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टीएमसी के कई पदाधिकारी आगे भी बीजेपी में शामिल हो सकते हैं

सुवेंदु अधिकारी और तृणमूल कांग्रेस के कई नेता दिसंबर में गृहमंत्री अमित शाह की मौजूदगी में बीजेपी में शामिल हो गए थे। अब विधानसभा चुनावों के पहले कम से कम पांच टीएमसी पदाधिकारियों के बीजेपी में शामिल होने की संभावना है। इनमें कुछ हावड़ा जिले से हैं।
टीएमसी

गुरुग्राम: हाल में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के नेता और नंदीग्राम से विधायक रहे सुवेंदु अधिकारी गृहमंत्री अमित शाह की मौजूदगी में बीजेपी में शामिल हो गए थे। इस घटना को एक महीने से भी कम वक़्त गुजरा है। अब दूसरे टीएमसी नेता ममता बनर्जी के नेतृत्व में पार्टी के संचालन में अपनी नाखुशी और हताशा खुलकर जाहिर कर रहे हैं। यह लोग भी आने वाले अप्रैल में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए बीजेपी में शामिल होने की ज़मीन तैयार कर रहे हैं।  

प्रमुख टीएमसी नेताओं के बीजेपी में शामिल होने की शुरुआत मुकुल रॉय ने की थी। 2017 में बीजेपी में शामिल हुए रॉ़य राज्यसभा के सांसद रहे हैं, वे ममता बनर्जी के भी करीबी रहे हैं, जिन्हें उनके समर्थक दीदी के नाम से पुकारते हैं। 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने राज्य में अच्छा प्रदर्शन करते हुए 42 लोकसभा सीटों में से 18 पर जीत दर्ज की थी। कई लोगों ने इसे बीजेपी में शामिल होने के मौके के तौर पर देखा। अर्जुन सिंह और सौमित्र खान जैसे बड़े नेताओं ने उन चुनावों में टीएमसी छोड़कर बीजेपी का दामन थाम था। अर्जुन सिंह, बैरकपुर लोकसभा क्षेत्र और सौमित्र खान विष्णुपुर लोकसभा क्षेत्रों से बीजेपी के टिकट पर सांसद बने। 

अधिकारी परिवार

सुवेंदु अधिकारी के साथ पांच विधायक और एक सांसद, अमित शाह की मौजूदगी में दिसंबर में बीजेपी में शामिल हुए। इसके बाद सुवेंदु के छोटे भाई सौमेंदु ने टीएमसी छोड़ दी और बीजेपी में शामिल हो गए। वे पूर्वी मिदनापुर जिले में कांठी नगरपालिका के अध्यक्ष और टीएमसी के पार्षद थे। उनके साथ टीएमसी के 14 दूसरे पार्षदों ने भी बीजेपी का दामन थाम लिया।

सुवेंदु और सौमेंदु के बीजेपी में शामिल होने का बुरा असर उनके पिताजी और कांठी से टीएमसी सांसद शिशिर अधिकारी पर पड़ा। उन्हें दीघा-शंकरपुर विकास प्राधिकरण और पूर्व मिदनापुर जिले के टीएमसी अध्यक्ष पद से हटा दिया गया है। उन्हीं के परिवार के एक सदस्य आनंद अधिकारी को भी टीएमसी की जिला समन्वय समिति में पद से हटाया गया है।

सुवेंदु अधिकारी ने दावा किया है कि उनका परिवार अविभाजित मिदनापुर (जिसे 2002 में पूर्वी मिदनापुर और पश्चिम मिदनापुर जिले में विभाजित कर दिया गया था) को "जीतकर" रहेगा, जिसमें आदिवासी बहुल जंगल महाल भी शामिल है। स्पष्ट है कि यह बात ममता बनर्जी को पसंद नहीं आई। 

हावड़ा में टीएमसी के लिए मुश्किलें

राजनीतिक विशेषज्ञों ने उन दूसरे टीएमसी नेताओं के नाम भी बताए, जो बीजेपी में शामिल हो सकते हैं। इसमें वैशाली डालमिया, हावड़ा जिले की बल्ली विधानसभा से मौजूदा विधायक रतिन चक्रवर्ती, हावड़ा नगर निगम की मेयर रुद्रानिल घोष, टॉलीवुड एक्टर और टीएमसी के स्टार प्रचारक रहे राजीब बनर्जी भी शामिल हैं। राजीब फिलहाल दोमजुर से विधायक और राज्य में वनमंत्री हैं।

