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मोदी जी, शहरों में नौकरियों का क्या?

पिछले कुछ वर्षों से 7-8 प्रतिशत की बेरोज़गारी दर के चलते शहरों में नौकरी चाहने वाले असहाय और निराश हैं।
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Image Courtesy: DNA India

शहरी क्षेत्रों को कभी रोज़गार और आर्थिक विकास का इंजन माना जाता था। लेकिन नरेंद्र मोदी की आर्थिक नीतियों की पूर्ण विफलता के कारण अब ऐसा नहीं है। इस स्थिति के चलते, ग्रामीण क्षेत्र, विशेष रूप से कृषि क्षेत्र जरूरत से अधिक मेहनतकश लोगों को अवशोषित करना या काम देना जारी रखे हुए है। इसका मतलब है कि एक ही आय को बड़ी संख्या में लोगों के बीच बांटा जा रहा है। लेकिन सवाल तो यह है कि शहर के अधिकतर पढ़े-लिखे युवा कहां जाएंगे?

सीएमआईई के आंकड़ों के अनुसार, पिछले तीन वर्षों से शहरी बेरोज़गारी दर लगभग 8 प्रतिशत पर मँडरा रही है। अप्रैल-मई 2020 में कल्पना से दूर लगाए पहले लॉकडाउन के दौरान बेरोज़गारी की दर 25 प्रतिशत तक बढ़ गई थी। फिर यह मई 2021 में फिर से ऊपर जाने के बाद थोड़ा सा नीचे आ गई थी और कोविड-19 की घातक दूसरी लहर के दौरान लगे प्रतिबंध के बाद यह लगभग 15 प्रतिशत पर पहुँच गई थी। प्रतिबंधों में ढील दिए जाने के बाद यह फिर से नीचे आ गई थी। लेकिन जब भी दर नीचे आती तब भी यह लगभग 8 प्रतिशत या उससे अधिक पर टिकी रहती है। [नीचे ग्राफ देखें]

पिछले तीन साल से चल रही बेरोज़गारी दर परिवारों के लिए विनाशकारी साबित हुई है। इसका मतलब यह है कि जब इसके बारे खोज की गई तो पाया गया कि या तो परिवार बड़ी संख्या में  कर्ज, दान पर ज़िंदा हैं या शायद मात्र ज़िंदा रहने के लिए अस्थायी काम पर निर्भर हैं।

रोज़गार शुदा लोगों की संख्या में कमी 

सीएमआईई के अनुमानों के अनुसार, जनवरी 2019 में शहरी भारत में कार्यरत व्यक्तियों की कुल संख्या 12.84 करोड़ थी। दिसंबर 2021 की शुरुआत में यह घटकर 12.47 करोड़ हो गई थी। दूसरे शब्दों में, जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ी है (उसके साथ काम करने वालों की आबादी भी बढ़ी है), शहरी क्षेत्रों में लगभग 37 लाख कार्यरत लोगों संख्या में पूर्ण गिरावट आई है।

इसकी तुलना ग्रामीण स्थिति से करें, जहां, इन तीन सालों की अवधि में, कुल रोज़गार शुदा  व्यक्तियों की संख्या 27.77 करोड़ से घटकर 27.68 करोड़, यानी लगभग 9 लाख हो कम हो गई थी। तथ्य यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में गिरावट भी चिंताजनक है - लेकिन यह अभी भी शहरी क्षेत्रों में आई गिरावट से काफी कम है।

यह इस तथ्य के बावजूद है कि देश में कृषि संकट बरपा हुआ है फिर भी यह क्षेत्र अधिक श्रम बल को अवशोषित करना जारी रखे हुए है, ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना जैसे विभिन्न कार्यक्रम भी ग्रामीण क्षेत्रों में कुछ राहत प्रदान करने में मदद करते हैं।

आधिकारिक मनरेगा पोर्टल पर उपलब्ध नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, इस कार्यक्रम में नौकरी पाने वाले व्यक्तियों की संख्या 2019-20 में 7.88 करोड़ से बढ़कर 2020-21 में 11.18 करोड़ और 11 दिसंबर, 2021 तक 9.06 करोड़ हो गई है। स्पष्ट रूप से, ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना ग्रामीण क्षेत्रों में करोड़ों असहाय बेरोजगारों को राहत प्रदान कर रही है, हालांकि यह प्रति परिवार लक्ष्य 100 दिनों से बहुत कम है  और न्यूनतम मजदूरी से केवल एक मामूली राहत है।

