बहस-तलब: पूंजीवाद के तहत गरीबी का विशिष्ट रूप
तस्वीर केवल प्रतीकात्मक प्रयोग के लिए। साभार: सोशल मीडिया
गरीबी को एक एकरूप परिघटना माना जाता है, जिसके लिए इससे फर्क नहीं पड़ता है कि किस तरह की उत्पादन पद्धति के संदर्भ में विचार किया जा रहा है। यहां तक कि प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री तक गरीबी की इस एकरूप अवधारणा में विश्वास करते हैं। लेकिन, सच्चाई यह है कि पूूंजीवाद के अंतर्गत गरीबी, पूर्व-पूंजीवादी जमाने से पूरी तरह से भिन्न होती है।
अगर सांख्यिकीय उद्देश्यों के लिए गरीबी को उपयोग मूल्यों के एक ऐसे सैट तक पहुंच के अभाव से परिभाषित किया जाता है, जो उत्पादन पद्धति से परे जिंदा रहने के लिए आवश्यक होते हैं, तो भी यह सच्चाई अपनी जगह रहती है कि यह अभाव या अनुपलब्धता पूंजीवाद के अंतर्गत ऐसे सामाजिक संबंधों के साथ गुंथी रहती है, जो अनोखे होते हैं और पहले की उत्पादन पद्धतियों से भिन्न होते हैं। इस प्रकार पूंजीवाद के अंतर्गत गरीबी असुरक्षा तथा गरिमाहीनता से जुड़ा एक विशिष्ट रूप ले लेती है, जो उसे खासतौर पर असह्य बना देता है।
पूंजीवादी गरीबी और कंगाली
मोटे तौर पर पूंजीवादी गरीबी की चार खासियतें होती हैं। पहली खासियत, सौदों की अनुल्लंघनीयता से निकलती है, जिसका अर्थ यह है कि उनकी दशा चाहे जैसी भी हो, गरीबों को जिस भुगतान का उन्होंने सौदा किया है, उसे पूरा करना ही होता है। यह परिसंपत्तियों के छिनने या कंगाल हो जाने की ओर ले जाता है। पूंजीवाद से पहले के दौर में, मिसाल के तौर पर मुगल भारत में, राजस्व की देनदारी उत्पाद के अनुपात के रूप में तय की जाती थी। इसका मतलब यह होता था कि जिन वर्षों में फसल खराब रहती थी, किसानों की राजस्व की देनदारी खुद ब खुद घट जाती थी। इसे दूसरी तरह से कहें तो खराब फसल का बोझ, काश्तकार और उससे लगान लेने वाले के बीच बंट जाता था।
लेकिन औपनिवेशिक भारत में, उसके पूंजीवादी मिजाज के अनुरूप, उत्पादनकर्ता और उससे लगान वसूल करने वाले के बीच, सौदा बदल गया। अब उत्पादनकर्ता, शासन को एक निश्चित मात्रा में राजस्व देने के बदले में ही, जमीन के किसी टुकड़े पर खेती कर सकता था। इसका मतलब यह था कि खराब फसल के वर्ष में, फसल खराब होने का बोझ उत्पादक और राजस्व वसूल करने वाले के बीच बंटता नहीं था और सारा का सारा बोझ उत्पादक के ही ऊपर पड़ जाता था।
दूसरे शब्दों में, अब सौदा एक निश्चित मात्रा में पैसे के भुगतान का था, न कि उत्पाद के हिस्से के तौर पर या उसके मुद्रा समतुल्य के रूप में, एक परिवर्तनीय राशि के लिए। इसका नतीजा था किसानों का कंगाल होना यानी उनकी परिसंपत्तियों का महाजनों के हाथों में चले जाना। संक्षेप में गरीबी, इस तरह कंगाल होने से जुड़ी हुई थी और इसलिए, इस कंगाल किए जाने का उत्पादकों पर सब मिलाकर प्रभाव होता था।
