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क्या विदेशी कोच न होने के चलते भारत टी-20 विश्व कप से बाहर हुआ?

भारत में 2023 में होने वाले ओडीआई वर्ल्ड कप को देखते हुए नई टीम बनाने के लिए जल्द ही कुछ कठिन लेकिन निष्पक्ष निर्णय लेने की आवश्यकता है।
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आईसीसी टी-20 विश्व कप शुरू होने से पहले रिवाज के तौर पर कप्तानों के सामूहिक फोटो सत्र में देखा गया कि भारत के कप्तान रोहित शर्मा को ट्रॉफी से दूर की सीट मिली जबकि पाकिस्तान के कप्तान बाबर आजम और इंग्लैंड के कप्तान जोस बटलर इसके क़रीब बैठे। उस समय कौन जानता था कि बाबर और बटलर फाइनल में अपनी टीमों का नेतृत्व करेंगे और ये ख़िताब भारत के हाथ नहीं आएगा।

सेमीफाइनल में इंग्लैंड ने भारत को 10 विकेट से हरा दिया। इस हार का मतलब यह भी था कि भारत ने पिछले नौ साल में कोई वैश्विक कप नहीं जीता है जिसमें विश्व कप, चैंपियंस ट्रॉफी, या विश्व टेस्ट चैंपियनशिप शामिल हैं। 2013 के बाद से जब उसने 50 ओवरों की चैंपियंस ट्रॉफी जीती तब से वह सात बार हार चुकी है और ये हार सेमीफाइनल में या इन प्रतिस्पर्धाओं के फाइनल में हारी है। इनमें तीन फाइनल शामिल थे।

इस एकरूपता की कमी से नाराज़ कपिल देव समेत कुछ लोगों ने भारत को 'चोकर्स' कहना शुरू कर दिया है, जो ऐतिहासिक रूप से दक्षिण अफ़्रीक़ा से जुड़ा एक टैग है। यह उन भारतीय प्रशंसकों के लिए भारी निराशा से निकला है जिन्हें टीम से काफ़ी उम्मीदें थीं। तो, क्या भारत वास्तव में नया दक्षिण अफ़्रीक़ा है? भले ही भारतीय टीम के आधे खिलाड़ी पहली बार ऑस्ट्रेलिया में खेल रहे हों, बड़े नुक़सान के बावजूद, उन्हें तुरंत 'चोकर' टैग देना बहुत मुश्किल होगा। लेकिन यह कहना मुश्किल नहीं होगा कि नई टीम बनाने के लिए कुछ कड़े फ़ैसले लेना समय की ज़रूरत है।

हालांकि, ऐसे कई खिलाड़ी हैं, जिन्होंने पहले उस देश में नहीं खेला था, हालांकि यह भारत के लिए ख़िताब की जीत में विफलता के लिए कोई बहाना नहीं है।

2007 में पहले टी-20 विश्व कप की भारत की विजयी टीम का हिस्सा कप्तान रोहित शर्मा जैसे कई अनुभवी खिलाड़ी जैसे के एल राहुल, विराट कोहली, आर अश्विन, मोहम्मद शमी और भुवनेश्वर कुमार ग्यारह खिलाड़ियों में शामिल थे जो इंग्लैंड से सेमीफाइनल हार गए थे। लेकिन किसी तरह भारत अपने खेल को बढ़ाने में विफल रहा- 2003 विश्व कप फाइनल में कुछ सीनियर्स की तरह शायद इस अवसर की विशालता ने खिलाड़ियों को परेशान कर दिया- जबकि इंग्लैंड ने वास्तव में बिना किसी डर के क्रिकेट खेला था।

साहस भरा क्रिकेटसच में?

वीरेंद्र सहवाग ने कहा कि भारत ने सेमीफाइनल में साहस भरा क्रिकेट नहीं खेला। पिछले कुछ समय से भारतीय खेमे में हर कोई कह रहा है कि राष्ट्रीय टीम अब बिना डर भय के खेलती है। वे दो टीम वाली सीरीज में भले ही बेहतर क्रिकेट खेल रहे हों, लेकिन विश्व में कई टीम वाले खेल में

भारत अक्सर जुनून, जोश और आक्रामकता को दोहराने में विफल रहता है। सेमीफाइनल की हार में यह कमी साफ दिखाई दे रही थी और यह पहले भी कई बार देखा गया था।

उदाहरण के लिए, 2003 के विश्व कप फाइनल में भारत ने टॉस जीतकर पहले गेंदबाजी करने का फैसला किया था जिसने सबको चौंका दिया था। यह एक ऐसा निर्णय रहा जिस पर बहस जारी है। फिर, प्रमुख भारतीय गेंदबाज इस फैसले से घबरा गए। ऑस्ट्रेलियाई कप्तान रिकी पोंटिंग ने मैच जिताने वाला शतक बनाया और अन्य बल्लेबाज निडर हो गए। इनके ख़िलाफ़ भारतीय गेंदबाज़ हताश हो गए। बड़े मैचों में नर्वस होने वाले खिलाड़ियों ने कई अहम मौक़ों पर भारतीय टीम को निराश किया है।

