जेएनयू: ICC का नया फ़रमान पीड़ितों पर ही दोष मढ़ने जैसा क्यों लगता है?
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) एक बार फिर सुर्खियों में है और इस बार वजह आंतरिक शिकायत समिति का एक 'महिला विरोधी' सर्कुलर है, जिसमें कहा गया है कि यौन उत्पीड़न के मामले में महिलाओं को खुद ही अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करनी होगी। इसमें ये भी कहा गया कि महिलाओं को यह पता होना चाहिए कि इस तरह के उत्पीड़न से बचने के लिए उन्हें अपने पुरुष दोस्तों के बीच वास्तविक रेखा कैसे खींचनी है? यानी देश के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में अब छात्राओं को इस बात की काउंसिलिंग दी जाएगी कि उन्हें पुरुष दोस्तों के बीच असल दायरा कैसे बनाना है।
ये सर्कुलर सिर्फ महिला विरोधी सोच का प्रतीक ही नहीं बल्कि महिलाओं की आज़ाद सोच और समझ पर भी एक प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। ये एक तरीके से पीड़ितों पर ही दोष मढ़ने जैसा प्रतीत होता है। इसका पुरजोर विरोध भी हो रहा है। छात्र संगठनों के अलावा राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी इस पर कड़ी आपत्ति जताई है।
बता दें कि जेएनयू प्रशासन ने सिंतबर 2017 में अपनी 269वीं कार्यकारी परिषद की बैठक में जेंडर सेंसिटाइजेशन कमेटी अगेंस्ट सेक्सुअल हैरेसमेंट (जीएसकैश) के बजाय आईसीसी का गठन किया था। इस कदम की महिला अधिकार संगठनों के अलावा छात्रों और शिक्षक निकायों ने भी आलोचना की थी।
क्या है पूरा मामला?
जेएनयू की आंतरिक शिकायत समिति (ICC) ने महिलाओं को सेक्शुअल हैरेसमेंट से बचने की सलाह देने के लिए एडवाइजरी जारी की है। इस एडवाइजरी में कहा गया है कि लड़कियों को अपने पुरुष मित्रों के साथ दूरी बनाकर रखनी चाहिए जिससे ऐसे मामलों की कोई नौबत न आए।
इस ताजा सर्कुलर में जेएनयू की इंटरनल कम्प्लेन कमिटी यानी ICC ने तय किया है कि स्टूडेंट्स को यौन उत्पीड़न के संबंध में डूज़ और डोंट्स (क्या करें/क्या न करें) बताए जाएं। यूनिवर्सिटी की वेबसाइट पर छपी एडवाइजरी के मुताबिक 17 जनवरी 2022 को पहला सेशन रखा गया है। आगे लिखा गया कि जेएनयू सेक्शुअल हैरेसमेंट के केस में जीरो टॉलरेंस पॉलिसी अपनाता है। यौन उत्पीड़न के बारे में “लड़कियों और लड़कों दोनों को जागरूक करने के लिए ‘काउंसलिंग सत्र’ की आवश्यकता है और स्टूडेंट्स को इस बारे में अवेयर करने के लिए हर महीने ऐसे सेशन रखे जाएंगे।”
‘काउंसलिंग सत्र’ की ज़रूरत क्यों?
इस ‘काउंसलिंग सत्र’ के पीछे यूनिवर्सिटी ने तीन वजह बताईं हैं।
1. लड़के और लड़कियों को सेक्शुअल हैरेसमेंट के बारे में अवेयर करना। समय-समय पर इस नॉलेज को रिफ्रेश करना।
2. ICC के पास बहुत बार ऐसे केस आते हैं जिसमें करीबी दोस्त ही सेक्शुअल हैरेसमेंट का शिकार बनाते हैं। लड़के आमतौर पर दोस्ताना मजाक और यौन उत्पीड़न के बीच की (कभी-कभी जान कर, कभी-कभी अनजाने में) पतली रेखा को पार कर जाते हैं।
3. लड़कियों को अपने पुरुष मित्रों के बीच एक रेखा खींचनी जरूरी है ताकि वो उत्पीड़न से बच सकें।
इन सत्रों के लाभ को सूचीबद्ध करते हुए विश्वविद्यालय ने कहा कि ‘इससे यौन उत्पीड़न के मामलों में यकीनन कमी आएगी।’ सर्कुलर में कहा गया, ‘यौन उत्पीड़न से संबंधित किसी भी भ्रम को दूर करिए। किसी को भी यौन उत्पीड़न से जुड़े सवालों का जवाब मिल सकता है।’
प्रशासन का क्या कहना है?
आईसीसी की प्रोसीडिंग आफिसर पूनम कुमारी ने सर्कुलर से सहमति रखने वाले विचार रखते हुए मीडिया से कहा कि आईसीसी को ऐसी कई शिकायतें मिली हैं, जिसमें करीबी दोस्तों द्वारा ही यौन उत्पीड़न किया गया।
कुमारी ने महिलाओं को ही जिम्मेदार बताते हुए कहा, ‘वे एक-दूसरे को छूते हैं, एक-दूसरे को गले लगाते हैं लेकिन जब महिलाओं को लगता है कि वे इसे लेकर सहज महसूस नहीं करती तो उन्हें यह बात स्पष्ट रूप से अपने पुरुष मित्र को बतानी चाहिए।’
उन्होंने कहा, "यह जानना लड़कों और लड़कियों दोनों के लिए महत्वपूर्ण है कि कहां रेखा खींचनी है… लड़कियों को भी मामला हाथ से निकल जाने से पहले यह कहने की जरूरत है कि उन्हें इसे तरह छुआ जाना या गले लगना पसंद नहीं है। इस तरह की चीजों को स्पष्ट रूप से बताना जरूरी है वरना उस शख्स को कैसे पता चलेगा। ये छोटी-छोटी चीजें हैं जो हमें उन्हें आईसीसी के नियमों के साथ-साथ बताए जाने की जरूरत है।"
छात्रों का क्या कहना है?