हावड़ा जिला कभी टीएमसी का मजबूत गढ़ कहा जाता था। लेकिन अब यहां से ममता बनर्जी के लिए खास दिक्कतें पैदा हो रही हैं। हावड़ा से मौजूदा सांसद प्रसून बनर्जी हैं, वे फुटबाल के ख्यात खिलाड़ी रहे हैं, जिन्हें 1979 में अर्जुन अवार्ड से भी नवाजा जा चुका है। उन्होंने 2019 में बीजेपी के रंतिदेव सेनगुप्ता को एक लाख से ज़्यादा वोटों से हराकर इस सीट पर जीत दर्ज की थी। हावड़ा जिले की सभी सातों विधानसभा सीटों पर टीएमसी के विधायकों ने जीत दर्ज की थी। यह सीटें हैं- बल्ली, हावड़ा उत्तर, शिबपुर, हावड़ा दक्षिण, संक्रेल औऱ पांचला हैं।

पांच जनवरी को IPL के पूर्व खिलाड़ी और हावड़ा उत्तर से विधायक लक्ष्मी रतन शुक्ला ने राज्य के युवा मामलों और खेल मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने एक दिन पहले फिलहाल के लिए राजनीति छोड़ने और हावड़ा जिला तृणमूल कांग्रेस (सदर) के अध्यक्ष पद को छोड़ने का ऐलान किया था। हालांकि उन्होंने कहा कि वे अपने विधानसभा कार्यकाल को पूरा करेंगे। शुक्ला ने अब आगे "बंगाल में खेलों के विकास" पर ध्यान केंद्रित करने की इच्छा जताई। 

शुक्ला के फ़ैसले पर ममता बनर्जी ने कहा, "उन्होंने मुझसे लिखित में कहा है कि वे विधायक के तौर पर अपना कार्यकाल पूरा करेंगे। लेकिन वे राजनीति छोड़ना चाहते हैं। मैं उनके फ़ैसले का स्वागत करती हूं और उन्हें शुभकामनाएं देती हूं। वे एक खिलाड़ी हैं और खेलों पर ही ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं।"

लेकिन शुक्ला के इस्तीफ़े से हावड़ा में टीएमसी के समर्थक वर्ग में उथल-पुथल मच गई है। शुक्ला के लिखित इस्तीफे के बाद बल्ली से विधायक वैशाली डालमिया ने कहा, "हमारी पार्टी में कुछ नकारात्मक सोच के लोग हैं, जो लगातार हमें उत्पीड़त करते रहते हैं। वे विधायकों को काम नहीं करने देते हैं और उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं। CPI(M), कांग्रेस या बीजेपी जैसी पार्टियां हमारी बेइज़्जती नहीं करतीं। यह हमारी खुद की पार्टी के सदस्य हैं, जिनमें ब्लॉक प्रेसिडेंट या पार्षद जैसे लोग शामिल हैं, जो हमारा विरोध करते हैं।"

डालमिया ने टीएमसी के कुछ अज्ञात लोगों को "दीमक" भी करार दिया। उन्होंने NDTV से कह: "मुझे कुछ ऐसे लोगों से शिकायत है, जो पार्टी, हमारे लोगों और समुदाय के खिलाफ़ ही काम कर रहे हैं। मुझे ऐसे लोगों से दिक्कत है। मेरे इलाके में ऐसे लोग हैं, जो हावड़ा में व्यापार को फलने नहीं दे रहे हैं। ऐसे लोग हैं, जो विधायकों, सांसदों और पार्टी के दूसरे नेताओं के लिए बाधाएं पैदा करते हैं। मैं इन्हें दीमक कहती हूं। समुदाय, आम लोगों और पार्टी में खून-पसीना देने वाले वरिष्ठ कार्यकर्ता, जिन्हें बदले में इन लोगों के चलते कोई पद नहीं मिलता, उनके लिए इन दीमकों को ख़त्म करने की जरूरत है।"

