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जेल में बंद क़ैदियों के 'क़ानूनी अधिकार' के असल मायने क्या हैं?

अब हुक्मरान को तय करना होगा कि क्या वह क़ानून के राज के प्रति और पीड़ितों एवं सर्वावरों के अधिकारों के प्रति प्रतिबद्ध हैं या उनके अत्याचारियों के?
ram rahim
तस्वीर सौजन्य : Alt News

सच्चाई की यह ताकत होती है कि वह अचानक नमूदार हो जाती है, जब आप उसके बारे में कत्तई सचेत हों?

भारत के प्रधानमंत्री मोदी और उनके सबसे करीब कहे जाने वाले देश के गृह मंत्री अमित शाह हाल के दिनों में इस बात को महसूस कर रहे होंगे,  जबसे बिलकिस बानो की रिहाई को लेकर केन्द्र सरकार की साफ संलिप्तता के प्रमाण एक के बाद एक बाहर रहे हैं, जिसके बारे में अभी तक आश्चर्यजनक मौन बरता गया था। 

याद रहे कि दो माह का वक्त़ बीत गया था जब बिल्किस बानो के अपराधियों कोअच्छे आचरण’’ के आधार पर रिहा किया गया था, जब 15 अगस्त की लाल किले पर प्रधानमंत्राी मोदी की तकरीर के चंद घंटों के बाद वह सभी गोधरा जेल के बाहर आए थे, उनका नागरिक अभिनंदन हुआ था। यह एक ऐसा प्रसंग था जिसे लेकर देश के अंदर ही नहीं बल्कि देश के बाहर भी इन्साफपसंद लोगों, समूहों ने आक्रोश प्रगट किया था।

 
याद रहे बिल्किस बानो एवं उसकी मां तथा अन्य महिला रिश्तेदार सामूहिक बलात्कार का शिकार हुई थीं और चौदह  लोग मारे दिए गए थे जिनमें बिल्किस की तीन साल की बेटी भी शामिल थी, जिसे पत्थर पर पटक कर मार दिया गया था - जिसमें अपराधी अपनी सज़ा पूरी करने के पहले ही बाहर गए थे। और अब जबकि मामले को लोग भूलने लगे थे, तब अचानक आला अदालत की दखलंदाजी ने उस सच्चाई को पूरी तरह बेपर्द किया था कि मंचों से नारीशक्ति की बातों को दोहराने से और हक़ीकत में स्त्राीविरोधी अत्याचारियों की हिमायत करने की यह नीति लंबे समय तक ढंकी नहीं रह सकती।

तय है कि अग्रणी महिला विदुषियों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों ने मिल कर सर्वोच्च न्यायालय के पास अपनी याचिकाएं दाखिल नहीं की होती तब यह सच्चाई कभी जनता के सामने नहीं आती।  इस बात को देश के सामने लाने के लिए मुल्क का हर इन्साफ पसंद व्यक्ति अस्सी साल की उम्र की प्रोफेसर रूपरेखा वर्मा, जो लखनऊ विश्वविद्यालय की कुलपति रह चुकी हैं ; सीपीएम की अग्रणी नेता कामरेड सुभाषिनी अली और पत्रकार रेवती लाल का तथा एक अलग याचिका को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के पास पहुंची तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा का शुक्रगुजार होगा कि उन्होंने इन अपराधियों की रिहाई को लेकर जनता के उद्धेग एवं आक्रोश को अदालत तक पहुंचाया, जिसने फिर मामले को हाथ में लिया।


आला अदालत के फरमान पर गुजरात हुकूमत द्वारा उसके सामने जिन दस्तावेजों को पेश किया गया है, उन्हें देखें तो पता चलता है कि सीबीआई के अधिकारी ने साफ कहा था कि चूंकि अपराध ‘‘बेहद घिनौना, गंभीर और भयानक’’ है, लिहाजा इन अपराधियों को पहले रिहा किया जा सकता है और ही किसी किस्म की छूट दी जा सकती है


गौरतलब है कि जिस सिविल जज ने इस मामले में फैसला दिया था / वही/ उसने साफ किया था कि चूंकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर इस मामले की अदालती कार्रवाई मुंबई में चली है, इसके लिए अपराधियों को रिहा किया जाए या नहीं इसे लेकर महाराष्ट सरकार की 2008 की नीति लागू होनी चाहिए और सबसे बढ़ कर यह कि
 

