भारत में ग़रीबी के आंकड़े
अभी पिछले ही दिनों नीति आयोग के चीफ एक्जिक्यूटिव ऑफिसर ने यह दावा किया कि 2022-23 के उपभोग सर्वे आंकड़ों के अनुसार, भारत में गरीबी का अनुपात गिरकर 5 फीसद से नीचे आ गया है।
मानक, सर्वे, सब संदिग्ध दावे चुनावी
उनका दावा इस तथ्य पर आधारित था कि 2022-23 में सिर्फ 5 फीसद आबादी का ही प्रतिव्यक्ति उपभोग खर्च, उस वर्ष के लिए ग्रामीण और शहरी गरीबी की रेखाओं से नीचे था। गरीबी की ये रेखाएं, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आधार पर, गरीबी की उन रेखाओं को अपडेट करने के जरिए तय की गयी थीं, जो 2011 में सुरेश तेंडुलकर की अध्यक्षता में गठित की गयी कमेटी द्वारा सुझायी गयी थीं।
अब सचाई यह है कि तेंडुलकर कमेटी ने अपनी 2011-12 की गरीबी रेखाएं, न्यूनतम कैलोरी आहार या मालों की एक न्यूनतम बुनियादी जैसे, किसी वस्तुगत मानदंड के आधार पर तय नहीं की थीं। उसने तो बस मनमाने तरीके से इसके कुछ निर्णय लिए थे कि इन रेखाओं का स्तर क्या होना चाहिए। इसके अलावा, तेंडुलकर द्वारा सुझायी गयी गरीबी की रेखाओं को अपडेट करने के लिए जिन उपभोक्ता मूल्य सूचकांकों का प्रयोग किया जा रहा है, वे खुद गरीबी को गंभीर रूप से घटाकर दिखाने की ओर झुके हुए हैं, क्योंकि इनमें शिक्षा तथा स्वास्थ्य रक्षा जैसी आवश्यक सेवाओं के निजीकरण के प्रभाव को, समुचित रूप से हिसाब में लिया ही नहीं गया है। इसके ऊपर से, 2022-23 का उपभोग खर्च सर्वे, पहले से सभी सर्वेक्षणों से भिन्न आधार पर किया गया है और इसके चलते इस सर्वे के नतीजों की इससे पहले के सर्वेक्षणों के नतीजों से तुलना की ही नहीं जा सकती है। और इस सर्वेक्षण में अंतर्निहित झुकावों का अभी तक पूरी तरह से पता ही नहीं चला है क्योंकि सर्वे का पूरा डाटा अब तक जारी ही नहीं किया गया है।
इसलिए, नीति आयोग 5 फीसद के जिस आंकड़े को उद्धृत कर रहा है, उसकी शायद ही कोई विश्वसनीयता होगी। इतना ही नहीं, यह आंकड़ा अर्थव्यवस्था के संबंध में हमारे पास मौजूद दूसरी अनेकानेक जानकारियों से बिल्कुल बेमेल है। इसके चलते यही नतीजा निकालना पड़ेगा कि यह आंकड़ा तो चुनाव से पहले प्रचार के मकसद से, सरकार द्वारा ही आगे बढ़ाया जा रहा है। आइए, एक नजर इस पर डाल लें कि अर्थव्यवस्था के संबंध में ये अन्य जानकारियां क्या हैं?