दूसरी तरह से कहें तो, उत्पादकों के आवश्यक उपयोग मूल्यों तक पहुंच के अभाव का जो ‘‘प्रवाहशील’’ हिस्सा था, उसके साथ ही साथ उनके परिसंपत्तियों से वंचित होने की ‘‘स्टॉक’’ के पहलू की प्रक्रिया चल रही थी, जिसका अर्थ था वक्त के साथ उनकी वेध्यता का बढ़ते जाना। इस तरह, गरीबी में एक गतिकी आ जाती थी।
गरीबी की चोट के निशाने पर व्यक्ति
पूंजीवादी गरीबी की दूसरी खासियत यह है कि इसकी मार का असर व्यक्तियों पर पड़ता है, एक अकेले व्यक्ति के रूप में या एक परिवार के रूप में। पूर्व-पूंजीवादी समाज में, जहां लोग समुदायों में रहा करते थे, समुदाय के अन्य सदस्य, चाहे वे उसी जाति समूह से हों या फिर उसी गांव के हों, खराब फसल के या प्राकृतिक आपदा के वर्षों में, गरीबों की मदद करते थे। दूसरे शब्दों में, गरीब को वंचनाओं को अकेले-अकेले नहीं झेलना पड़ता था। लेकिन पूंजीवाद के अंतर्गत, जब व्यवस्था के निर्दय तर्क द्वारा समुदायों को तोड़ दिया जाता है और व्यक्ति प्राथमिक आर्थिक श्रेणी बनकर सामने आ जाता है, इस व्यक्ति को वंचनाओं को भी अकेले-अकेले ही भुगतना पड़ता है।
आर्थिक सिद्धांत की गैर-मार्क्सवादी परंपराएं इस बुनियादी बदलाव को देखने में विफल रहती हैं क्योंकि उनमें इतिहास की चेतना नहीं होती है। मार्क्स ने क्लासिक अर्थशास्त्र पर इतिहास के प्रति इस अंधेपन का आरोप लगाया था। व्यक्ति, जो इतिहास में एक खास मुकाम पर उभर कर सामने आता है, उसे यह अर्थशास्त्र हमेशा से अस्तित्वमान मान लेता है। जाहिर है कि नव-क्लासिकी अर्थशास्त्र ने कार्ल मेंगर तथा स्टेनली जेवन्स से लगाकर, व्यक्ति को पूजा की मूर्ति बना दिया, जिसकी शुरूआत 1870 के ईर्द-गिर्द हुई। इसमें व्यक्ति को एक शाश्वत श्रेणी और आर्थिक विश्लेषण के लिए अपना प्रस्थान बिंदु बना लिया गया। इसलिए, ये दोनों ही धाराएं पूंजीवादी गरीबी और पूर्व-पूंजीवादी गरीबी के अंतर को पहचानने में विफल रहीं, जबकि पूंजीवादी गरीबी को अलग-अलग, अलगाव में पड़े व्यक्ति झेलते हैं, जिससे भिन्न पूर्व-पूंजीवादी गरीबी का संबंध ऐसी वंचना से होता है, जिसे एक समुदाय के हिस्से के तौर पर झेला जाता है और इसलिए वंचितता को साझा किया जा रहा होता है।
यह तथ्य कि पूंजीवाद की पहचान अलगाव में पड़े व्यक्तियों से होती है (तब तक जब तक कि वे ‘समूह’ या ट्रेड यूनियनें नहीं बना लेते हैं, जो उन्हें व्यवस्था के खिलाफ साझा संघर्ष में एकजुट करती हैं) और ये व्यक्ति ही गरीबी को झेल रहे होते हैं, इस गरीबी में एक अतिरिक्त पहलू जोड़ देता है; पूंजीवादी गरीबी उपयोग मूल्यों के एक सैट तक पहुंच के अभाव का ही नाम नहीं है बल्कि इसमें वह मनोवैज्ञानिक आघात भी शामिल है, जो इस पहुंच के अभाव के साथ लगा रहता है।