शहरी क्षेत्रों में, ऐसी कोई राहत उपलब्ध नहीं है, हालांकि इसी तरह की नौकरी गारंटी योजना के लिए बार-बार मांग की गई है।

गिरती कार्य भागीदारी दर

सीएमआईई सर्वेक्षण के आंकड़ों से एक और भी अधिक चिंताजनक और वास्तव में चौंकाने वाली जानकारी सामने आई है। शहरी क्षेत्रों में ही कार्य भागीदारी दर में गिरावट आ रही है। जनवरी 2019 में यह लगभग 41.5 प्रतिशत थी जो दिसंबर 2021 में घटकर 37.5 प्रतिशत हो गई है।[नीचे ग्राफ देखें]

यह संख्या उन लोगों की है जो या तो कार्यरत हैं या वर्तमान में बेरोज़गार हैं लेकिन काम करने के इच्छुक हैं। यह रोज़गार शुदा और बेरोज़गार दोनों व्यक्तियों का जोड़ है।

इस संख्या में गिरावट बेरोज़गारी के संकट की भयावह प्रकृति को दर्शाती है - लोग इतने निराश और टूटे हुए हैं कि उन्होंने उम्मीद खो दी है और काम की तलाश नहीं कर रहे हैं। जब सर्वेक्षक उनसे संपर्क करते हैं, तो वे बस इतना कहते हैं कि वे अब काम के लिए उपलब्ध नहीं हैं। यह तभी हो सकता है जब वे रोज़गार की दशा से थके हुए हो और निराश हों और बेहतर दिनों की आश में अपना समय बिता रहे हों (अच्छे दिन, जैसा कि मोदी जी ने वादा किया था!)

आप ऊपर दिए गए ग्राफ में देख सकते हैं कि पहले लॉकडाउन के दौरान अप्रैल-मई 2020 में कार्य भागीदारी दर घटकर 32.5 प्रतिशत के रिकॉर्ड यानि काफी निचले स्तर पर आ गई थी। आवश्यक सेवाओं और कृषि कार्य को छोड़कर अर्थव्यवस्था बंद थी (रबी फसल की कटाई जारी थी)। शहरी क्षेत्रों में पुलिस और प्रशासन के माध्यम से लॉकडाउन को बेरहमी से लागू किया गया था। लाखों प्रवासी कामगार अपने गाँव वापस चले गए थे। लोगों को काम करने या काम की तलाश में कोई दिलचस्पी नहीं थी क्योंकि उन्होंने एहसास हो गया था कि उनके लिए कोई भी काम उपलब्ध नहीं है। यह एक स्पष्ट उदाहरण है कि कार्य भागीदारी दर क्यों गिरती है।

हैरानी की बात यह है कि दूसरी लहर के दौरान, अप्रैल-मई-जून 2021 में, कार्य भागीदारी दर उसी तरह कम नहीं हुई। ऐसा इसलिए है क्योंकि लॉकडाउन इतने प्रतिबंधात्मक नहीं थे और न ही उन्हें सार्वभौमिक रूप से लागू किया गया था। लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि पिछले साल के झटके से लोग इतने तबाह हो गए थे कि वे काम से दूर रहने का जोखिम नहीं उठा सकते थे। इसलिए, भले ही बेरोज़गारी दर लगभग 15 प्रतिशत तक बढ़ गई (ऊपर पहला ग्राफ देखें), कार्य भागीदारी दर में केवल मामूली गिरावट देखी गई, जो मई 2021 में घटकर 36.7 प्रतिशत हो गई थी, लेकिन बाद के महीनों में फिर से बढ़कर 37 प्रतिशत हो गई थी।

लेकिन यह तीन साल पहले की तुलना में काफी कम हो गई है। जहां तक शहरी रोज़गार की बात है तो व्यावहारिक रूप से कोई "रिकवरी" या "बाउंस बैक" नहीं है, भले ही जीडीपी के आंकड़े कुछ भी दिखें।

इस शहरी तबाही का भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के जनाधार पर गंभीर असर होगा। बेरोज़गारी एक ऐसा मुद्दा है जो पिछले कई सालों से राज्य के विधानसभा चुनावों में हावी रहा है। अधिकांश राज्यों में भी, अन्य कारकों के अलावा, भाजपा को इसकी वजह से नुकसान का सामना करना पड़ा है। और फरवरी-मार्च 2022  में पांच राज्यों में होने वाले चुनावों में भी ऐसा ही होने की संभावना है।

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

What About Jobs in Cities, Mr. Modi?

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