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कैपिटल हिल के विद्रोह का सबक़ 

कोई मतलब नहीं कि सम्पत्ति के पुनर्वितरण के संदर्भ में एक समतावादी समाज कैसे बनता है। सार्वजनिक सेवाओं, मुख्य रूप से शिक्षा, स्वास्थ्य की देखभाल के प्रावधान, और नौकरी की सुरक्षा, में बिना प्रभावशाली सरकारी निवेश के, अमेरिकी संस्थाओं में नागरिकों के विश्वास और विभ्रम की समस्या बनी रहेगी और इसके साथ ही, निम्न-निर्धन वर्ग के अतिसुधारवादियों के जरिये उग्रवाद का भी उभार होगा। 
कैपिटल हिल के विद्रोह का सबक 
चित्र एपी के सौजन्य से 

हालांकि अमेरिका के एक बड़े हिस्से ने 6 जनवरी को हुए कैपिटल हिल कांड की घोर भर्त्सना की है, लेकिन इस यू गवर्नमेंट पोल में 5 व्यक्तियों में से 1 व्यक्ति का उस हमले का समर्थन करना, उसे जायज ठहराना, परेशान करने वाला है। हमलावरों के इन रवैयों के पीछे प्रतिनिधि सभा (हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव) और सीनेट के रिपब्लिकन सांसदों की पुरजोर शह थी, जिन्होंने गत साल के नवम्बर में हुए राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे की वैधता पर लगातार सवाल उठाया है। यह प्रकरण अमेरिकी राजनीतिक व्यवस्था में गहराते संड़ांध का चिंतित करने वाला संकेत है। 

देश की राजनीतिक संस्थाओं के इर्द-गिर्द भौतिक सुरक्षा को चाक-चौबंद करने का दीर्घावधि में बहुत कम महत्व रहा है, खासकर अगर उनके भीतर से ही ऐसी खुराफातें उभरती हैं, जो उनके बनाना रिपब्लिक की लगातार जारी दुष्टक्रिया का उदाहरण हैं।

अमेरिका का यह “बेयरूत ब्लास्ट” है। इस कांड को हमें स्वयं के सावधान हो जाने का आह्वान बिंदु बनाना चाहिए। पिछली गर्मी में बेयरूत के व्यापक हिस्से में हुआ बम विस्फोट, जो कि अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण था, वह संदर्भों से अलहदा कोई निरा आपराधिक कृत्य मात्र नहीं था, बल्कि लेबनान सरकार की दशकों से जारी अक्षमता, लापरवाही, और व्यवस्था में जड़ जमाए भ्रष्टाचार के प्रति आम जन के विरोध का हिंसक प्रकटीकरण था-यह जनता की अपरिहार्य आवश्यकताओं के प्रति सत्ताधारी वर्ग की आपराधिक अवहेलना का परिणाम था। 

ठीक उसी तरह, 6 जनवरी के कांड को अमेरिका की राजनीतिक दुष्क्रिया के नजरिए से देखा जाना चाहिए, जो अपने चरम पर पहुंच गई है। यद्यपि देश अभी भी आर्थिक रूप से ताकतवर प्रतीत होता है, पर राजनीतिक रूप से यह कमजोर और सामाजिक तौर पर भुरभुरा हो गया है, जो एक पतनशील होते समाज का एक लक्षण है। सारा जोर अपेक्षतया छोटे समूह पर है, जो लचर सुरक्षा घेरा को तोड़ कर कैपिटल हिल में घुस आए थे, जैसे बाकी सब चीज से नज़र चुरा कर बेयरूत बम विस्फोटों के मलबे पर यह सबका ध्यान आकर्षित करना चाहता है। 

इसमें सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण अमेरिका के प्रतिनिधिक सर्वेक्षणों के नमूने हैं,  जो मुख्य संस्थाओं के प्रति नागरिकों के गहराते अविश्वास और देश के कई सारे हिस्सों में सांप्रदायिक हितों के प्रति उनकी बढ़ती प्रतिबद्धता को जाहिर करते हैं, जिसने खुद ही गणतंत्र के प्रति उनकी प्रतिबद्धता की जगह ले ली है। 

यह तथ्य उस दिन के कांड पर जरा अलग ही रोशनी डालता है। यद्यपि उग्र ट्रंप समर्थक के उथल-पुथल को चिंगारी स्वयं राष्ट्रपति ट्रंप के उन आरोपों ने दी थी कि नवम्बर में हुए राष्ट्रपति पद का चुनाव-परिणाम उनके प्रति एक धोखा था, किंतु कैपिटल हिल पर किया गया हमला बहुत सारे लोगों के लिए, समूचे राजनीतिक वर्ग के विरुद्ध एक विप्लव था। जैसा कि हमलावरों की भीड़ में शामिल एक सदस्य ने कहा, “सभी राजनेता हमारे लिए काम करते हैं। हम उन्हें पगार देते हैं, हम अपना कर चुकाते हैं। और हमें क्या मिलता है? कुछ नहीं। वहां बैठे सभी के सभी राजनेता देशद्रोही हैं।”

