ देते हैं। दूसरे, संरक्षणवाद कोई ट्रंप का मौलिक विचार नहीं है। इसकी शुरूआत तो ओबामा के जमाने में ही हो गयी थी। इसके अलावा, सिर्फ संरक्षणवाद अमरीकी अर्थव्यवस्था में नयी जान नहीं डाल सकता है। संरक्षणवाद तो ज्यादा से ज्यादा प्रतिद्वंद्वी अर्थव्यवस्थाओं की कीमत पर, अमरीका के घरेलू उत्पादन को प्रोत्साहित करने का ही काम कर सकता है, लेकिन यह अपने आप से घरेलू बाजार के आकार को बढ़ा नहीं सकता है। घरेलू अर्थव्यवस्था के आकार को बढ़ाने के लिए तो राजकीय खर्च में बढ़ोतरी की जरूरत होगी, जिसके लिए वित्त व्यवस्था या तो राजकोषीय घाटे के जरिए करनी होगी या फिर अमीरों पर कर बढ़ाकर करनी होगी। लेकिन, राष्ट्रपति के रूप में अपने पिछले कार्यकाल के दौरान ट्रंप ने कारपोरेट करों में कटौती के प्रति जैसा मोह प्रदर्शित किया था उसे देखते हुए, यह माना जा सकता है कि ट्रंप सरकारी खर्च में बढ़ोतरी का रास्ता नहीं अपनाने जा रहा है। उस सूरत में, अमरीकी अर्थव्यवस्था में संरक्षणवाद के बढ़ने से जो जरा सा बुलबुला उठेगा, वह भी अंतत: गतिरोध तथा संकट में समा जाएगा।
इस तरह जहां ट्रंप की जीत तो प्रत्याशित थी, जो कि उदारपंथी मध्यमार्ग के बैठने की विश्व स्तर पर देखने में आ रही परिघटना की संगति में थी, इसका अर्थ यह नहीं है कि जनता ने उसके आर्थिक एजेंडा को नहीं पहचाना है, जोकि नवउदारवाद के बुनियादी सूत्रों से ही चिपके रहने का एजेंडा है। इतना जरूर है कि ट्रंप और ज्यादा संरक्षणवाद लाएगा, जो ज्यादा से ज्यादा रोजगार में एक अस्थायी बढ़ोतरी ही पैदा कर सकता है, लेकिन सस्ते आयातों के अभाव के चलते मुद्रास्फीति की स्थिति को और बदतर ही करने जा रहा है।
इसका अर्थ यह है कि अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियां वामपंथ के उभार के अनुरूप हैं क्योंकि एक वही है जो नवउदारवाद का अंत करके वर्तमान संकट को खत्म कर सकता है और वही है जो इस समय जारी युद्धों का अंत करा सकता है, जिनमें उदारवादी मध्यमार्ग संलिप्त रहा है, जिसकी चर्चा हम बाद में किसी मौके पर करेंगे। लेकिन, वामपंथ को भी तो इस काम को पूरा करने के लिए तैयार होना होगा।
(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें–़
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