मानसिक पहलू

बड़े मौक़ों पर खिलाड़ियों के नर्वस होने की समस्या को दूर करने के लिए क़दम उठाने की ज़रूरत है। वर्तमान भारतीय टीम के पास पैडी अप्टन के तौर पर मानसिक स्थिति में सुधार करने वाले एक कोच है। हालांकि, इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में कुछ और विचार और कार्रवाई करने की ज़रूरत है। अगर इससे खिलाड़ियों को मदद मिलती है तो। ख़ासकर हाल के दिनों में सुरक्षित क्षेत्र में रहने के कारण कुछ क्रिकेटरों को जो कुछ हुआ इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है। एक अन्य मनोवैज्ञानिक को नियुक्त करना शायद कोई ग़लत विचार नहीं होगा, जो शॉर्टलिस्ट किए गए खिलाड़ियों पर मेहनत करेगा और उन्हें राष्ट्रीय स्तर के लिए तैयार करेगा जबकि अपटन टीम के साथ दौरे पर जाएंगे।

साल 2006 में, भारतीय टीम के कोच ग्रेग चैपल को महान खेल मनोवैज्ञानिक रूडी वेबस्टर के रूप में खिलाड़ियों पर थोड़ा मेहनत करने का मौक़ा मिला और उनमें से कुछ ने स्वीकार किया कि उनके साथ बातचीत से फ़ायदा हुआ। 1970 के दशक के अंत में, चैपल ने ख़ुद वेबस्टर के संपर्क मं रह कर एक खिलाड़ी के रूप में फ़ायदा हासिल किया था। अगर चैपल लंबे समय तक टिके रहते, तो हो सकता था कि वो भारतीय क्रिकेटरों में ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों की तरह आक्रामकता पैदा कर दी होती, जिससे उन्हें फ़ायदा होता।

क्या विदेशी कोच इसका जवाब है?

ऑस्ट्रेलियाई स्वाभाविक रूप से आक्रामक रूप से खेलते हैं और एक ऑस्ट्रेलियाई कोचिंग में इसी तरह का गुण पैदा करता है। पाकिस्तान इसका एक प्रमुख उदाहरण है। पूर्व ऑस्ट्रेलियाई बल्लेबाज मैथ्यू हेडन ने कोच के रूप में और पूर्व तेज़ गेंदबाज़ शॉन टेट ने तेज़ गेंदबाज़ी कोच के रूप में, बाबर आज़म की टीम के साथ थोड़े समय के भीतर उन्हें टी20 विश्व कप के फाइनल में पहुंचा दिया। उन्होंने खिलाड़ियों के साथ कुछ अच्छा किया होगा जिससे पाकिस्तान को 1992 के विश्व कप की तरह वापसी करने में मदद मिली। पाकिस्तान फाइनल में इंग्लैंड से हार गया, यह एक अलग बात है।

तो क्या भारत को भी राहुल द्रविड़ का कार्यकाल समाप्त होने के बाद ऑस्ट्रेलियाई कोच की तरफ रूख़ करना चाहिए, या यदि पूर्व कप्तान स्वेच्छा से ख़ुद अलग हो जाएं? यह सवाल पूरी तरह से अमान्य नहीं है, ख़ासकर जब कोई नौ वर्षों में विश्व ख़िताब नहीं जीतने के भारत के ट्रैक रिकॉर्ड को देखता है। कप्तान कोहली को ग़लत तरीक़े से विश्व ख़िताब न जीतने के लिए निशाना बनाया गया था, हालांकि एमएस धोनी ने भी कुछ जीत के अलावा कुछ हारे थे। एक कप्तान या कोच उतना ही अच्छा होता है जितना की टीम।

भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) को इस मुद्दे को बरीकी से देखना होगा, न कि किसी के बहकावे में आकर भावनात्मक रूप से कि 'केवल घरेलू कोच' ही ठीक है। एक विदेशी होने का सबसे बड़ा फ़ायदा यह होता है कि वह क्षेत्रीय और अन्य पूर्वाग्रहों से मुक्त होता है जो भारतीय क्रिकेट में इतने गहरे और प्रचलित हैं। वह निष्पक्षता भी पैदा करता है। गैरी कर्स्टन और जॉन राइट इसके अहम उदाहरण हैं। एक तटस्थ कोच खिलाड़ियों को एक भारतीय कोच की तुलना में अधिक मेहनत कर सकता है और खिलाड़ी भी घरेलू कोचिंग स्टाफ़ की तुलना में उनकी बात अधिक सुनते हैं। जो कुछ भी राष्ट्रीय टीम के लिए सबसे अच्छा परिणाम लाता है उसे बिना किसी डर या पक्षपात के गले लगाना चाहिए। बेशक, पैसा बीसीसीआई के लिए कोई बड़ा मुद्दा नहीं है।

