विश्व पुस्तक मेला पर छाए भगवा राजनीति के काले बादल!
विश्व पुस्तक मेला को “ज्ञानकुंभ” और पुस्तकों को “ज्ञानगंगा” की संज्ञा दी जाती है। दिल्ली में साल दर साल इस ज्ञानकुंभ का आयोजन करने का मकसद देश के युवाओं को ज्ञान-विज्ञान, दर्शन एवं साहित्य से अवगत कराने के साथ ही आधुनिक, तर्कशील और विवेकवान नागरिक बनाना है लेकिन इस बार विश्व पुस्तक मेले पर भी भगवा राजनीति के “ काले बादल” मंडराने लगे हैं। इस बार प्रगति मैदान में न तो पुस्तक प्रेमियों का हुजूम है और न ही विश्व पुस्तक मेले की वह बहुरंगी छटा। यह “खास पुस्तकों और प्रकाशकों” का मेला बन गया है। ज्ञान-विज्ञान और भाषायी पुस्तकों के छोटे प्रकाशक मेले से नदारद है। उनके स्थान पर बड़े प्रकाशक और धार्मिक समूहों के प्रकाशन काबिज़ हो गए हैं। इस बार विश्व पुस्तक मेला अंधविश्वास, पोगापंथ बढ़ाने वाले साहित्य और धार्मिक पुस्तकों से अटा पड़ा है। विश्लेषणात्मक सोच और दूसरे विचारों के प्रति सम्मान की भावना की सीख देने वाले पुस्तकों के प्रकाशक मेले से बाहर हैं। पुस्तक मेले की इस छटा के कारण पुस्तक मेले में गए कई लोग किताबों के साथ ही निराशा भी लेकर आये।
सन् 1972 से दिल्ली में विश्व पुस्तक मेला का आयोजन किया जा रहा है। इस कड़ी में यह 27वां पुस्तक मेला है। दिल्ली के प्रगति मैदान में 5 जनवरी से शुरू हुआ “नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला” 13 जनवरी तक चलेगा। पुस्तक मेला में 700 प्रकाशक आये हैं और 1350 के करीब बुक स्टॉल लगाए गए हैं। पड़ोसी देश पाकिस्तान, चीन, श्रीलंका, नेपाल समेत करीब 20 देशों के प्रकाशक हिस्सा ले रहे हैं। लेकिन इस बार हिन्दी में समयांतर, ग्रंथशिल्पी और जन-मीडिया जैसे ढेर सारे छोटे प्रकाशकों को मेले में जगह नहीं मिल सकी है।
संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) का सदस्य शारजाह “अतिथि देश” के तौर पर हिस्सा ले रहा है। भारत व्यापार संवर्धन संगठन (आईटीपीओ) और नेशनल बुक ट्रस्ट के सहयोग से आयोजित हो रहे पुस्तक मेले की थीम “दिव्यांगजन की पठन आवश्यकताएं” रखी गई है। नेशनल बुक ट्रस्ट (एनबीटी) के अध्यक्ष बलदेव भाई शर्मा कहते हैं कि विश्व पुस्तक मेला-2019 के थीम पवेलियन में विशेष तौर पर ब्रेल किताबें, ऑडियो किताबें, प्रिंट-ब्रेल किताबें, लोगों व बच्चों व दिव्यांग लोगों के लिए प्रदर्शित किया जा रहा है। एक अंतर्राष्ट्रीय दिव्यांग फिल्म महोत्सव “वी केयर” में 27 देशों की फिल्में भी दिखाई जा रही हैं।
विश्व पुस्तक मेला का उद्घाटन करते हुए मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि, “ज्यादा से ज्यादा से लोगों में पढ़ने की संस्कृति का विस्तार होना चाहिए क्योंकि इससे विश्लेषणात्मक सोच जैसे मूल्यों की सीख मिलती है और विभिन्न विचारों के प्रति सम्मान की भावना विकसित होती है। पढ़ने की संस्कृति नए आयाम प्रदान करती है और इससे जीवन को एक लक्ष्य मिलता है। पुस्तकें दुनिया के ढेर सारे भिन्न अनुभवों से हमें रूबरू कराती हैं। मुझे खुशी है कि हमारे देश में पढ़ने की संस्कृति बढ़ रही है और हमारा जीवन पढ़ाई के जरिए एक लक्ष्य पा रहा है।” लेकिन ऐसा लगता है कि मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावडेकर का कथन विश्व पुस्तक मेला पर लागू नहीं होता है। क्योंकि मेले में ज्ञान,अनुभव और दूसरे विचारों के प्रति सम्मान भाव पैदा करने वाले तत्वों को उपेक्षित किया गया है।
