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पश्चिम बनाम रूस मसले पर भारत की दुविधा

नई दिल्ली को स्पष्ट हो जाना चाहिए और इस वास्तविकता को समझ लेना चाहिए कि यूक्रेन संघर्ष इंडो-पैसिफ़िक रणनीति का ही एक ख़ाका है।
India’s Dilemma Over West vs Russia

कुछ मुख्यधारा के भारतीय रणनीतिक विश्लेषकों के बीच एक धारणा व्याप्त है, जिनमें कुछ ऐसे भी हैं जो पिछली सरकारों के समय सुरक्षा प्रशासान में शीर्ष पदों पर बैठे थे, कि यूक्रेन में जो चल रहा है वह "यूरोपीय सुरक्षा व्यवस्था के मामले में यूरोपीय लोगों के बीच का युद्ध" है।

इस धारणा का कोई भी आधार क्यों न हो, लेकिन 21वीं सदी में इस तरह धूर्तता से भरा भोलापन भारत की सामरिक योजना को अपूरणीय क्षति पहुंचा सकता है। क्या युद्ध एशिया में मौजूद मूलभूत भू-राजनीतिक गतिशीलता को बदल देगा? कतई ऐसा नहीं होगा। लेकिन भारतीय विश्लेषक मानते हैं कि यूक्रेन संघर्ष वाशिंगटन की इंडो-पैसिफिक रणनीति से 'ध्यान भटकाने' का कारण बन सकता है।

कहने का मतलब यह है कि, भारतीय टिप्पणीकारों का मानना यह है कि, नीपर नदी के साथ अमेरिका-रूस टकराव वाशिंगटन की "एशिया में सुरक्षा दुविधाओं में सक्रिय या सार्थक भूमिका निभाने के मामले में उसकी ऊर्जा को नष्ट करता दिखाता हैं, और मानते हैं कि यह तब तक जारी रहेगा तब तक यूरोप रूस को नुकसान पहुंचाने में व्यस्त रहेगा।"

पहली नज़र में, यह तर्क तर्कसंगत लग सकता है। क्योंकि, वास्तव में यूरोपीय व्यवस्था के भीतर ही बड़े बिखराव के संकेत मिल रहे हैं। पोलैंड और लिथुआनिया अपने बूते पर हैं; जर्मनी सैन्यवाद के रास्ते पर चल रहा है (यूरोपीय व्यवस्था के निहितार्थ और परिणामों को, जिसे अभी भी समझा जाना बाकी है); इमैनुएल मैक्रोन के तहत फ्रांस प्रोटो-गॉलिज़्म और प्राचीन यूरो-अटलांटिसवाद की मुद्रा के बीच उतार-चढ़ाव पर है; और इस सबके साथ, एंजेला मर्केल के युग की जर्मन-फ्रांसीसी धुरी घट रही है। वास्तव में, यूक्रेन संघर्ष को एक वैश्विक द्वैतवादी संघर्ष के रूप में प्रस्तुत करना व्यर्थ है, क्योंकि राजनीति में बुराई और अच्छाई जैसा कुछ नहीं है।

हालांकि, भारतीय विश्लेषकों को यह समझ में नहीं आ रहा है कि यूक्रेन संघर्ष वास्तव में इंडो-पैसिफिक रणनीति का ही एक खाका है। समान रूप से, इतिहास का यह भी एक तथ्य है कि वर्तमान मामले में द्वैतवादी के रूपक के रूप में - "लोकतंत्र बनाम निरंकुशता" – की लाड़ाई के माध्यम से साम्राज्यवाद अपने को प्रमुख बनाने और अपने आधिपत्य को बढ़ाने के तरीके के रूप में देखता है। भारत के मामले में, ख़ासकर 1947 में, खुद के स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर वर्तमान तक, विश्व राजनीति के वर्तमान वर्चस्ववादी चरण को नव-उपनिवेशवाद चरण के रूप में भी वर्णित किया जा सकता है।

दो उल्लेखनीय घटनाएं यह समझाने में मदद करेंगी कि भारत को एक स्पष्ट नेतृत्व की जरूरत क्यों है। एक तो, ब्रसेल्स में नाटो गठबंधन के विदेश मंत्रियों की दो दिवसीय बैठक (6-7) की पूर्व संध्या पर नाटो महासचिव जेन्स स्टोल्टेनबर्ग द्वारा मंगलवार को की गई प्रथागत प्रेस कॉन्फ्रेंस है। 