गरीबी बढऩे की कहानी अन्य साक्ष्यों की जुबानी
2017-18 के उपभोग खर्च सर्वे के नतीजे बहुत ही खराब थे और इतने खराब थे कि सरकार ने फौरन इन नतीजों को दबा ही दिया था। बहरहाल, इन नतीजों की जो भी जानकारी लीक होकर निकल आयी थी, उसके आधार पर यह गणना की जा सकी थी कि शहरी भारत में, शहरी गरीबी के लिए योजना आयोग द्वारा तय की गयी 2100 कैलोरी प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन की मूल सीमा रेखा तक पहुंच न पाने वालों का अनुपात, पूरे 60 फीसद था। यह अनुपात, 1993-94 के 57 फीसद के अनुपात से तो बढ़ोतरी को दिखाता था, हालांकि 2011-12 के 65 फीसद के अनुपात के मुकाबले घटकर था। लेकिन, ग्रामीण भारत में 2200 कैलोरी प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन के आहार स्तर तक नहीं पहुंच पाने वालों, जो कि ग्रामीण आबादी के लिए गरीबी का मूल मानदंड था, का अनुपात 80 फीसद से ऊपर चला गया था, जबकि 1993-94 में यही अनुपात 58 फीसद ही था और 2011-12 में 68 फीसद। दोनों को जोड़ दिया जाए तो, 2017-18 में वास्तविक गरीबी अनुपात, 2011-12 के मुकाबले उल्लेखनीय रूप से ज्यादा था, क्योंकि कुल आबादी में ग्रामीण भारत का वजन, कहीं ज्यादा रहता है। (ये आंकड़े उत्सा पटनायक की आने वाली पुस्तक से लिए गए हैं।)
संक्षेप में यह कि गरीबी, 2011-12 और 2017-18 के बीच उल्लेखनीय तरीके से बढ़ गयी थी। 2017-18 के बाद महामारी आयी थी और इसके चलते लॉकडाउन लगाया गया था, जिसके असर से अर्थव्यवस्था अभी उबर ही रही है, हालांकि आज बेरोजगारी महामारी से पहले के स्तर के मुकाबले कहीं ज्यादा है। इसलिए, यह दावा कि गरीबी अनुपात अब 2011-12 के मुकाबले नीचे आ गया है और इसके अनुसार यह अनुपात 2017-18 के मुकाबले तो और भी तेजी से घट गया है, जबकि यह वही दौर है जब देश की अर्थव्यवस्था महामारी की मार झेल रही थी, पूरी तरह से विश्वसनीयता ही खो देता है।
कैलोरी आहार ही गरीबी का विश्वसनीय संकेतक क्यों?
बेशक, यह दलील दी जा सकती है कि कैलोरी आहार को गरीबी का सूचक नहीं माना जा सकता है। लेकिन, यह दलील तो एक गलतफहमी पर ही आधारित होगी। नुक्ता यह नहीं है कि केवल कैलोरी आहार से ही गरीबी का आकलन किया जाना चाहिए। नुक्ता यह है कि जब कभी भी वास्तविक आय में बढ़ोतरी होती है, अनिवार्य रूप से उसका असर कैलोरी आहार में बढ़ोतरी के रूप में दिखाई देता है। दूसरे शब्दों में यह प्रस्थापना पूरी तरह से अस्वीकार्य है कि हमारे देश में आहार का जो स्तर है उस आहार स्तर पर, किसी व्यक्ति के ज्यादा खुशहाल होने पर भी, उसका कैलोरी आहार और घट रहा हो सकता है। अगर कैलोरी आहार के स्तर में गिरावट आती है, तो इसे वास्तविक आय में गिरावट का ही सूचक माना जाना चाहिए। और व्यवहारगत साक्ष्य इस प्रस्थापना का पूरी तरह से अनुमोदन करते हैं कि प्रतिव्यक्ति आय और प्रतिव्यक्ति खाद्यान्न उपभोग में (जिसका अर्थ प्रतिव्यक्ति कैलोरी आहार भी होता है), एक स्पष्ट और सीधा संबंध होता है।
अब चूंकि आमदनियों पर तो कोई आंकड़े हैं ही नहीं और चूंकि उपभोग खर्च के जो आंकड़े उपलब्ध हैं, उनका सार्थक तरीके से तुलना के लिए उपयोग तो किसी न किसी मूल्य सूचकांक के साथ जोड़कर ही किया जा सकता है। लेकिन, चूंकि सारे ही मूल्य सूचकांक अविश्वसनीय होते हैं, कैलोरी आहार को वास्तविक आय का प्रतिनिधि मानने और अलग-अलग समयावधियों में इस तरह के आहार की तुलना करने का हर प्रकार से औचित्य बनता है। और अगर हम इस संकेतक को अपनाएं तो हमें 2017-18 तक देश में गरीबी अनुपात में बढ़ोतरी ही दिखाई देती है और उसके बाद क्या हुआ, यह अभी कह ही नहीं सकते हैं। अगर सरकार 2022-23 के उपभोग सर्वे में मौजूद कैलोरी आहार संबंधी जानकारी उपलब्ध करा देती है, जोकि उसने अब तक नहीं किया है, तो हमें पक्के तौर पर इसका पता चल जाएगा कि गरीबी के मामले में क्या हो रहा है?