जब डालमिया से पूछा गया कि क्या वे बीजेपी में जाने के विकल्प पर विचार करेंगी, तो उन्होंने कहा, "मैंने अब तक इस बारे में सोचा नहीं है, क्योंकि मेरे पास काफी धैर्य है और मैं आखिरी तक संघर्ष करने की कोशिश करूंगी। यही वज़ह है कि मैं इन मुद्दों पर अपनी आवाज बुलंद करती रहती हूं।"

बड़े पैमाने का भ्रष्टाचार

डालमिया ने यह भी कहा कि पार्टी के कई लोग गैरकानूनी निर्माण गतिविधियों, फैक्ट्री के मालिकों के उत्पीड़न और सरकारी ठेकेदारों से "कट का पैसा" लेने जैसे कामों में लगे हैं। 2019 के लोकसभा चुनावों में बहुत अच्छा प्रदर्शन ना कर पाने के बाद टीएमसी की नेता ममता बनर्जी ने सार्वजनिक तौर पर अपनी पार्टी के नेताओं को रिश्वत ना लेने की चेतावनी दी थी, उन्होंने रिश्वत लेने वाले नेताओं और सरकारी योजनाओं में से "कट का पैसा" वापस ना करने वाले नेताओं से गंभीर परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहने को भी कहा था। बल्कि कुछ लोगों ने पैसा वापस भी किया था। 

लेकिन लेफ़्ट, बीजेपी, कांग्रेस जैसी टीएमसी की विपक्षी पार्टियों ने आरोप लगाते हुए कहा कि राज्य के भ्रष्टाचार में ममता बनर्जी की चेतावनी के बाद भी कोई खास कमी नहीं आई। ऐसी कई रिपोर्ट थीं, जिनमें बताया गया कि अमफन चक्रवात में जिन लोगों के घर बर्बाद हो गए, उनके पुनर्वास के लिए आए पैसे का गबन कर लिया गया।

बैशाली डालमिया, पूर्व बीसीसीआई अध्यक्ष जगमोहन डालमिया की बेटी हैं। डालमिया, शुक्ला के साथ फरवरी, 2016 में विधानसभा चुनाव के वक़्त टीएमसी में आई थीं। उस साल मई में विधानसभा चुनाव हुए थे। बताया जाता है कि बैशाली पूर्व भारतीय कप्तान और मौजूदा बीसीसाई प्रेसिडेंट सौरव गांगुली की करीबी हैं। उन्हें हाल ही में दीदी के साथ कोलकाता के वुड्सलैंड्स हॉस्पिटल में देखा गया था, जहां एक माइनर कार्डिएक अरेस्ट के बाद गांगुली का इलाज चल रहा था।

शुक्ला के इस्तीफे के बाद हावड़ा नगर निगम के मेयर रथिन चक्रबर्ती ने कहा, "टीएमसी में उथल-पुथल चल रही है और कई गंभी नेताओं और पार्टी कार्यकर्ताओं को काम करने का मौका नहीं दिया जा रहा है।"

इंडिया टीवी के साथ एक इंटरव्यू में चक्रबर्ती ने शुक्ला के तारीफों के पुल बांधे और उनके इस्तीफे को पार्टी के लिए बुरा संकेत बताया। उन्होंने इंटरव्यू लेने वाले के साथ इस चीज पर भी सहमति जताई कि जो लोग पार्टी छोड़ रहे हैं, वे मुख्यमंत्री के भतीजे अभिषेक बनर्जी के करीबी रहे हैं, लेकिन बाद में उनके मतभेद हो गए।

जनवरी के पहले हफ़्ते में पश्चिम बंगाल सरकार में मंत्री और दोमजुर विधायक राजीब बनर्जी का एक वीडियो वायरल हो गया, जहां वे कह रहे थे कि टीएमसी के कुछ पदाधिकारी आम कार्यकर्ताओं को अपना नौकर समझते हैं। उन्हें वीडियो में यह कहते हुए सुना जा सकता है: "मैं उनसे पार्टी के वफ़ादार पार्टी कार्यकर्ताओं की भावनाओं के साथ ना खेलने की अपील करता हूं।"