दूसरा, मंगलवार को फिर से, संयुक्त राज्य अमेरिका के सामरिक कमान के कमांडर एडमिरल चार्ल्स रिचर्ड ने वाशिंगटन में कांग्रेस की रक्षा विनियोग उपसमिति की वर्गीकृत सुनवाई में वर्तमान रूसी परमाणु मुद्रा की पृष्ठभूमि के खिलाफ एक आश्चर्यजनक गवाही दी गई, कि यूक्रेन का संकट उनकी राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति को प्रभावित करता है, आदि।

ब्रसेल्स में वर्तमान नाटो मंत्रिस्तरीय बैठक, यूक्रेन में रूसी ऑपरेशन के एक महत्वपूर्ण चरण के बीच हो रही है जो चरण अब शुरू होने वाला है। स्टोलटेनबर्ग ने कहा कि नाटो सहयोगी यूक्रेन को हथियार, मानवीय सहायता और वित्तीय सहायता, साइबर सुरक्षा सहायता आदि" के रूप में समर्थन देने करने के प्रति दृढ़ हैं"।

इसके अलावा, उन्होंने कहा, मंत्रिस्तरीय बैठक, जून में मैड्रिड शिखर सम्मेलन के लिए नाटो की अगली रणनीतिक अवधारणा को विकसित करने के लिए काम पर चर्चा करेगी, यह भी खुलासा किया कि "पहली बार, नाटो शिखर सम्मेलन में वैश्विक मंच पर चीन के बढ़ते प्रभाव और उसकी जबरदस्त नीतियों को भी ध्यान में रखा जाएगा। जो हमारी सुरक्षा और हमारे लोकतंत्रों के लिए एक व्यवस्थित चुनौती है।"

दूसरी ओर, एडमिरल रिचर्ड द्वारा कांग्रेस में दी गई गवाही, चीन द्वारा प्रस्तुत "प्रणालीगत चुनौती" के बारे में स्पष्ट और ग्राफिक विवरण देती है। महत्वपूर्ण रूप से, एडमिरल ने रेखांकित किया कि चीन "अपने रणनीतिक और परमाणु बलों के इस्तेमाल के बारे में अपारदर्शी इरादा रखता है और उसका विस्तार जारी रखे हुए है।"

"रणनीतिक सुरक्षा वातावरण अब एक तीन-पक्षीय परमाणु-सहकर्मी वास्तविकता है, जहां पीआरसी और रूस हर डोमेन में अंतरराष्ट्रीय कानून, नियम-आधारित आदेश और मानदंडों पर जोर दे रहे हैं और उन्हें कमजोर कर रहे हैं। इससे पहले अमरीका ने कभी भी दो परमाणु-सक्षम देशों का सामना नहीं किया है, जिन्हें अलग-अलग तरीके से रोका जाना चाहिए ... आज, पीआरसी और रूस दोनों के पास एकतरफा संघर्ष को किसी भी स्तर की हिंसा को, किसी भी डोमेन में, दुनिया भर में, बढ़ाने की क्षमता है, वह भी किसी भी समय, राष्ट्रीय शक्ति हथियार के रूप में इसे बढ़ा सकता है।”

"वे (चीन और रूस) अगले दशक में भी अपने परमाणु बलों का विस्तार और विविधता जारी रखेंगे और पीआरसी, विशेष रूप से, अपनी रक्षा रणनीतियों में परमाणु हथियारों की भूमिका को बढ़ाएंगे। उनकी नई प्रणालियों की सीमा बढ़ते परमाणु भंडार का पूरक है, और इसमें जीवित परमाणु परीक्षणों का विकास और आधुनिकीकरण, विपरीत-हस्तक्षेप, और हमारे क्षेत्रीय प्रभाव को रोकने और अस्वीकार करने के उद्देश्य से ताक़त दिखाने की क्षमताएं शामिल हैं ...

"वे आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस (एआई), स्वायत्त प्रणाली, उन्नत कंप्यूटिंग, क्वांटम सूचना विज्ञान, जैव प्रौद्योगिकी, और उन्नत सामग्री और विनिर्माण सहित महत्वपूर्ण सैन्य क्षमता के साथ प्रमुख प्रौद्योगिकियों का नेतृत्व कर रहे हैं।"

जहां तक रूस का सवाल है, एडमिरल ने देश की "नई व उन्नत हथियार वितरण प्रणालियों पर प्रकाश डाला, जिनमें से कई हाइपरसोनिक गति और अमेरिकी मिसाइल रक्षा प्रणालियों से बचने के लिए डिज़ाइन किए गए उड़ान पथ समायोजन में सक्षम हैं ... रूस (भी) ... इस मामले में उन उपकरणों पर आधारभूत कार्य जिनका दुनिया में कोई समकक्ष नहीं है, पहले से ही गंभीर अनुसंधान और तकनीकी पूरा करने का दावा कर रहा है। रूस, अमेरिका के खिलाफ खतरों की सीमा का विस्तार करने के लिए नए हाइपरसोनिक वारहेड के साथ अतिरिक्त रणनीतिक प्रणाली विकसित करना जारी रखे हुए हैं।