लेकिन, उक्त जानकारी न आने तक तो हमें इधर-उधर के परोक्ष साक्ष्यों का ही सहारा लेना पड़ेगा और ऐसे करीब-करीब सभी साक्ष्य न सिर्फ देश में खासे बड़े पैमाने पर गरीबी की मौजूदगी की ओर इशारा करते हैं बल्कि गरीबी अनुपात में गिरावट के बजाए, बढ़ोतरी की ओर ही इशारा करते हैं।
परिवार स्वास्थ्य सर्वे और विश्व भूख सूचकांक
पहला ऐसा परोक्ष साक्ष्य, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे से मिलता है। एनएफएचएस-5, जो 2019-21 की अवधि को कवर करता है, यह दिखाता है कि 15 से 49 वर्ष तक आयु वर्ग की महिलाओं के बीच खून की कमी के मामले, एनएफएचएस-4 के मुकाबले, जो 2015-16 को कवर करता था, बढ़ गए थे। जहां एनएफएचएस-4 के समय खून की कमी की शिकार महिलाओं का अनुपात 53 फीसद था, एनएफएचएस-5 के समय यह अनुपात बढ़कर 57 फीसद हो गया था। इतना ही नहीं, जिन राज्यों में 50 फीसद से ज्यादा महिलाएं खून की कमी की शिकार थीं, उनकी संख्या 2019-21 के दौरान बढ़कर 25 हो गयी थी, जबकि 2015-16 के समय ऐसे राज्यों की संख्या 21 ही थी। अक्सर यह दलील दी जाती है कि भारतीय महिलाओं में खून की कमी को इस तरह के आंकड़े बढ़ा-चढ़ाकर दिखाते हैं क्योंकि इनमें भारत में खून की कमी के माप के लिए उन्हीं मानकों का इस्तेमाल किया जाता है, जो पश्चिमी महिलाओं के लिए लागू किए जाते हैं, जो कि सही नहीं है। बहरहाल, अगर बहस के लिए हम किसी खास समयावधि के लिए इस दलील को सच मान भी लें तब भी, यह दलील कम से कम अलग-अलग अवधियों के बीच तुलना से निकलने वाले रुझानों के लिए तो अप्रासांगिक ही होगी और इसलिए, इन आंकड़ों से निकलकर आने वाली वक्त के साथ स्थिति बद से बदतर होने की सचाई असंदिग्ध है।
एक और परोक्ष साक्ष्य, हमें विश्व भूख सूचकांक से मिलता है। 2023 में भारत इस सूचकांक पर, ऐसे कुल 125 देशों में, जिनके लिए यह सूचकांक (जीएचआइ) तैयार किया जाता है, 111वें स्थान पर था। भारत सरकार ने इस सूचकांक पर यह कहते हुए आपत्ति की है कि यह भूख का त्रुटिपूर्ण माप पेश करता है। लेकिन, इस भूख सूचकांक में शामिल किए गए तत्वों और सूचकांक में उनको दिए गए आनुपातिक वजन से हम चाहे सहमत हों या नहीं हों, अगर किसी देश की सबसे निचले पायदान की 10 फीसद आबादी की भी प्रतिव्यक्ति वास्तविक आय में कोई उल्लेखनीय बढ़ोतरी हो रही हो, जिसके बिना गरीबी में वैसे भारी गिरावट हो ही नहीं सकती है, जिसका दावा किया जा रहा है, तो भूख सूचकांक पर संबंधित देश की स्थिति में सुधार तो होना ही चाहिए था।
व्यापक गरीबी के कुछ और संकेतक