दोमजुर विधानसभा हावड़ा जिले में आती है, लेकिन यह श्रीरामपुर लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा है, जहां से टीएमसी के कल्याण बनर्जी सांसद हैं। यह पहली बार नहीं है जब राजीब बनर्जी ने अपनी पार्टी के काम करने के तरीकों से नारज़गी जताई है। दिसंबर में उनकी चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर और राज्य शिक्षा मंत्री और टीएमसी के सेक्रेटरी-जनरल पार्थ चटर्जी के साथ एक घंटे की बातचीत हुई थी। इसमें उन्होंने हावड़ा जिले के कई नेताओं की आलोचना की थी। ठीक इसी दौरान उन्होंने खुद को अधिकारी से भी दूर जताया था। उन्होंने कहा, "।।।। मैं आपसे अपील करता हूं कि मुझे सुवेंदु अधिकारी के साथ ना जोड़ें। उनका फ़ैसला (बीजेपी में शामिल होने का) व्यक्तिगत था। लेकिन पार्टी के भीतर के मतभेद लोकतांत्रिक तरीके से सुने जा सकते हैं।"

टीएमसी की दिक़्क़त हावड़ा से परे जाती है

अपनी पार्टी को एकजुट रख पाने में मुश्किलों का सामना कर रहीं ममता बनर्जी की समस्याएं बंगाल के दूसरे हिस्सों में भी मौजूद हैं। एक दिलचस्प घटनाक्रम में डॉयमंड हार्बर से तृणमूल कांग्रेस के विधायक दीपक कुमार हाल्दर ने बीजेपी के कोलकाता पर्यवेक्षक सोवन चर्टजी से मुलाकात की, जो शहर के मेयर भी रहे हैं। डॉयमंड हार्बर विधानसभा उस लोकसभा सीट का हिस्सा है, जहां से दीदी के भतीजे अभिषेक सांसद हैं।

सितंबर, 2015 में हाल्दर को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के आदेश के बाद गिरफ़्तार कर लिया गया था। उन पर 24 परगना जिले के फकीरचंद कॉलेज में तृणमूल कांग्रेस छात्र परिषद के दो धड़ों के बीच हिंसा भड़काने में शामिल होने का आरोप था।

उनकी गिरफ़्तारी के बाद द टेलीग्राफ़ ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि ममता बनर्जी हाल्दर को उनके भतीजे अभिषेक के साथ अच्छे संबंध ना होने के चलते नापसंद करती हैं। रिपोर्ट में डॉयमंड हार्बर से एक बेनाम टीएमसी नेता के हवाले से कहा गया, "हाल्दर अभिषेक के विरोधी हैं और तामलुक से सांसद सुवेंदु अधिकारी के करीबी हैं।"

हाल्दर ने सोवन चटर्जी से मुलाकात को "सौजन्य मुलाकात" बताया। हाल्दर ने दावा किया कि उनका टीएमसी को छोड़ने का कोई इरादा नहीं है। उनके साथ इस मौके पर दक्षिण 24 परगना जिले से टीएमसी नेता अबु ताहेर मौजूद थे। ताहेर ने भी दावा करते हुए कहा कि वे अपने एक "पुराने मित्र" से मिलने गए थे। 

चटर्जी अगस्त, 2019 में लोकसभा चुनाव के बाद टीएमसी से बीजेपी में गए थे। वे तमाम गलत वज़हों से ख़बरों में रहे हैं, जिसमें उनकी निजी जिंदगी भी शामिल है। उन्होंने रविवार को कोलकाता के दक्षिणी हिस्से में एक रोड शो किया, जो बीजेपी के लिए बहुत अहम माना जा रहा है, क्योंकि एक वक़्त वे ममता बनर्जी के लिए भाई जैसे कहे जाते थे।

2019 के लोकसभा चुनावों में बहुत अच्छा प्रदर्शन ना कर पाने के बावजूद टीएमसी ने राज्य के दक्षिणी हिस्से के संसदीय क्षेत्रों में अच्छा प्रदर्शन किया था। लेकिन हालिया घटनाक्रम बताते हैं कि हावड़ा की तरह के कई टीएमसी गढ़ों को भेद लिया गया है, जिसकी वजह असंतुष्ट टीएमसी नेताओं का बीजेपी में जाना है।