चूंकि यह सभी सज़ायाफता कैदी निरपराधों के बलात्कार और हत्या के दोषी पाए गए हैं, और इस बात को मददेनज़र रखते हुए कि अभियुक्तों की इन सभी पीड़ितों के साथ कोई दुश्मनी थी और कोई संबंध था, अपराध को महज इस वजह से अंजाम दिया गया क्योंकि पीड़ित खास धर्म से सम्बद्ध थे - यहां तक कि बच्चों को भी बख्शा नहीं गया - यह सब एक तरह से इन्सानियत के खिलाफ अपराध था। यह समाज के ज़मीर को प्रभावित करता है और समूचा समाज इस मामले में पीड़ित है’’ लिहाजा इस मामले में कोई नरमी नहीं बरतनी चाहिए और उन्हें सज़ा से कोई छूट नहीं मिलनी चाहिए। / वही/


गुजरात सरकार द्वारा जिन दस्तावेजों के पुलिंदे को आला अदालत के सामने पेश किया गया है उसके बारे में न्यायालय की टिप्पणी बहुत कुछ कहती है, माननीय न्यायालय ने कहा है कि यह दस्तावेज ‘‘काफी मोटे’’ हैं, इसमें ‘‘तमाम अदालती फैसलों को भी उदध्रत किया गया हैमगर इनमें से मामले से जुड़े ‘‘तथ्य के बराबर है।’’ कहने का तात्पर्य कि इन पुलिंदों में बहुत कुछ शाब्दिक कसरत की गयी है और मनमाने अंदाज़ में की गयी इस रिहाई को औचित्य प्रदान करने की कोशिश की गयी है।


वैसे इन दस्तावेजों के पुलिंदे में में जिन तथ्यों को अनकहा छोड़ा गया है, उन्हे यहां अनुल्लेखित नहीं छोड़ा जा सकता।


जाहिरसी बात है कि 11 सज़ायाफता कैदियों की रिहाई के मसले का यह फैसला - जो प्रधानमंत्राी मोदी के ग्रहराज्य से संबंधित था और इसका ताल्लुक राज्य के आगामी विधानसभा चुनावों के साथ साफ देखा जा सकता है, उसे खुद प्रधानमंत्राी को विश्वास में लिए बगैर नहीं लिया गया होगा।

अब यह भी पता चल रहा है कि इन सज़ायाफा अपराधियों पर ग्रह मंत्रालय की नज़र इनायत अर्थात कृपादृष्टि  इस कदर थी कि जेल की सलाखो में इन्होंने बीताए 14 सालों में से चार साल-चार साल इन सभी ने सलाखों के बाहर बिताए इतना ही नहीं उनकेअच्छे आचरणकी दुहाई देने वाले गृह मंत्रालय  ने इस तथ्य पर भी गौर करना जरूरी नहीं समझा गया था कि इतने लंबे पैरोल के दौरान इनमें से दो अपराधियों पर महिलाओं के साथ छेड़छाड़ करने के मुकदमे भी दर्ज हुए थे।

ताज़ा समाचार यह है कि आला अदालत की द्विसदस्यीय पीठ ने - न्यायमूर्ति अजय रोहतगी और न्यायमूर्ति सी टी रवि कुमार - जो इस मामले को देख रहे हैं उन्होंने तय किया है कि इस मामले की अगली सुनवाई 29 नवंबर को होगी, जिस दौरान दोनों पार्टियां अपनी प्रतिक्रियाएं पेश करेंगी।


फिलवक्त़ यह बिल्कुल साफ नही है कि इस कानूनी दखलंदाजी का नतीजा क्या निकलेगा ?


क्या अपराधियों की सज़ा पूरी होने के पहले की गयी इस रिहाई को लेकर अदालत - कुछ बेहद जरूरी तथ्यों की अनदेखी करते हुए - कुछ विचित्रा सा फैसला सुनाएगी, जिसका नतीजा होगा कि पीड़ित और सर्वावर्स सभी फिर एक बार निराशा की एक गर्त में ढकेल दिए जाएंगे। विडम्बना ही है कि हाल के कुछ वर्षों में वर्चस्वशाली ताकतों, सरकारों द्वारा अदालत के सामने बंद लिफाफे में सबूत देने का सिलसिला बढ़ चला है।


या मुकदमे की यह  कार्रवाई एक किस्म की नज़ीर बनेगी ताकि गृहमंत्रालय  द्वारा किए गए ऐसे मनमाने हस्तक्षेपों पर हमेशा के लिए अंकुश लग जाए। और अदालत समय से पहले की गई रिहाई के इस आदेश को खारिज कर देगी और इन दिनों छुट्टा घूम रहे इन अपराधियों को जेल की सलाखों के पीछे फिर डाल देगी और एक तरह से बलात्कारियों को बचाने, अत्याचारियों का संरक्षण करने की आईंदा सामने आने वाली घटनाओं को लेकर पूरे समाज में जो एक जबरदस्त बेचैनी पसरी हुई है, उस कुहासे का दूर करेगी।