इस विशेष बिंदु पर आ कर,  उग्र हिंसक भीड़ की सत्ता या राजनीतिक वर्ग से शिकायतें और विद्वानों के आकलन मेल खा जाते हैं: अमेरिका में एक गुटतंत्र का शासन है, न कि सक्रिय लोकतंत्र का;

यह निष्कर्ष मार्टिन गिलेंस और बेंजामिन पेज ने 2014 में अपने विस्तृत अध्ययन में दिया था। इस प्रकार, यह अमेरिकी लोकतंत्र पर धावा था,  कैपिटल हिल में मचाया गया ऊधम अमेरिकी लोकतंत्र के पहले से ही विफल होते जाने का एक संकेतक था। निश्चित रूप से यह फूहड़ क्रांतिकारियों का कैपिटल हिल में मचाया बवाल नहीं था क्योंकि वे अमेरिकी महत्वाकांक्षा में जी रहे हैं और बिना किसी आश्चर्य के वे समूचे राजनीतिक वर्ग को उनकी गड़बड़ियों के लिए दोषी करार दे रहे हैं। 

जब कभी भी इस अतिसुधारीकरण की आर्थिक व्याख्या करने का प्रयास किया गया,  तो आर्थिक असमानता को लेकर अपने नेतृत्व के प्रति अमेरिका के कामकाजी वर्ग के गहरे असंतोष को एक मूल वजह माना गया है। जोसेफ स्टिग्लिट्ज़ से लेकर, थॉमस पिकेटी या एम्मानुएल साज़ तक कई विश्लेषकों ने इस एकल थीम को अन्य सभी थीमों से ऊपर रखा है। इन सबका मानना है कि राजनीतिक व्यवस्था में आर्थिक असमानता की जड़ें गहरी हैं। दलगत भेदभाव से ऊपर उठकर रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टियों में धन के पुनर्वितरण के जरिए असमानता से लड़ने पर सहमति बन रही है-इसमें न्यूनतम मजदूरी से लेकर बेरोजगारों को दिये जाने वाले फायदों को बढ़ाने की मांग की जा रही है। 

असमानता सर्वाधिक ध्यान इसलिए इसलिए खींचती हैं क्योंकि इसको आसानी से मापा जा सकता है। दरअसल,  रिपोर्ट बताती है कि शिखर पर बैठे 1 फीसद अमेरिकी अपने नीचे के 90 फीसद नागरिकों से 50 ट्रिलियन डॉलर ले रहे हैं,  यह आसानी से पकड़ में आने वाला अन्याय है। हालांकि अमेरिका के श्वेत कामगार वर्ग पर किए गए अध्ययन बताते हैं कि असमानता के प्रति होहल्ला के बावजूद इस आबादी में बहुत सारे लोग धनाढ्य बने हुए हैं। 

इसके अलावा, आर्थिक असमानता पर एकल ध्यान देने से एक दूसरा परिदृश्य अव्यक्त हो जाता है-वृहद आर्थिक असुरक्षा व्यापक आबादी को प्रिकैरियट के परे प्रभावित करती है (जिन्हें श्रम के बदले मामूली भुगतान मिलता है और जिनकी नौकरी असुरक्षित है)। यद्यपि असुरक्षा की थाह लेना और उसके बारे में रिपोर्ट करना आसान नहीं है, यह दरअसल पश्चिमी समाजों की सामाजिक बीमारी की जड़ में है। 

आर्थिक अशक्तता-अनिश्चितता (इकोनॉमिक्स प्रि-कॉरिटी) को एक मूल वजह मानना इसकी बेहतर कैफियत देने में भी मदद करता है कि क्यों कामगार वर्ग का इतना बड़ा हिस्सा दक्षिणपंथी हो गया है। दक्षिणपंथी लोकवादी खासकर ऐसी भाषा बोलते हैं, जो रूढ़िवादी प्रवृत्तियों को भड़का देती है-परिवार का स्मरण, स्थायित्व की इच्छा (फिर से अमेरिका को महान बनाना-मेक अमेरिका ग्रेट अगेन), यह किसी नई राजनीतिक प्रयोगधर्मिता के साथ-किसी “विदेशी”-यूरोपीयन शैली (खास कर जब यह “जागरण” मसले के साथ इसको जोड़ा जाता है, जिसकी प्रवृत्ति अलगाव की होती है) के लोकतंत्र के साथ-अमेरिकी मानसिकता को जोड़ने के विपरीत है।