यदि बीसीसीआई विदेशी कोच के मुद्दे पर अपना विचार बदलता है तो कोच के रूप में द्रविड़ की क्षमताओं पर सवाल नहीं होगा। एक क्रिकेटर के रूप में और एक कोच के रूप में उनका स्थान, जिन्होंने भारत को दो अंडर -19 विश्व कप फाइनल में पहुंचाया और एक जीता, उनके अन्य योगदानों के अलावा, भारतीय क्रिकेट के इतिहास में सुरक्षित है। प्रदर्शन में बदलाव और योजनाओं को क्रियान्वित करने की ज़िम्मेदारी खिलाड़ियों पर होती है।

विदेशी लीग में खेलने पर रोक

एक अन्य अहम मुद्दा भारतीय खिलाड़ियों के विदेशी टी-20 लीग में भाग लेने पर बीसीसीआई की रोक है। यह मुद्दा समय-समय पर उठाया गया है और भारत की हार के बाद फिर से उछाला गया है। अगर भारतीय खिलाड़ी विदेशी लीग के लिए विचार कर रहे होते, जैसे कि ऑस्ट्रेलिया के बिग बैश में होता है, तो उन्हें अलग-अलग परिस्थितियों में विभिन्न प्रकार के खिलाड़ियों के ख़िलाफ़ खेलने का ज़्यादा अनुभव प्राप्त होता और इसके परिणामस्वरूप, इस विश्व कप में बेहतर प्रदर्शन करते।

हालांकि भारत के कोच द्रविड़ ने कहा कि इस मुद्दे पर फ़ैसला बीसीसीआई को करना है, इस पर नए सिरे से पेशेवर तरीक़े से विचार करने की ज़रूरत है। बीसीसीआई ने मुख्य रूप से आईपीएल की विशिष्टता को बचाने और उसे क़ायम रखने के लिए अपने खिलाड़ियों को विदेशी लीगों में खेलने से रोक दिया है। द्रविड़ ने कहा कि यदि खिलाड़ी विदेश में खेलते हैं, तो भारत की घरेलू प्रतियोगिताओं को नुक़सान होगा क्योंकि बिग बैश रणजी ट्रॉफी से टकराएगा और काफ़ी हद तक टेस्ट टीम प्रभावित होगी। हालांकि इस पर बहस हो सकती है। राष्ट्रीय खेल से हटने पर कितने अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी अपनी घरेलू टीमों के लिए आते हैं?

दूसरी ओर, इंग्लैंड के कप्तान जोस बटलर सहित विदेशी खिलाड़ी, जिन्होंने सेमीफाइनल में भारतीय गेंदबाज़ों की धज्जियां उड़ाई और फाइनल में पाकिस्तान को हराकर विश्व कप जीता, उन्होंने स्पष्ट रूप से आईपीएल से बहुत लाभ उठाया है और भारतीयों के साथ फ्रेंचाइज ड्रेसिंग रूमसाझा करके जानकारी जुटाई है। ये कहने की ज़रूरत नहीं कि आईपीएल से विदेशी खिलाड़ियों को फ़ायदा हुआ। यह तर्क दिया जा सकता है कि आईपीएल में विदेशियों की मौजूदगी से भारतीयों को भी फ़ायदा होता है, लेकिन ऐसा लगता है कि उनके फ़ायदे थोड़े कम हैं।

यह एक बड़ी विडंबना है कि भारत ने साल 2008 में आईपीएल की शुरुआत के बाद से टी-20 विश्व कप नहीं जीता है। भारत की एकमात्र जीत उससे एक साल पहले हुई थी जब उसने दक्षिण अफ़्रीक़ा में बेमन से प्रतिस्पर्धा की थी और सभी को चौंका दिया था। क्या आईपीएल में खेलने से भारतीय खिलाड़ियों को बहुत फ़ायदा होता है? इस सवाल अब चर्चा हो कि किस चीज़े के लिए कौन उपयुक्त होगा।

लगातार व्यस्त अंतरराष्ट्रीय और घरेलू क्रिकेट कैलेंडर को देखते हुए तीनों प्रारूप में खेलने वाले विशेषज्ञों की तत्काल आवश्यकता है। भावनात्मक चयन या खिलाड़ियों की प्रतिष्ठा के आधार पर तुरंत काट-छांट करनी होगी। भारतीय एकादश में सात 30-प्लस के खिलाड़ी थे जिन्होंने सेमीफाइनल खेला। उनमें दिनेश कार्तिक (37) एक मात्र स्थानपन्न खिलाड़ी थे। उनमें से कई टी-20 फॉर्मेट में फिर से नहीं चुने जा सकते हैं, या वे ख़ुद हट सकते हैं।