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्रसंघ की अध्यक्ष आइशी घोष ने एक बयान जारी कर कहा कि यह सर्कुलर एक तरीके से पीड़ितों पर ही दोष मढ़ने जैसा है। आइशी ने ट्वीट कर इस एडवाइजरी के विरोध में लिखा कि आईसीसी अक्सर ऐसी दकियानूसी टिप्पणियां करता रहा है या पीड़िता को ही नैतिकता सिखाता रहा है।
उन्होंने बयान में कहा, "जेएनयू में आईसीसी ने पीड़िता पर ही दोष मढ़ देने वाला बयान दिया है, जिसमें महिलाओं से एक महीन रेखा खींचने को कहा गया है कि किस तरह से पुरुष साथियों से उत्पीड़ित नहीं हों। जेएनयू में आईसीसी ने बार-बार इस तरह की प्रतिगामी टिप्पणी की है। इस तरह की टिप्पणी एक ऐसी जगह तैयार करती है, जो महिलाओं के लिए असुरक्षित होगी।"
The ICC in JNU makes a blatant victim blaming remark where it asks "women to draw a tangible line to not get harassed by their male members."
The ICC time and again in JNU has passed such regressive remarks or conducted itself in a way to moral police the survivor.(1/2) pic.twitter.com/WiMKIZ0gK2
— Aishe (ঐশী) (@aishe_ghosh) December 28, 2021
ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आइसा) ने काउंसिलिंग सत्र को ढकोसला बताते हुए एक बयान में कहा कि आईसीसी की यह एडवाइजरी विक्टिम ब्लेमिंग की विचारधारा को उजागर करती है। इससे कोई लाभ होने के बजाय जेएनयू महिलाओं के लिए और अधिक असुरक्षित होगा।
जेएनयू की छात्र और आइसा सचिव मधुरिमा ने मीडिया को बताया कि जेएनयू आंतरिक शिकायत समिति ने जिस कांउसलिंग सेशन के लिए नोटिस जारी किया है, उसका विषय है यौन उत्पीड़न के मामलों को कम करना। जेएनयू प्रशासन मान रहा है कि महिला ही यौन उत्पीड़न के लिए दोषी होती है। नोटिस में लिखा है कि इस कांउसंलिंग सेशन के बाद जेएनयू इंटरनल कंप्लेंट कमेटी में शिकायतों की संख्या कम हो जाएगी। यह सही है, क्योंकि इस नोटिस और काउंसलिंग सेशन के बाद कोई भी पीड़ित महिला छात्र या प्रोफेसर शिकायत के लिए आईसीसी के पास नहीं जाएगी।
राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी जताई आपत्ति
राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा ने इस सर्कुलर को ‘महिला विरोधी’ करार देते हुए विश्वविद्यालय से इसे वापस लेने को कहा है। शर्मा ने ट्विटर पर इस सर्कुलर को साझा करते हुए उसे वापस लेने का आग्रह किया।
Why all the teachings are always for girls only? Time to teach harassers not the victims. The misogynist circular of #JNU should be withdrawn. Internal commattee should have Victim-Centered approach and not otherwise. pic.twitter.com/Z6x4h7L351
— Rekha Sharma (@sharmarekha) December 28, 2021
न्होंने लिखा, "सारा उपदेश लड़कियों के लिए ही क्यों होता है? अब पीड़ितों की बजाय उत्पीड़न करने वालों को पाठ पढ़ाने का समय आ गया है। जेएनयू के महिला विरोधी सर्कुलर को वापस लिया जाना चाहिए। आंतरिक समिति का रुख पीड़िता केंद्रित होना चाहिए न कि इसके विपरीत।"
गौरतलब है कि कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए साल 2013 में यौन उत्पीड़न रोकथाम निषेध एवं निवारण अधिनियम के प्रावधानों के तहत आंतरिक शिकायत समिति का गठन किया गया था। इसे यौन उत्पीड़न की किसी शिकायत पर जांच प्राधिकरण के रूप में कार्य करने तथा लैंगिक मुद्दे पर छात्रों, कर्मचारियों और संकाय सदस्यों को संवेदीकरण की दिशा में सकारात्मक उपाय लेने के लिए लाया गया था।
2013 में ही 'सेक्सुअल हैरेसमेंट ऑफ वुमन एट वर्कप्लेस एक्ट' आया। जिसमें विशाखा गाइडलाइन्स के अनुरूप ही कार्यस्थल में महिलाओं के अधिकार को सुनिश्चित करने की बात कही गई। इसके साथ ही इसमें समानता, यौन उत्पीड़न से मुक्त कार्यस्थल बनाने का प्रावधान भी शामिल किया गया। इस एक्ट के तहत किसी भी महिला को कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के ख़िलाफ़ सिविल और क्रिमिनल दोनों ही तरह की कार्रवाई का सहारा लेने का अधिकार है।
हालांकि इस कानून के बाद भी महिलाओं के प्रति अपराध और अत्याचार कम नहीं हुए हैं और न ही शिकायत के बाद महिला के प्रति लोगों के व्यवहार में कोई सुधार हुआ है। शिकायतकर्ता महिला को क्या कुछ सहना पड़ता है ये किसी से छिपा नहीं है। और ऐसे में अब आंतरिक शिकायत समिति की ओर से ऐसे फरमान निश्चित ही इसके अस्तित्व पर सवालिया निशान खड़ा करते हैं।
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