वहीं दूसरी तरफ, कई मुक्तिवादी दक्षिणपंथी चैम्पियन मुक्त बाजार रूढिवादी, जो एकजुटता के दृष्टिकोण का संवर्द्धन करने के बजाय प्रतिद्ंद्विता के पोषक हैं-खास कर जबकि सार्वजनिक वस्तुएं निजीकरण के जरिये प्राइवेट भाड़े पर दी जा रही हैं, जो संसाधनों पर लोगों की पहुंच को सीमित करती हैं, जो सामाजिक समन्वय बढ़ाने के बदले सघन प्रतियोगिता के प्रभाव को ही हल्का कर देती है। 

यहां तक कि डेमोक्रेटिक प्रशासन के समय में भी, असुरक्षित विनियोजन में संवृद्धि (ग्रोथ) के जरिए ही 2008 की वित्तीय मंदी से उबरा गया था। विगत 40 सालों से अमेरिका की अनगिनत सर्विस जॉब्स (तीसरी श्रेणी के काम-धंधे) ही उसकी आर्थिक संवृद्धि को खुराक देती रही हैं, भले ही उसकी गुणवत्ता कम रही है। हालांकि वैश्विक महामारी कोरोना ने अमेरिका की आर्थिक संवृद्धि को बर्बाद कर दिया है। रूढ़िवादी-उदारवादी के बीच विभाजन की कीमत पर नव उदारवाद के अभ्युदय ने नियोक्ताओं को हमारी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को श्रमिक संगठनों, कल्याणकारी राज्य के विखंडन और सार्वजनिक सेवाओं के निजीकरण के जरिये श्रमिकों के बजाय पूंजी की तरफ बेतरह मोड़ने का पहले से ही अधिकार दे दिया है। 

सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि सार्वजनिक सेवाओं और सामाजिक कार्यक्रमों के लिए धन का आवंटन लगातार घटाया जा रहा है। यह सामान्य जन के लिए वह मुफलिसी है, जिसने स्वास्थ्य की देखभाल और शिक्षा जैसी आवश्यक वस्तुओं को हासिल करने में निजी संपत्ति की महत्ता को बढ़ाया है। इस तरह,  आर्थिक असमानता बहुत ज्यादा मायने रखती है,  लेकिन व्यापक समस्या के एक गंभीर लक्षण के रूप में-जो कि समाज के बड़े पैमाने पर व्यापक है और इसमें बढ़ोतरी हो रही है। सार्वजनिक क्षेत्र में कटाव सामाजिक समर्थन पाने तक बहुतों की पहुंच में अड़ंगा लगा देता है, जिसने ऐतिहासिक रूप से आर्थिक सुरक्षा को पुष्ट किया है। 

परिणास्वरूप, अमेरिकी अर्थव्यवस्था नई के सदृश होने लगी है, शिखर पर सिलिकॉन वैली के प्रौद्योगिकी प्रभुओं और वॉल स्ट्रीट अरबपतियों के आधिपत्य के जरिये छोटे तकनीकीसेवी के साथ आधुनिक सामंतवाद के रूप में। और इसके सबसे निचले तल में हैं, बिना किसी सामाजिक सुरक्षा-संरक्षण के एक विशाल, अशिक्षित और कृषक-मजदूर वर्ग (सर्फ क्लास)।

यद्यपि धन-सम्पत्ति में इस अंतर को गरीब के बीच धन का हस्तांतरण कर पाटने का विचार किया गया था, फिर भी प्रि-कॉरिटि रहेगी क्योंकि इसकी जड़ न केवल असमानता में है, बल्कि इसकी जड़ जर्जर सार्वजनिक क्षेत्र में, एक सार्वजनिक प्राधिकरण में हैं, जिसने आम जन को परित्यक्त कर दिया है और उत्तरोतर शिकारी पूंजीवाद का एक वाहक बन गया है। 

कोरोना महामारी ने असमानता और अनिश्चितता दोनों को बेतहाशा तेज कर दिया है। वॉल स्ट्रीट और स्टॉक मार्केट, पिछले कई महीनों से उफान पर हैं और खतरे के अप्रत्याशित स्तरों से सराबोर सम्पन्नता पैदा कर रही है। ठीक इसी तरह, नौकरियों के अवसरों में गिरावट आई है और बेरोजगारी की दर हठधर्मितापूर्वक ऊंची बनी हुई है। लाखों अमेरिकियों की नौकरी छूट गई है, उनकी नौकरियां संभवत: किसी अच्छे के लिए खत्म हुई हैं, क्योंकि आर्थिक तालाबंदी के दुष्प्रभावों ने अनेक उद्योगों पर कहर बरपाया है।