एडमिरल का दोहरा निष्कर्ष था: सबसे पहले, अमेरिका अब "एक विलक्षण ऑपरेशन समस्या का सामना नहीं कर रहा है, बल्कि दो परमाणु-सक्षम देशों का सामना कर रहा है जिस पर एक साथ विचार करना चाहिए," और दूसरी बात, चीन और रूस "सक्रिय रूप से अंतरराष्ट्रीय नियमों को बदलने की कोशिश कर रहे हैं- जबकि अमेरिका खुद के सहयोगियों और भागीदारों के साथ नियम के आधार पर इसका बचाव करना चाहता है।”

भू-राजनीतिक दृष्टि से, इसका क्या अर्थ है? संक्षेप में कहें तो यूक्रेन में संघर्ष का परिणाम महत्वपूर्ण है क्योंकि दुनिया देख रही है। एक मजबूत, संयुक्त पश्चिम के हाथों रूस की हार अमेरिकी प्रतिबद्धता और क्षमता के बारे में (गैर-पश्चिमी) अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में पुनर्विचार को मजबूर करेगी और 21 वीं सदी में ट्रान्साटलांटिक प्रभाव और प्रासंगिकता में गिरावट की वैश्विक धारणाओं को उलट देगी, जबकि, इसके विपरीत, रूस को हराने और कमजोर करने में विफलता अनिवार्य रूप से एक प्रभावी वैश्विक अभिनेता के रूप में पश्चिमी गिरावट को तेज करेगी।

अलग तरीके से कहें तो अटलांटिक काउंसिल के अध्यक्ष और सीईओ और एकध्रुवीयता के मुखर विचारक के रूप में, फ्रेडरिक केम्पे ने पिछले हफ्ते स्पष्ट रूप से लिखा था, "सवाल यह नहीं है कि नई विश्व व्यवस्था क्या होगी, बल्कि अगर अमेरिका और उसके सहयोगी यूक्रेन के माध्यम से इसे उलट कर पिछली सदी के लाभ को कम कर सकते हैं तो सही मायने में 'वैश्विक' विश्व व्यवस्था स्थापित करने की दिशा में यह पहला कदम होगा।"

मूर्ख, यह सब एकध्रुवीय दुनिया बनाने के बारे में है! भविष्य की विश्व व्यवस्था को आकार देने के लिए, अमेरिका और यूरोप को सबसे पहले पश्चिमी गिरावट को उलटने की जरूरत है। यूक्रेन में विफलता का मतलब यूरोपीय संघ और नाटो का विघटन हो सकता है। इन गठबंधनों के भीतर पैचवर्क सामंजस्य हार के आघात से नहीं बचेगा। पश्चिम में हताशा पिछले हफ्ते चीन के साथ यूरोपीय संघ के नेतृत्व द्वारा आभासी शिखर सम्मेलन में दिखाई दी – वैसे भी, दो साल में पहला चीन-यूरोपीय संघ शिखर सम्मेलन हुआ था।

समान रूप से, बुका पर सूचना का युद्ध इस उग्रता को दर्शाता है। लेकिन भारतीय मन में बिल्कुल भी भ्रम क्यों होना चाहिए? रूपक के अनुसार, अफीम की खपत के कारण भ्रम पैदा होता है, जैसा कि चीनियों ने अपने तथाकथित सौ वर्षों के राष्ट्रीय अपमान में अनुभव किया था। इस मामले में भारतीय अभिजात वर्ग की दुर्दशा दयनीय है।

मिश्रित जाति जमैका के लेखक हर्बर्ट जॉर्ज डी लिसर द्वारा मनिचियन बायनेरिज़ पर दो महान पुस्तकें हैं, जो औपनिवेशिक युग के कैरिबियन के बारे में हैं - द व्हाइट विच ऑफ़ रोज़हॉल एंड रिवेंज: ए टेल ऑफ़ ओल्ड जमैका - जहाँ अश्वेत महिलाओं की नैतिकता गोरे लोगों के साथ उनके जुड़ाव से अक्सर उपजा करती थी, अत्यंत कड़वे और हिंसक विचारों के बावजूद, जब वे गोरे लोगों से प्यार करती थीं, तो उन्हें अंततः तिरस्कार का सामना करना पड़ा था। 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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