लेकिन, बात इतनी ही नहीं है। भूख सूचकांक की गणना में शामिल किए जाने वाले अधिकांश तत्वों के मामले में, जैसे आबादी का अल्पपोषण, बच्चों का कम वजन का होना, बच्चों का ठिगना होना तथा बाल मृत्यु दर, आदि के पहलू से 2023 में हालात, 2008 के मुकाबले साफ तौर पर बदतर हो गए थे। इन कारकों में इकलौता अपवाद था, अल्पपोषण और इसके मामले में भी स्थिति मोटे तौर पर जस की तस थी और 2000 की तुलना में तो साफ तौर पर बदतर हो गयी थी। बेशक, भूख सूचकांक तैयार करने वाले खुद ही आगाह करते हैं कि अलग-अलग समयावधियों के स्कोरों को पूरी तरह से तुलनीय नहीं माना जा सकता है क्योंकि डाटा के स्रोतों में बदलाव होते हैं। फिर भी, यह तथ्य कि भूख सूचकांक तैयार करने में लगने वाले सभी संकेतकों के मामले में 2008 या 2000 की (अल्पपोषण के मामले में) तुलना में हालात बदतर हुए हैं, साफ तौर पर इसी का इशारा करता है कि आबादी के सबसे निचले पायदान पर आने वाले 10 फीसद हिस्से की वास्तविक आय में सुधार का जो दावा किया जा रहा है (जिसके बिना गरीबी में कोई भारी गिरावट हो ही नहीं सकती है), पूरी तरह से निराधार ही है।
तीसरा परोक्ष साक्ष्य कथित ‘‘जीरो फूड चिल्ड्रन’’ यानी 6 से 23 माह तक आयु के ऐसे बच्चों की मौजूदगी है, जिन्हें (सर्वे से पहले के) 24 घंटों में मां के दूध के अलावा और कोई आहार ही नहीं मिला हो। बेशक, ‘‘जीरो फूड’’ से ऐसा लगता है जैसे इन बच्चों को चौबीस घंटे में कोई आहार ही नहीं मिला हो, जोकि सही नहीं है। वास्तव में इसका मतलब तो यही है कि इन बच्चों को पिछले 24 घंटे में माता के दूध को छोड़कर, कोई पूरक आहार ही नहीं मिला हो। 2023 में भारत में ऐसे बच्चों की संख्या 67 लाख थी। इस तथ्य से इंकार ही नहीं किया जा सकता है कि यह अभावग्रस्तता की स्थिति है। और अगर यह भी मान लिया जाए कि हमेशा ऐसा होने के लिए संबंधित परिवार के हाथों में क्रय शक्ति की कमी ही जिम्मेदार नहीं होती है, ऐसा होने का संबंध निश्चित रूप से इस तथ्य से है कि ये ऐसे बच्चे होते हैं जिनके माता-पिता को अपनी रोटी कमाने के लिए ज्यादा घंटों तक काम करना पड़ता है, जो कि गरीबी की ही एक और अभिव्यक्ति है। प्रासंगिक आयु वर्ग के बच्चों की कुल संख्या में ऐसे बच्चों का अनुपात भारत में 19.3 फीसद बैठता है, जो दुनिया भर में तीसरा सबसे ज्यादा अनुपात है। इस मामले में गिनी (21.8 फीसद) और माली (20.5 फीसद) ही भारत से ऊपर हैं। यह भी इसी का इशारा करता है कि सबसे निचले पायदान पर आने वाले आबादी के दशांशों की वास्तविक आय में उस बढ़ोतरी के दावे, जिसके गरीबी को ही देश से बाहर कर देने की बातें की जा रही हैं, पूरी तरह से निराधार हैं।
अब सरकार चाहे गरीबी के मुद्दे पर कुछ भी दावे क्यों न करे, सारी दुनिया जानती है कि भारत एक बेहद गरीब देश है। संयुक्त राष्ट्र की हाल की एक रिपोर्ट में यह पाया गया था कि भारत की 74 फीसद आबादी, वह न्यूनतम पोषणयुक्त खुराक भी हासिल नहीं कर पा रही है, जो खाद्य व कृषि संगठन (एफओए) ने दक्षिण एशिया के लिए तय की है। यह एक स्तब्ध कर देने वाली सचाई है।
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