तय बात है कि ऐसा कोई भी निर्णय कार्यपालिका पर भी अंकुश लगाएगा जो इन दिनों ऐसे कदम उठैैाती दिखती है जहा वह अचानकसज़ायाफता लोगोंके अधिकारो को लेकर अचानक चिंतित हो दिखती है और वह इस बात को भी भूल जाती है कि इन अत्याचारियों के जुल्मों का कभी शिकार रहे लोगों, समूहो पर ; जिसके लिए लंबी लड़ाई लड़ चुके लोगों पर, उनकी सुरक्षा एवं उनकी भावनात्मक स्थिति पर कितना विपरीत असर पड़ सकता है।

फिलवक्त़ इन लाइनों को जब लिखा जा रहा है तब बलात्कार एवं हत्या के कई मामलों के लिए सज़ा भुगत रहे डेरा सच्चा सौदा के मुखिया गुरूमत बाबा राम रहीम को पांचवी दफा मिली पैरोल का मसला और उसके द्वारा शुरू किए गए आनलाइन सत्संग का मामला सूर्खियों में है, जहां भाजपा के क्षेत्राीय और प्रांतीय नेता केवल हाजिरी लगाते दिख रहे हैं बल्कि उनका आशीर्वाद ग्रहण करते दिख रहे हैं;


याद रहे इस विवादास्पद गुरू को अदालत द्वारा पहली सज़ा वर्ष 2017 में मिली थी जब पंचकुला में स्थित सीबीआई अदालत ने अपनी दो शिष्याओं के साथ बलात्कार करने के आरोप में बीस साल की सज़ा सुनायी। मालूम हो कि इन दो शिष्याओं ने अपनी आपबीती को लेकर बिना हस्तााक्षरित एक पत्र कई जगह भेजा था, जिनमें सिरसा के जांबाज पत्रकार रामचंद्र छत्रपति भी शामिल थे जिन्होंने अपने अख़बारपूरा सचमें इसे प्रकाशित किया था और उन्हें न्याय दिलाने के लिए आवाज़ बुलंद की थी, इस गुरू के गूर्गों ने रामचंद्र छत्रापति की भी हत्या की थी /2002/ इस मामले में भी रामरहीम को सज़ा सुनायी जा चुकी है, इतनाही नहीं अपने डेरा के मैनेजर रणजीत सिंह भी गुरू के गूर्गों के आतंक की बली चढ़ा /2002/ और इस मामले में भी रामरहीम सज़ायाफता है, जिस पर फैसला 2021 में आया है।


कल्पना ही की जा सकती है कि इन दो शिष्याओं को, पत्राकार छत्रापति के आत्मीय जनों को या रणजीत के करीबियों को न्याय पाने के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ी होगी, केस वापस लेने के लिए उन पर कितने किस्म के दबाव आए होगे, धमकियां मिली होंगी,इसके बावजूद अगर वह सभी खड़े रहे, डिगे नहीं तो ऐसे लोगों के मन में बाबा को मिली इन पांच सालों में बाबा को पांचवी दफा मिली पैरोल को लेकर क्या लग रहा होगा ? क्या वह भयाक्रांत नहीं होंगे ?


इसे महज इत्तेफाक नहीं कहा जा सकता कि बाबा को पैरोल पर चालीस दिन की मिली यह रिहाई का यही वक्त़ है जबकि हरियाणा में पंचायत के चुनाव हो रहे हैं और आदमपुर की सीट पर उपचुनाव भी हो रहा है, यह ऐसे इलाके हैं, जहां डेरा सच्चा सौदा के मुखिया का आज भी प्रभाव बताया जाता है और कयास लगाए जा रहे हैं कि पैरोल पर मिली इस रिहाई से भाजपा को ही फायदा होगा।

वैसे जब जनाब मनोहरलाल खटटर को - जो हरियाणा के मुख्यमंत्री हैं - को इस विवादास्पद गुरू की पैरोल पर पांचवी बार हुई रिहाई को लेकर पत्राकारों ने पूछा तो उन्होंने दो बातें कहीं - एक किसबकुछ नियमानुसार हुआ हैऔर उनकी सरकारसज़ायाफता लोगों के वैध अधिकारोंके प्रति भी सरोकार रखती है।


याद रहे बिलकिस बानो के अपराधियों को रिहा करने को लेकर इसी किस्म की बातें केंद्र में भाजपा के मंत्री प्रह्लाद जोशी ने कही थी किसबकुछ नियमानुसार हुआ है।