यह तब और स्पष्ट हो जाता है, जब हम पूंजीवादी गरीबी की तीसरी विशेषता को देखते हैं। यह गरीबी दो कारणों से पैदा होती है। एक है, रोजगार में लगे लोगों की कम मजदूरी और दूसरा है, रोजगार का अभाव। श्रम की सुरक्षित सेना या बेरोजगारों की फौज खासतौर पर गरीबी की शिकार होती है। वास्तव में हमारे जैसी अर्थव्यवस्थाओं में, जहां ‘‘बा-रोजगार’’ और ‘‘बे-रोजगार’’ दो पूरी तरह से भिन्न श्रेणियां नहीं हैं बल्कि एक बहुत छोटे से अल्पमत को छोडक़र, ज्यादातर मजदूर सप्ताह में कई दिन या दिन में कई घंटे बेरोजगार रहते हैं, रोजगार हासिल करने में असमर्थता से पैदा होने वाली गरीबी से जुड़ा मनावैज्ञानिक आघात, और भी ज्यादा व्यापक होता है। रोजगार का अभाव संंबंधित व्यक्ति को निजी विफलता नजर आता है, एक ऐसी चीज जो उपयोग मूल्यों के एक खास सैट तक पहुंच का अभाव पैदा करने के अलावा व्यक्ति के आत्मसम्मान को भी खत्म कर देती है।
पूंजीवादी गरीबी के शिकारों से इसके कारण छिपे रहते हैं
पूंजीवादी गरीबी की चौथी खासियत है, इसकी मार की नजर से, इसे पैदा करने वाले कारकों का छिपा रहना। पूर्व-पूंजीवादी समाज में, उपयोग मूल्यों के एक खास सैट तक पहुंच के अभाव के रूप में गरीबी साफ तौर पर इससे तय हो रही होती है कि उत्पादनकर्ता की पैदावार कितनी है और उसमें से कितना हिस्सा सामंती प्रभु द्वारा लिया जा रहा है। वास्तव में यह सभी को नजर आ रहा होता है। फसल खराब होती है तो पैदावार की मात्रा घट जाती है और इससे गरीबी बढ़ जाती है, हालांकि पैदावार में इस गिरावट को दूसरों के साथ साझा किया जा रहा होता है। इसी प्रकार, अगर सामंती प्रभु लुटेरा हो तो वह उत्पादकों से इतना ज्यादा हिस्सा छीन सकता है कि उनमें से अनेक सामान्य पैदावार के वर्षों में भी गरीबी की अवस्था में धकेल दिए जा सकते हैं।
लेकिन, जब पूंजीवादी अवस्था में कोई व्यक्ति बेरोजगार रहता है और इसके चलते गरीबी झेलता है, उसके गरीबी झेलने का कारण खुद उस व्यक्ति के लिए भी एक रहस्य बना रहता है। इसी प्रकार, जब कीमतें अचानक बढ़ती हैं और यह लोगों को गरीबी में धकेलता है, ऐसा क्यों हो रहा है यह इसकी मार झेलने वालों के लिए भी एक रहस्य ही बना रहता है।
1943 के बंगाल के अकाल पर सत्यजीत राय की फिल्म, अशनि संकेत दिखाती है कि अकाल की पूर्व-संध्या में बंगाल में कीमतें बढ़ती हैं, जबकि जापानी सेनाओं ने सिंगापुर पर कब्जा किया होता है। आज यूक्रेन युद्ध निश्चित रूप से खाद्यान्न की कीमतों में विश्वव्यापी बढ़ोतरी में योग दे रहा है, जिससे दूर-दराज के अफ्रीकी या भारतीय गांवों तक गरीबी बढ़ रही है। पूंजीवादी गरीबी के कारणों को लेकर प्रकट अस्पष्टता, पूंजीवाद के अंतर्गत वैश्विक परस्पर-संबद्धता की परिघटना से जुड़ी हुई है। इसका नतीजा यह है कि वैश्विक घटनाक्रमों का, दूर-देशों के घटनाक्रमों का, एक-एक गांव तक असर जाता है, भले ही ये गांव घटनाक्रम से कितनी ही दूरी पर स्थित क्यों नहीं हों।