दशकों से पुस्तक प्रेमियों, युवाओं और छात्रों को आकर्षित करने वाले कई प्रकाशन इस बार पुस्तक मेले में नहीं हैं। क्या ये महज संयोग है या छात्रों-युवाओं के जेहन को प्रगतिशील, तर्कशील और विवेकवान बनाने वाली पुस्तकों को साजिशन बाहर कर दिया गया। इसका उत्तर समयांतर पत्रिका के संपादक पंकज बिष्ट के जवाब से मिल सकता है। पंकज कहते हैं- “मैं पिछले पंद्रह साल से विश्व पुस्तक मेला में समयांतर प्रकाशन का स्टैंड लगाता रहा हूं। लेकिन इस बार मुझे जगह नहीं दी गयी। छोटे प्रकाशकों को जो जगह मिलती थी उसे धार्मिक और हिंदुत्व प्रचार सामग्री छापने वालों को दे दिया गया। इकोनॉमी क्लास (छोटे प्रकाशनों और पत्र-पत्रिकाओं) को पहले 6 से 7 हजार में जगह मिल जाती थी इस बार उसे बढ़ा कर 13 हजार कर दिया गया। नेशनल बुक ट्रस्ट ने 15 अक्टूबर से जगह आवंटित करना शुरू किया और महज पांच-सात दिनों के अंदर ही पूरी जगह को आवंटित कर दिया गया। जब हमने जगह के लिए कोशिश करनी शुरू की तो पता चला कि सारा आवंटन हो चुका है।”
नेशनल बुक ट्रस्ट के अधिकारी छोटे प्रकाशकों के साथ भेदभाव के आरोप को खारिज करते हैं। उनका कहना है कि, “आईटीपीओ में निर्माण कार्य चल रहा है जिससे पहले की अपेक्षा बहुत कम जगह उपलब्ध हो पाई है। हमारे पास पहले जितने हॉल होते थे इस बार उतने नहीं मिल पाए हैं। पिछली बार जहां विश्व पुस्तक मेला 35000 वर्ग मीटर क्षेत्रफल में आयोजित था वहीं इस बार 22000 वर्ग मीटर क्षेत्रफल ही उपलब्ध हो सका है। इस बार हमें सीमित स्थान उपलब्ध हुआ है। जिसका असर मेले पर देखा जा सकता है। ऐसा नहीं है कि जानबूझ कर छोटे प्रकाशकों को मेले से बाहर कर दिया गया।”
एनबीटी के अधिकारी भले ही किसी तरह के भेदभाव न बरतने की सफाई पेश करें लेकिन मामला मात्र जगह की उपलब्धता भर का नहीं है। “इस्लाम कंपलीट सिस्टम फॉर लाइफ” एक दशक से पुस्तक मेले में अपना स्टॉल लगाता रहा है। लेकिन इस बार कड़ी मशक्कत के बाद उसे महज छोटा और कोने का स्थान ही मिल सका। इस प्रकाशन से जुड़े इमरान अहमद कहते हैं कि बहुत कोशिश के बाद मुझे कोने में यह जगह मिली। इससे बहुत नुकसान हो रहा है। ग्राहक कम आ रहे हैं।