चाहे बिल्किस बाने के अपराधियों की समयपूर्व रिहाई का मामला हो या चाहे बलात्कार एवं हत्याओं के कई आरोपों के लिए तीन मामलों में सज़ायाफता गुरूमत रामरहीम जैसों को बार बार पैरोल पर मिल रही रिहाई हो - जिस दौरान वह केवल सत्संग करने के लिए स्वतंत्रा हैं बल्कि एक तरह से अपने शिष्यों से सीधे संवाद करने के लिए, अपने प्रवचनों के जरिए उन्हें परोक्ष अपरोक्ष रूप से किसे समर्थन देना है, यह बताने के लिए अगर आज़ाद हैं - और दोनों ही मामलों में उनकेअच्छे आचरणके लिए खुद केन्द्रीय मंत्राी एवं किसी राज्य के मुख्यमत्राी तैयार हों तो यह  समूचा घटनाक्रम इसी बात का सूचक है कि विगत कुछ सालों में कार्यपालिका के अंदर किस हद तक मनमाने पन बढ़ गया है कि अपने फैौरी फायदों के लिए उसे पीड़ितों और सर्वावरों के कल्याण की कोई चिंता नही दिखती।

वैसे सज़ायाफता कैदियों के अधिकारों के प्रति हुक्मरानों का उमड़ता सरोकार एक तरह से न्याय एव हक के लिए उठ  रही हर छोटी बड़ी आवाज़ को कुचल देने की एक नापाक कोशिश है, जिसके माध्यम से वह पीड़ितों को खामोश करना चाहते हैं और न्याय के लिए उन्होंने लड़ी लंबी लड़ाई को गायब कर देना चाहते हैं। इसमे कोई दोराय नहीं कि अपने तमाम मानवद्रोही अपराधों के लिए लंबी सज़ा काट रहे लोगों के ‘‘वैध अधिकारों की बात एक तरह से इस हक़ीकत के साथ बहुत मेल खाती है कि ऐसे लोगों केे प्रति शेष समाज का रवैया कैसा है क्या वह इनकी इस घ्रणित कार्रवाइयो से अपने आप को दूर खड़ा करती है या उन्हेें माला डालने में भी उसे कोई गुरेज नही है।


बुनियादी सवाल समाज के मानस का है कि उसके निगाह में क्या वरणीय है और क्या वरणीय नहीं है।


समाज क्या वह ऐसे विवादास्पद गुरुओं से अपने पहले से चले रहे रिश्तों की समीक्षा करना चाहता है या अपनी आंखों पर पटटी बांधे रहना चाहता है ? सामूहिक बलात्कार एवं हत्या के आरोपियों के प्रति उसका रवैया क्या होगा ? या उसका प्रस्थान बिंदु यही रहेगा कि चूंकि वह ‘‘गैर’’ धर्मियों के साथ ज्यादतियों के दोषी हैं, लिहाजा उसके लिए वरणीय होंगे, पूजनीय होंगे ?

क्या इस बात को वह उचित मानेगा कि सामूहिक बलात्कार एवं कई हत्याओ के लिए सज़ा काट रहे लोगो पर - जिनपर यह भी आरोप हो कि उन्होंने तीन साल की एक बच्ची हो भी पटक पटक कर मार डाला‘- फूल बरसायें जाएं, उन्हें माला पहनायी जाए और उनका नागरिक अभिनंदन किया जाए, उनकी आरती उतारी जाए।

इन सभी सवालों को पूछने की जरूरत इस वजह से है कि क्योंकि यह सोचने का वक्त गया है कि आखिर समाज के नैतिक आधार को क्या हो गया है?

कोई भी सभ्य समाज निरपराधों के हत्यारे, मासूमों के बलात्कारियों के प्रति सम्मान प्रगट करने को गलत मानता है, लेकिन जिसन्यू इडियामें  हम विगत आठ-साडे आठ सालों से पहुंचे है, वहा शायद मानदंड बदल गए हैं।

शायद इन्हीें बदलते नैतिक मानदंडो का आलम है कि बमुश्किल आठ साल की बक्करवाल समाज की बेटी आसिफा पर हुए सामूहिक बलात्कार और बाद में उसकी की गयी हत्या के बाद जब अभियुक्तो को गिरफतार किया गया तब उनकी रिहाई की मांग करते हुए जुलूस निकाले गए, जिनमें बीजेपी के कई स्थानीय लेकिन बड़े नेता भी शामिल हुए  थे  या कुलदीप सेंगर जैसे भाजपा नेता पर इसी किस्म के आरोप लगे तो सरकार के कितने स्तर पर उसे बचाने की कोशिश हुई , यहां तक कि उसके समर्थन में जुलूस भी निकाले गए।

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