चावल से एथनॉल बनाना, गरीबों पर चोट करना है
केंद्रीय खाद्यान्न सचिव सुधांशु पाण्डेय ने अपने हालिया प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि 2020-21 में केंद्र सरकार ने एथनॉल के उत्पादन के लिए भारत के खाद्य निगम (एफसीआइ) के भंडारण से 78,000 हजार टन चावल का आवंटन भट्ठियों (डिस्टिलरिज) को किया है। भट्ठियों को यह चावल रियायती दाम 20 रुपये प्रति किलो की दर से दिया गया है।
केंद्रीय पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय जैव ईंधन समन्वय समिति (एनबीसीसी) ने एफसीआई के गोदामों में अतिरिक्त पड़े चावल का इस्तेमाल एथनॉल बनाने में करने का निर्णय किया है। एथनॉल को पेट्रोल के साथ मिश्रित किया जाएगा या इसका उपयोग अल्कोहल-आधारित सैनिटाइजर्स बनाने में किया जाएगा।
यह निर्णय प्रगतिशील प्रतीत हो सकता है, लेकिन यह देश में खाद्यान्न की असुरक्षा से बुरी तरह पीड़ित लाखों-करोड़ों लोगों का तिरस्कार कर सकता है, विशेष कर कोविड-19 महामारी के समय में। इसलिए मालूम होता है कि सरकार का यह फैसला जैव-ईंधन (बायोफ्यूल) उद्योग में लगे मुट्ठी भर कॉरपोरेट घरानों को फायदा पहुंचाने के लिए किया गया है। आज के दौर में जीवाश्म ईंधन ऊर्जा का एक मुख्य स्रोत हैं और ये वातावरण में ग्रीन हाउस गैस (जीएचजी) समेत तमाम उत्सर्जन के कारण हैं, जिनसे ग्लोबल वार्मिंग होती है। इस वजह से भी, एनबीसीसी के निर्णय को मानना कठिन है।
खाद्यान्न की फसलों को जैव-ईंधन उत्पादन में बदलना अनैतिक है, खास कर भारत में जरूरतमंदों तक पर्याप्त खाद्यान्न वितरण की विफलता को देखते हुए। इस संदर्भ में तात्कालिक प्राथमिकता गोदामों से खाद्यान्नों को निकाल कर राशन की दुकानों तक सुरक्षित पहुंचाने की होनी चहिए जिससे कि इसकी भारी कमी की पूर्ति की जा सके। यह सराहनीय है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से भारत के खाद्यान्न उत्पादन में छह गुनी वृद्धि हो गई है और 2021 के खरीफ सीजन में कुल उत्पादन 310 मिलियन टन के पार जाने का अनुमान किया गया है।
हालांकि, बहुतायत में पैदावार होने और उसका भंडारण होने के बीच, भूख का गंभीर संकट बना हुआ है। भारत वैश्विक भूख सूचकांक (ग्लोबल हंगर इंडेक्स) में नौ स्थान और नीचे खिसक गया है। 2019 के सूचकांक में यह 117 देशों के बीच 102वें स्थान पर था। केंद्रीय खाद्यान्न सुरक्षा की योजना के तहत देश की 800 मिलियन आबादी को भोजन की सुरक्षा दी जाती है, जो सकल आबादी की 62 फीसदी है लेकिन इसके दायरे से 90 से 100 मिलियन गरीब वंचित रह जाते हैं।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-4 (नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-NFHS) 2015-16 में पाया गया कि देश में पांच साल से कम आयु वर्ग के 38.4 फीसदी बच्चे अपनी उम्र के हिसाब से “बौने” हो गए हैं या उनकी लंबाई कम हो गई है और 21 फीसदी “क्षीणकाय” हैं, यानी ऊंचाई के लिहाज से उनका वजन कम है। एनएफएचएस-3 और एनएफएचएच-4 के बीच 10 साल के दरम्यान कुपोषण या कृशकायता की व्यापकता में 19.8 फीसदी से 21 फीसदी की वृद्धि हुई है।