वरिष्ठ पत्रकार रामशरण जोशी इस बार पुस्तक मेला को फीका बताते हैं। कारण पूछने पर कहते हैं कि, “मैं दो दशक से पुस्तक मेले को देख रहा हूं लेकिन इस बार पुस्तक मेला की रंगत उड़ी हुई है। विश्व पुस्तक मेला लघु पुस्तक मेला दिखाई देता है। भाषायी प्रकाशनों की काफी कटाई-छंटाई हो चुकी है। पूरे मेले पर केसरिया रंग चढ़ा हुआ है। धार्मिक पुस्तकों का जरूरत से ज्यादा बोलबाला है और छोटे प्रकाशक नहीं के बराबर हैं। यही नहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर लिखी गयी पुस्तकों का विशेष प्रचार-प्रसार किया जा रहा है। वाणी, राजकमल, संवाद, प्रभात, पेंग्विन, रूपा और अन्य तमाम प्रकाशकों के स्टॉल पर भी पाठकों के लिए खास व्यवस्था की गई है। और कुछ बड़े प्रकाशकों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है लेकिन यदि यही हाल रहा तो भविष्य में पुस्तक और पाठक संस्कृति को गहरा आघात लगेगा।”
जन मीडिया स्टडी ग्रुप के अनिल चमड़िया कहते हैं कि,“दिल्ली का विश्व पुस्तक मेला एक धर्मनिरपेक्ष देश का पुस्तक मेला है। मेले में शरजाह की उपस्थिति और भागीदारी तो ठीक है लेकिन पहली बार मेले का शुभारंभ गणेश की प्रतिमा स्थापित करके किया गया। यह देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर हमला है। इस बार पहले दिन से ही पूरा मेला अव्यवस्था का शिकार दिखता है। कंपकपा देले वाली ठंड पड़ रही है, पहले मेले के अंदर सस्ती चाय और कॉफी की मशीन लगी रहती थी। इस बार उसे इतना महंगा कर दिया गया कि मशीनें नहीं लगीं। इससे मेले में आने वाले लोगों को चाय और कॉफी नहीं मिल पा रही है। पहली बार स्टैंड खत्म करके छोटे प्रकाशकों को मेले से बाहर कर दिया गया। और बड़े प्रकाशकों को सब्सिडी दी है जैसे पूरा मेला उन्हीं के लिए आयोजित किया गया हो।”
तमाम अन्य प्रकाशकों की तरह इस बार जन मीडिया और स्टडी ग्रुप का भी स्टाल नहीं लगा। इस पर अनिल चमड़िया कहते हैं कि पिछले पांच वर्षों से जन मीडिया विश्व पुस्तक मेले में स्टैंड लगाता रहा है। लेकिन इस बार हमारी तरह तमाम छोटे प्रकाशक मेले से बाहर हो गए। मेले को आयोजित करने में जहां नियम-कानूनों को तोड़ा गया वहीं पर पुस्तक मेले का प्रचार-प्रसार भी नहीं किया गया। यह विश्व पुस्तक मेला है लेकिन इस बार रविवार को भी भीड़ नहीं आयी। दिल्ली और देश के अधिकांश लोगों को पता ही नहीं है कि विश्व पुस्तक मेला-2019 शुरू हो गया है।
शारजाह के शाही परिवार के सदस्य शेख फहीम बिन सुल्तान अल कासिमी विश्व पुस्तक मेला में मुख्य अतिथि थे। मेला के उद्घाटन कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि मजबूत अंतर-सांस्कृतिक रिश्तों को बढ़ाने के लिए ऐसे कार्यक्रम अहम हैं। हम इस साझेदारी का निर्माण आर्थिक, वैज्ञानिक, शैक्षिक और सांस्कृतिक मोर्चे पर जारी रखना चाहते हैं। हमारा कारोबार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का लंबा इतिहास रहा है जो सैकड़ों सालों से है। यूएई के राष्ट्रपति ने 2019 को सहिष्णुता वर्ष घोषित किया है। यह सभी देशों में बहुसंस्कृतिवाद, सभ्यता और समृद्धि को बढ़ावा देगा। लेकिन विश्व पुस्तक मेला में जिस तरह से एक खास धर्म के प्रकाशकों को महत्व दिया गया और शेष को किनारे कर दिया गया वह किसी भी बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक और बहुधार्मिक देश के लिए अच्छा संकेत नहीं है।
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