एक प्रणाली में काम कर रहे कामगार वर्ग के लिए उस शाब्दिक जीवन का परिणाम बन गया है, जो कोरोना जैसी वैश्विक महामारी की रोकथाम के लिए प्रतिबंधों को लगातार लागू करता रहा है। अमेरिका जैसे देश में यह विशेष रूप से गंभीर विरोधाभास है, जहां स्वास्थ्य की देखभाल नियोक्ता-वित्तपोषित स्वास्थ्य की देखभाल प्रणाली के जरिये रोजगार के लिए प्रतिपादित की गई है। तो हमने एक दुष्चक्र का निर्माण किया है: महामारी के दुष्प्रभाव को धीमा करने के लिए प्रतिबंध लगाये जा रहे हैं, जो प्रतिक्रिया में नौकरियां का नुकसान कर रहे हैं, जिसके मायने रोजगार की क्षति है और, इस प्रकार, स्वास्थ्य की देखभाल के प्रावधानों तक कामगारों की पहुंच न होने का घाटा है। तब स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए बनाई गई बहुत नीतियां, अंततः समस्या को बढ़ा देती हैं। इन सारे कारकों को एक साथ रखने पर, इसे चुनावी नतीजे के प्रभाव कम करने के तहत काम करने वाले जनोत्तेजक नेता के साथ मिला कर देखें तो आप आसानी से उस तरह के विषैले प्रकोप के अवयवों को पा लेंगे, जिसे हम सभी ने 6 जनवरी को देखा है। 

जिन ताकतों ने कामगार वर्ग की सुरक्षा को घटाने की अगुवाई की थी, वे अब इसका विस्तार, कानूनविद् लेकर आइटी के इंजीनियर्स तक, कर रहे हैं, जो ऐतिहासिक रूप से बेहतर तनख्वाह वाली नौकरियां हैं। यहां तक कि भयंकर मंदी और तेज गति से बढ़ती महामारी के बीच देश के नीति-निर्माता इन रुख-रुझानों तथा अनिश्चितता के प्रति पूरी तरह उदासीन रहे हैं। वे लगातार यह विश्वास दिलाते रहे कि जो कुछ हुआ, वह ठोस संरचना में एक विघ्न मात्र है, यह सामान्यता एक विलगाव भर है, इन सब गड़बड़ियों को कालांतर में प्रोत्साहन देने वाली सही नीतियों के मिश्रण से दुरुस्त किया जा सकता है। 

ऐसा मालूम पड़ता है कि संयुक्त राज्य अमेरिका में असमानता से निपटने पर एक राजनीतिक रजामंदी (खास कर हाल में सम्पन्न हुए जार्जिया चुनाव के बाद, जिसमें अमेरिकी सीनेट पर पूरी तरह से डेमोक्रेटिक पार्टी का दखल हो गया है) बन रही है। लेकिन इसकाकोई मतलब नहीं कि सम्पत्ति के पुनर्वितरण के संदर्भ में एक समतावादी समाज कैसे बनता है। सार्वजनिक सेवाओं, मुख्य रूप से शिक्षा, स्वास्थ्य की देखभाल के प्रावधान, और नौकरी की सुरक्षा, में बिना प्रभावशाली सरकारी निवेश के, अमेरिकी संस्थाओं में नागरिकों के विश्वास और विभ्रम की समस्या बनी रहेगी और इसके साथ ही, निम्न-निर्धन वर्ग के अतिसुधारवादियों के जरिये उग्रवाद का भी उभार होगा। 

अलबेना आज़मनोवा : केंट यूनिवर्सिटी के ब्रूसेल्स स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में राजनीति की एसोसिएट प्रोफेसर हैं। वह ‘कैपिटलिज्म ऑन एज: हाउ फाइटिंग प्रिकारैटि कैन अचीव रैडिकल चेंज विदाउट क्राइसिस अर यूटोपिया’ (2020) किताब की लेखिका हैं। 

मार्शल ओरबैग : लेवी इकोनोमिक्स इंस्ट्टियूट ऑफ बार्ड कॉलेज में शोधार्थी हैं। इकोनॉमी फॉर पीस एंड सिक्युरिटी के फैलो हैं, और इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्ट्टियूट के एक प्रोजेक्ट इकोनॉमी फॉर ऑल के नियमित लेखक हैं।

स्रोत : इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्ट्टियूट

सौजन्य: यह आलेख इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्ट्टियूट के प्रोजेक्ट इकोनॉमी फॉर ऑल द्वारा प्रकाशित किया गया था। 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें 

Lessons From the January 6 Insurrection in US Capitol

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