टॉलीवुड से दिक़्क़तें

हाल में लोकप्रिय एक्टर और टीएमसी नेता रुद्रानिल घोष ने भी अपनी पार्टी पर हमले किए हैं। बंगाली अख़बार आनंद बाज़ार पत्रिका के साथ एक इंटरव्यू में उन्होंने नागरिकता संशोधन अधिनियम का समर्थन किया। यह समर्थन पार्टी लाइन के खिलाफ़ था। उन्होंने कहा, "भारत में सिर्फ़ हिंदुओं को ही सेुकलर होने की जिम्मेदारी निभानी पड़ती है। हम इसका पालन इस तरीके से करते हैं, जैसे यह कहीं लिखा हो। मुझे बांग्लादेशी मित्रों से जानकारी मिलती है। हिंदुओं का वहां जिस तरीके से उत्पीड़न किया जा रहा है, तो क्या उन्हें भारत में नागरिकता दिया जाना गलत है? आखिर हमारे पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यकों को हमारे यहां नागरिकता देने में क्या दिक्कत है?"

अपनी पार्टी के कुछ लोगों से उलट, घोष ने बीजेपी पदाधिकारियों के साथ अपनी मुलाकातों के बारे में खुल्लेआम पुष्टि की है। राजनीतिक विशेषज्ञों का कहना है कि यह सिर्फ़ वक़्त की ही बात है कि घोष कब बीजेपी में शामिल होंगे। घोष ने कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा, लेकिन वे 2014 के लोकसभा चुनाव और 2016 के विधानसभा चुनाव में पार्टी के स्टार कैंपेनर थे।

बंगाली फिल्म और टेलीविजन सीरियल इंडस्ट्री (टॉलीवुड-A और टॉलीवुड-B, क्योंकि यह दक्षिण कोलकाता के टॉलीगंज में स्थित है) का तृणमूल कांग्रेस के शासनकाल में राजनीति पर प्रभाव बढ़ रहा है। कई फिल्मी और टेलीविजन कलाकारों ने टीएमसी के लिए प्रचार किया है।

मिमी चक्रबर्ती, नुशरत जहां, देव (दीपक अधिकारी) और सताब्दी रॉय, क्रमश: जादवपुर, बशीरहाट, घटाल और बीरभूम से तृणमूल सांसद हैं। वहीं एक्टर लॉकेट चटर्जी हुगली और प्लेबैक सिंगर व केंद्रीय पर्यावरण राज्य मंत्री बाबुल सुप्रियो आसनसोल लोकसभा क्षेत्र से बीजेपी के सांसद हैं। जुलाई, 2019 में दस से ज़्यादा टॉलीवुड अभिनेता बीजेपी में शामिल हुए थे। 

टॉलीवुड अब दो हिस्सों में विभाजित हो चुका है। एक टीएमसी के साथ, तो दूसरा विरोध में है। विरोध करने वाले समूह में कंचना मोइत्रा, रिमझिम मित्रा और अंजना बसु जैसे वरिष्ठ कलाकार शामिल हैं। अंजना बसु वरिष्ठ बीजेपी नेता कैलाश विजयवर्गीय की करीबी हैं।

2016 के विधानसभा चुनावों में टीएमसी ने 45 फ़ीसदी से कुछ ही कम वोट हासिल किए थे और राज्य की 294 विधानसभा सीटों में से 211 पर जीत दर्ज की थी। पांच साल पहले, जब टीएमसी पहली बार राज्य में सत्ता में आई थी, तब टीएमसी का वोट शेयर 39 फ़ीसदी था और पार्टी के 184 विधायक थे।

बीजेपी की अभूतपूर्व पैसे की शक्ति के सामने टीएमसी जनता के बीच जाकर साहस का प्रदर्शन कर रही हैं, उनके नेता राज्य के अलग-अलग हिस्सों में कैंपेन कर रहे हैं। दीदी के सामने आने वाले वक़्त में अपनी पार्टी में चीजों को ठीक करने का बहुत कठिन काम है।