लेकिन हमें यह भी सावधान रहना चाहिए कि हटाने की प्रक्रिया उम्र के साथ प्रदर्शन के मानदंड पर आधारित होना चाहिए, न कि केवल उम्र के आधार पर, जैसा कि इंग्लैंड ने दिखाया। विश्व कप जीतने वाली एकादश में इंग्लैंड के सात 30 से अधिक उम्र के खिलाड़ी थे। भारत में, कोहली 34 वर्ष के हैं, लेकिन वह हमेशा की तरह जोशीले बने हुए हैं और उनका प्रदर्शन उनके समर्पण और प्रतिबद्धता को बताता है। और सूर्यकुमार यादव 32 साल की उम्र में शानदार फॉर्म में हैं। कोहली विश्व कप में 296 रनों के साथ शीर्ष स्कोरर के रूप में उभरे, जबकि यादव 239 रनों के साथ तीसरे स्थान पर रहे।

भारत के बाहर होने के बाद, दिग्गज पूर्व खिलाड़ी सुनील गावस्कर ने कहा कि, "हार्दिक पांड्या निश्चित रूप से भविष्य में टीम की कमान संभालेंगे और कुछ सेवानिवृत्ति होंगे, जिसे आप नहीं जानते हैं। खिलाड़ी ऐसा बहुत सोच समझ कर कर रहे होंगे। उनके बीच 30 के भीतर के उम्र के कई खिलाड़ी हैं जो भारतीय टी-20 टीम में अपनी मौजूदगी पर पुनर्विचार कर रहे होंगे।”

फिर भी, चयन समिति को 30 से अधिक उम्र वाले और प्रदर्शन न करने वाले कुछ अन्य खिलाड़ियों पर विचार करना होगा जो विश्व कप टीम में थे और साथ ही टी-20 फॉर्मेट में थे जैसे रोहित शर्मा, के एल राहुल, कार्तिक, आर अश्विन, भुवनेश्वर कुमार, और मोहम्मद शमी। समिति को अगले विश्व कप के लिए एक नई टीम तैयार करन होगा। टी-20 फॉर्मेट के लिए जसप्रीत बुमराह और रवींद्र जडेजा पर भी फ़ैसला लेना होगा। बुमराह एक ही दिन 6 दिसंबर को 29 और जडेजा 34 साल के हो जाएंगे। दोनों चोट के कारण टी-20 वर्ल्ड कप से बाहर हो गए थे। लेकिन चूंकि दोनों ही तीनों प्रारूपों में सलामी खिलाड़ी हैं, इसलिए उनके खेल पर कड़ी नज़र रखने की ज़रूरत है।

अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम के अनुसार, जल्द ही बीसीसीआई को टेस्ट मैचों और दो छोटे प्रारूपों के लिए चोट, वर्कलोड/बर्नआउट और मानसिक मुद्दों को रोकने के लिए अलग-अलग टीमों को चुनने के लिए मजबूर किया जाएगा। अनुभवी और युवाओं का अच्छा संतुलन बनाए रखते हुए छोटे प्रारूपों के लिए भी टीमों को जितना संभव हो उतना अलग होना चाहिए। बीसीसीआई ने जल्द ही दो टीम बनाने के संकेत दिए हैं। और एक स्पष्ट हॉर्स-फॉर-कोर्स नीति भी लानी होगी।

दुनिया भर के देश एक विश्व कप से लेकर दूसरे विश्व कप तक अपनी टीमें तैयार करते रहते हैं और ज़्यादातर उसी तरह में कोचिंग/सपोर्ट स्टाफ़ के अनुबंधों को अंतिम रूप देते हैं। अब समय आ गया है कि खिलाड़ियों के लिए भी इसी पैमाने का इस्तेमाल किया जाए। भारत में 2023 विश्व कप (50 ओवर) को देखते हुए कुछ कठोर और निष्पक्ष निर्णय लेने होंगे। घरेलू मैदान में खेलते समय खिलाड़ियों का अगले साल पहले से कहीं अधिक परीक्षण किया जाए, जिसमें धोनी की टीम के साथ ज़रूरी तुलना भी शामिल है जिसने घरेलू अपेक्षाओं के बावजूद 2011 विश्व कप जीता था।

लेखक नई दिल्ली स्थित क्रिकेट रिपोर्टर हैं जिन्होंने तीन दशकों से अधिक समय तक इस खेल को कवर किया है। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

India’s T20 World Cup Setback: Is Foreign Coach One of the Answers?

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