भारत में खरीफ फसल के रूप में लगभग 85 फीसदी चावल का उत्पादन होता है, जो मानसून पर बुरी तरह निर्भर है। यह सच है कि सामान्य मानसून की भविष्यवाणी की जाती है, लेकिन क्या होता है कि जब मानसून की संभावना अगर गलत हो जाती है या उसमें बदलाव होती है जैसा कि अभी होता प्रतीत हो रहा है? यदि हमारे गोदाम खाद्यान्नों से पूरी तरह भर जाते हैं, तो सरकार को इन्हें रियायत दरों पर उप-सहारा अफ्रीकी देशों या अन्य देशों में निर्यात करने पर विचार करना चाहिए, जो महामारी की वजह से गंभीर खाद्यान्न संकट का सामना कर रहे हैं।
केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के आर्थिक एवं सांख्यिकी निदेशालय के मुताबिक 2019 में 70.1 किलोग्राम (प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष) चावल उपलब्ध था, इसमें 1991 की 80.9 किलोग्राम उपलब्धता में काफी गिरावट आई है। इसी तरह, सत्ता में आई सरकारों द्वारा गरीब-विरोधी एवं कॉरपोरेट समर्थित नवउदारवादी नीतियों के क्रियान्वयन से आए कुपोषण से प्रतिव्यक्ति कैलोरी की उपलब्धता में भी गिरावट आई है।
एफसीआई के गोदामों में सड़ते अनाज
विगत में, एफसीआई मनुष्य के खाने लायक न रहने वाले या सड़ गए खाद्यान्नों को मवेशी के चारे के रूप में बेच दिया जाता था। इस आम विश्वास कि एफसीआई के गोदामों में लाखों टन खाद्यान्न सड़ जाता है या बर्बाद हो जाता है, इसके बावजूद उसे खाद्यान्नों के भंडारण का अच्छा स्रोत माना जाता है। विगत पांच वर्षों में एफसीआई द्वारा जारी किए जाने वाले खाद्यान्नों के सकल परिमाणों की मात्रा 0.01 से 0.04 फीसदी रही है। पहली मार्च को, एफसीआई के पास 984 टन चावल और 20 टन गेहूं इस्तेमाल न करने लायक रह गया था। अब इतने कम परिमाण वाले खराब अनाजों से एथनॉल का उत्पादन शायद ही किया जा सकता है।
अच्छी गुणवत्ता वाले चावल-जो एफएसएसएआई के विनिर्देशों के तहत आता है-के उपयोग से एथनॉल बनाने का एनबीसीसी का निर्णय किसी भी समय के लिहाज से एक बुरी नीति है, लेकिन खासकर इस वैश्विक महामारी के दौरान यह नीति अनैतिक है। इसलिए कि यह राष्ट्रीय आमदनी में गिरावट, आसमान छूती बेरोजगारी, और खाद्यान्नों के बढ़ती कीमतों के दौरान पीडीएस के तहत मिलने वाले राशन से गरीबों को वंचित कर देती है।
दामों में बढ़ोतरी एवं खाद्यान्न के लिए दंगे
खाद्यान्नों को जैव-ईंधन के उत्पादन में बदलने की प्रक्रिया को कई देशों में खाद्यान्नों कीमतों में बढ़ोतरी की एकमात्र वजह मानी गई। मक्के और अन्य अनाज मुर्गी के दाने और पशु-आहार में खप जाते हैं। इसलिए, ये खाद्यान्न अर्थव्यवस्था के एक मुख्य हिस्से हैं।
अमेरिका 2007-08 में अपने 25 फीसदी मक्के का इस्तेमाल जैव-ईंधन बनाने में करता था। वह अन्य अनाजों के अलावा, तिलहन की फसलों जैसे सफेद सरसों, सोयाबिन और सूर्यमुखी का उपयोग जैव-ईंधन बनाने के लिए करता था। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार मार्च 2008 से गेहूं, चावल एवं मक्के के औसत वैश्विक दामों में क्रमश: 130 फीसदी, 74 फीसदी और 31 फीसदी की बढ़ोतरी हो गई। खाद्यान्नों की कीमतों में इस तेज बढ़ोतरी के चलते एशिया एवं अफ्रीका के कई देशों में जन—प्रदर्शन एवं दंगे तक हो गए।