बढ़ता सांप्रदायिक तनाव

लेकिन टीएमसी के पदाधिकारियों और समर्थकों का बीजेपी के पक्ष में आ जाने भर से मतदाताओं की प्राथमिकता और उनके व्यवहार में बदलाव नहीं आ जाएगा। राज्य के मतदाता राजनीतिक तौर पर बहुत जागरूक हैं। पार्टियां छोड़ने के इस घटनाक्रम को वे राजनीतिक मौकापरस्ती के तौर पर भी देख सकते हैं। बिलकुल वैसे ही जैसे मुकुल रॉय के तृणमूल छोड़े जाने को वित्तीय घोटालों में उनकी संलिप्त्ता से बचने की कोशिश के तहत देखा गया था। नई दिल्ली की कानूनी एजेंसियां (और उनके राजनीतिक मालिक) अच्छे तरीके से अपने उपाध्यक्ष को तक काबू में रखना जानती हैं। हाल में 17 नवंबर को प्रवर्तन निदेशालय ने रॉ़य और उनकी पत्नी को एक ताजा नोटिस भेजा, जिसमें 2013-14 के बाद उनसे अपने वित्तीय लेन-देन को सार्वजनिक करने के लिए कहा। उस वक़्त वे बीजेपी के साथ थे।

बीजेपी के पास अभूतपूर्व संसाधनों तक पहुंच है। आईटी सेल चीफ अमित मालवीय के नेतृत्व में पार्टी की सोशल मीडिया वालंटियर्स की फौज़ राज्य के चुनावी कैंपेन में बेहद सक्रिय है। बीजेपी टीएमसी से आने वाले नेताओं के ज़रिए अपना आधार बढ़ाने की कोशिश कर रही है। इसके बावजूद राजनीतिक माहौल को गलत जानकारी के ज़रिए सांप्रदायिक बनाए जाने की कोशिश की जा रही है। राज्य में सांप्रदायिक टकराव की घटनाओं में तेजी आ रही है।

1960 के दशक के आखिर और 1977 से बंगाल में सत्ताधारी पार्टियां नई दिल्ली की केंद्रीय सत्ता वाली पार्टी या गठबंधन के विपक्ष में रही हैं। बीजेपी का दावा है कि अगल कोलकाता और केंद्र में एक ही पार्टी की सत्ता आ जाए, तो राज्य की आर्थिक स्थिति में सुधार होगा। लेकिन क्या इन बातों को बड़े आधार पर माना जा सकता है?

बंगाल के मतदाता कितने समझदार हैं? क्या राज्य की आबादी का एक बड़ा तबका राज्य की राजनीति के सांप्रदायिकरण को चिंतित नज़रों से देखेगा?

बंगाल में हिंदू-मुस्लिम तनाव का एक लंबा इतिहास रहा है, लेकिन हाल के दशकों में यहां दोनों समुदायों के बीच सांप्रदायिक सौहार्द की परंपरा रही है। 1940 के दशक में उपमहाद्वीप के विभाजन और 1971 में बांग्लादेश के जन्म के बाद से बंगाल हिंदू-मुस्लिम तनाव से मुक्त रहा है। 1992 में बाबरी विध्वंस के बाद देश के कई हिस्सों में दंगे हुए, लेकिन बंगाल में तब भी सांप्रदायिक तनाव नहीं पैदा हुआ। एक ऐसे राज्य में जहां मुस्लिमों की आबादी एक तिहाई है (आधिकारिक तौर पर 27 फ़ीसदी), क्या वहां बीजेपी द्वारा राजनीतिक फायदे के लिए मुस्लिमों से डर को फैलाए जाने और बहुसंख्यकों के वोटों को एकजुट करने की कोशिश कामयाब होती है या नहीं, यह देखा जाना बाकी है। 

अब भी कुछ बड़े सवालों का जवाब मिलना बाकी है। मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा किसे "कम बुराई" मानेगा? क्या एक त्रिकोणीय मुकाबले से स्वाभाविक तौर पर बीजेपी को मदद मिलेगी? भले ही बीजेपी विरोधी पार्टियों के बीच चुनाव पूर्व कोई गठबंधन नहीं बना है, लेकिन तब भी क्या बीजेपी के विरोध में खड़े सबसे मजबूत प्रत्याशी के लिए मतदाताओं का मत एकजुट हो सकता है? क्या बंगाल में चुनाव के बाद महाराष्ट्र मॉडल को लागू किया जा सकता है? 

एक शताब्दी पहले, मशहूर मराठी भाषी नेता गोपालकृष्ण गोखले (जिन्हें एम के गांधी और एम ए जिन्ना राजनीतिक गुरू मानते थे) ने कहा था, "आज बंगाल जो सोचता है, शेष भारत वही कल सोचेगा।" क्या उनकी टिप्पणी आज सही साबित हो सकती है?

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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