गरीबी दूर करने के लिए हस्तांतरण नाकाफी रहेंगे
पूंजीवादी गरीबी की इन खासियतों के महत्वपूर्ण निहितार्थ हैं, जिनमें से सिर्फ एक की ओर ही मैं यहां ध्यान खींचूंगा। बहुत से नेकनीयत लोग, जो गरीबी को घटाने या खत्म किए जाने के हामी हैं, यह सुझाव देते हैं कि सरकारी बजट से हस्तांतरण किए जाने चाहिए, जिससे समाज में सभी को एक बुनियादी न्यूनतम आय हासिल हो सके। बेशक, यह वांछित स्तर पर तो कहीं भी नहीं हुआ है, जिससे गरीबी एक सामाजिक परिघटना बनी हुई है और विश्वव्यापी खाद्यान्न मूल्य मुद्रास्फीति तथा इसके साथ ही साथ, नव-उदारवादी पूंजीवाद द्वारा पैदा की जा रही मंदी के चलते, गरीबी बढ़ती ही जा रही है। यहां तक कि हस्तांतरण के सुझाव भी अपरिहार्य रूप से एक हद तक मामूली हस्तांतरणों के ही सुझाव बने रहते हैं। लेकिन, यह सब भी उपयोग मूल्यों के निश्चित सैट तक पहुंच की अपर्याप्तता के अर्थ में ही गरीबी को संबोधित करता है यानी उस गरीबी को, जो पूंजीवादी गरीबी की विशिष्टताओं को नहीं समेटती है।
अगर पर्याप्त हस्तांतरण भी किए जा सकते हों और उपयोग मूल्यों तक पहुंच के अर्थ में गरीबी पर काबू भी पा लिया जाए, तब भी इससे पूंजीवादी गरीबी खत्म होने वाली नहीं है, जिसमें बेरोजगारी का मनोवैज्ञानिक आघात, इसके जरिए व्यक्ति के आत्मसम्मान का छीना जाना भी शामिल है। इस सच्चे अर्थ में पूंजीवादी गरीबी से उबरना अंतर्निहित रूप से सार्वभौम रोजगार का तकाजा करता है।
केन्स का ख्याल था कि यह पूंजीवाद के अंतर्गत भी किया जा सकता था, लेकिन वह गलत साबित हुए हैं। यह कहने का आशय यह कदापि नहीं है कि हस्तांतरण नहीं किए जाने चाहिए। लेकिन, हस्तांतरण अपर्याप्त ही होते हैं, ये ऐसे लक्षण-उपचार को दिखाते हैं, जो समस्या की जड़ तक नहीं जाता है।
इसी प्रकार भारत में इस समय, करीब 80 करोड़ लाभार्थियों को प्रति माह, प्रतिव्यक्ति पांच किलोग्राम अनाज मुफ्त दिया जा रहा है। इसमें से कितना वाकई लाभार्थियों तक पहुंचता है और यह योजना कब तक चलेगी (इसकी शुरुआत महामारी के चलते की गयी थी), ये नुक्ते बहसतलब हैं। बहरहाल, किसी को अगर लगता है कि इस तरह की योजनाएं आज के भारत में गरीबी का रामबाण उपाय हैं, तो वह गलती कर रहा है। इसके लिए तो जरूरत होगी रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, वृद्धावस्था सुरक्षा और भोजन के प्रावधान की, जो लोगों की एक जनतांत्रिक समाज का नागरिक होने की गरिमा बहाल करेगा। लेकिन, उसके लिए तो नव-उदारवादी पूंजीवाद को लांघकर उससे आगे जाना होगा।
(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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