हमारे देश के नीति-निर्माता अनाजों को जैव-ईंधन में बदलने के खतरों से पूरी तरह अवगत थे। जैव-ईंधन पर 2009 में बनाई गई एक राष्ट्रीय नीति में भोजन एवं ईंधन में टकराव को टालने के लिए गैर-खाद्यान्न संसाधनों को अपनाने पर जोर दिया गया था। सरकार ने 2018 में 2009 की अपनी नीति में बदलाव किया। जैव-ईंधन पर नई राष्ट्रीय नीति 2030 तक पेट्रोल में 20 फीसद एथनॉल एवं डीजल में 5 फीसदी जैव-डीजल मिलाने का लक्ष्य तय किया।
भारत के पास 6.84 बिलियन (684 करोड़) लीटर एथनॉल के उत्पादन की क्षमता है। पेट्रोल के इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए, “सरप्लस” चावल को 2025 तक अतिरिक्त 1000 करोड़ लीटर एथनॉल उत्पादन में बदला जा रहा है। सरकार ने चावल समेत खाद्यान्नों से एथनॉल बनाने के लिए अपने उत्पादन के ढांचे को विस्तारित करने के लिए वित्तीय सहायता का प्रावधान किया है। इस मकसद के लिए 418 औद्योगिकी एथनॉल इकाइयों को चुना गया है, जिनमें 70 से अधिक इकाइयां अकेले उत्तर प्रदेश की हैं। यहां अगले वर्ष की शुरुआत में विधानसभा चुनाव होने हैं।
जैव-ईंधन उद्योगों द्वारा जैव-ईंधन पर जीएसटी को घटा कर महज 5 फीसदी करने पर बात चल रही है। सबसे बड़ी बात यह है कि इन उद्योगों पर पर्यावरण संबंधी कोई जवाबदेही नहीं रह गई है। चीनी मिलों एवं डिस्टिलरिज इकाइयां को खाद्यान्नों से एथनॉल बनाने के लिए वित्तीय सहायता मिल रही है। इन इकाइयों को संरचनागत विकास के पहले आवश्यक पर्यावरण प्रमाण पत्र पाने से छूट दी गई है। विगत तीन सत्रों में, चीनी मिलें एवं डिस्टिलरियों ने मार्केटिंग कम्पनियों को एथनॉल बेच कर अनुमानत: 22,000 करोड़ रुपये का राजस्व कमाया है। हालांकि चीनी मिलों ने इसका लाभांश किसानों को नहीं दिया है। न ही किसानों को चीनी मिलों के यहां लंबित राशि मिली है।
चावल या अन्य खाद्यान्नों को एथनॉल के उत्पादन में बदलने की प्रक्रिया से पीडीएस के तहत सबसे ज्यादा जरूरी खाद्यान्न सुरक्षा पर खतरा उत्पन्न हो जाता है। बायोडीजल उत्पादन के लिए खाद्यान्न और खाद्य तेलों का एक व्यवहार्य विकल्प सीमांत बंजर भूमि में अखाद्य तेलों की खेती करना है। बंजर भूमि पर अन्य खाद्यान्न की फसलें तो नहीं उगाई जा सकतीं किंतु गैर तिलहन की फसलें आसानी से उपज सकती हैं। उनकी खेती की लागतें भी काफी कम होती हैं, और गैर-खाद्य तिलहन के पौधे वातावरण में अपेक्षाकृत कम कॉर्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित करते हैं। इनकी खेती के बाद फसलों के अवशेषों को शीरा में बदल जाता है और कोशिका (सेल्युलोज)-आधारित जैव-ईंधन का संयंत्र जैव-ईंधन के उत्पादन के एक वहनीय विकल्प हैं। दुर्लभ खाद्यान्नों को रूपांतरित कर फसलों की खेती के लिए उर्वरकों, पानी, ऊर्जा एवं अन्य संसाधनों पर अधिक जोर देने की बजाय सरकार को ऊर्जा सुरक्षा प्राप्त करने के लिए पवन ऊर्जा जैसे गैर-पारंपरिक स्वच्छ संसाधनों का पता लगाना चाहिए।
(डॉ. मार्ला आईसीएआर, नई दिल्ली से अवकाशप्राप्त एक प्रधान कृषि-वैज्ञानिक हैं। आलेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)
अंग्रेजी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे लिखे लिंक पर क्लिक करें-
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