म्यांमार तख़्तापलट: चीन और रूस से क्या सीख सकता है भारत
मोदी सरकार ने 1 फरवरी को कठोरता के साथ एक अपील जारी करते हुए कहा “म्यांमार में कानून का शासन और लोकतांत्रिक प्रक्रिया" का पालन किया जाना चाहिए। अमेरिका द्वारा प्रोत्साहित करने के बाद आया यह वक्तव्य स्पष्ट तौर पर दख़लअंदाज़ी करने वाला था। ऊपर से विडंबना देखिए कि वक्तव्य को जारी करते हुए यह बात ध्यान में नहीं रखी गई कि मानवाधिकार, कानून के शासन, लोकतांत्रिक बहुलतावाद वैश्विक मूल्य हैं, जिनकी अनदेखी के लिए भारत को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है (ठहराया ही जाना चाहिए)। वाशिंगटन का नवरूढ़ीवादी तरीका भारत के हितों को पूरा नहीं करेगा, जो विशेष तौर पर म्यांमार के लिए ही पेश किया गया था।
वाशिंगटन डीसी में हाल में कैपिटल हिल पर दंगे हुए थे। घटना को ज़्यादा वक़्त भी नहीं हुआ है और अमेरिका ने लोकतंत्र के घोड़े पर सवारी करना शुरू कर दिया है और भारत इन प्रयासों को रोकने में नाकामयाब रहा। मौजूदा दौर में जब अमेरिका की रूस और चीन के प्रति वैश्विक रणनीतियों पर उसके यूरोपीय मित्र देश सहमत नहीं हो रहे हैं और अमेरिका का अटलांटिक पार का गठबंधन टूट रहा है, तब मानवाधिकारों का मुद्दा अमेरिका के लिए इन देशों को इकट्ठा करने में मददगार साबित हो रहा है।
भारत सरकार ने यहां आसियान के साथ भी सलाह करना ठीक नहीं समझा। 1 फरवरी को आसियान के अध्यक्ष की तरफ से जारी किए गए वक्तव्य में आसियान चार्टर में उल्लेखित मूल्यों, "जिनमें संप्रभुता, समता, क्षेत्रीय अखंडता, अहस्तक्षेप, सहमति और विविधता में एकता" शामिल हैं, उन्हें दोहराया गया था।
सरकार ने यहां आसियान के साथ भी सलाह करना ठीक नहीं समझा। 1 फरवरी को आसियान के अध्यक्ष की तरफ से जारी किए गए वक्तव्य में आसियान चार्टर में उल्लेखित लक्ष्यों और मूल्यों को दोहराया गया। सीधे शब्दों में कहें तो भारत ने अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ जाना पसंद किया, वहीं आसियान और चीन ने म्यांमार मामले पर दूसरा रुख अपनाया। यहां भूराजनीति शुरू हो गई। लेकिन तबसे अमेरिका को अपनी मूर्खता का अहसास हुआ है। अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जैक सुल्लिवेन ने हाल में वाशिंगटन में आसियान देशों के राजदूतों के साथ संपर्क किया है।
फिर भारत कैसे इस गफलत में पड़ गया? प्राथमिक तौर पर ऐसा म्यांमार के बारे में गलत समझ के चलते हुआ। भारतीय विशेषज्ञ दुनिया की घटनाओं को चीन के लिए अपनाए जाने वाले चश्मे से देखते हैं। भारतीयों ने यग मान लिया था कि नवंबर में 'आंग सान सू की' को मिली बड़ी जीत ने भारतीय रणनीति को लागू करने का मौका दे दिया है। इस रणनीति में भारत अपनी "पड़ोसी प्रथम" की नीति के तहत "म्यांमार को हिंद-प्रशांत ढांचे में शामिल कर लेगा, ताकि उसे चीन के खिलाफ़ खड़े होने वाले और एक जैसा सोचने वाले देशों के पाले में लाया जा सके और चीन के चंगुल से बाहर निकाला जा सके।"
ऐसे विचार चीन से अंध घृणा के चलते पैदा होते हैं। जबकि मैदानी हकीक़त काफ़ी जटिल है। यहां अहम यह है कि बीते कई सालों के अंतराल में बीजिंग, आंग सान सू की के साथ आपसी हितों और आपसी सम्मान पर करीबी संबंध बनाने में कामयाब रहा है। इस दौरान चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी और म्यांमार की नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (सू की का दल) के बीच भी संबंधों में नज़दीकियां आईं।
पश्चिमी देश आंग सान सू की को म्यामांर में लोकतंत्र के प्रतीक के तौर पर देखते हैं। जबकि बीजिंग उन्हें एक व्यवहारिक राजनेता की तरह देखता है, जिसने कभी ऐसी टिप्पणी नहीं की जिससे चीन और म्यांमार के संबंध खराब होने की स्थिति में पहुंचें। सू की ने हमेशा चीन के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने की कोशिश की और दक्षिण चीन सागर के मुद्दे पर कभी कठोर रुख नहीं अपनाया।
सू की को जब पश्चिमी समर्थन की दरकार थी, तब भी उन्होंने राष्ट्रीय अखंडता पर हमेशा दृढ़ रवैया अपनाए रखा। चीन इससे काफ़ी प्रभावित भी हुआ था। चीन अपने पड़ोसियों से इसी चीज की अपेक्षा रखता है। राष्ट्रपति शी जिनपिंग की 2015 से सू की से 7 बार मुलाकात हो चुकी है।
चीन के स्टेट काउंसलर वांग यी ने इस साल 12 जनवरी को ही म्यांमार की यात्रा की थी। इस दौरान उन्होंने सू की से मुलाकात कर उन्हें अपना समर्थन दिया और उनके दूसरे कार्यकाल में काम करने की मजबूत प्रतिबद्धता जताई थी। दोनों ने "बेल्ड एंड रोड" प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाने और व्यपार व आर्थिक सहयोग पर एक पंचवर्षीय समझौते पर हस्ताक्षर करने पर सहमति जताई थी। साफ़ है कि एक महीने पहले की तुलना में अब "बेल्ट एंड रोड" कार्यक्रम के तहत चीन-म्यांमार आर्थिक गलियारे पर अनिश्चित्ता की स्थिति छा गई है।
बल्कि चीन की मीडिया रिपोर्टों में चेतावनी देते हुए कहा जा रहा है कि "म्यांमार में काम करने वाली चीनी कंपनियों को मौजूदा राजनीतिक उथल-पुथल के बीच अपने समझौतों और उनका पालन ना हो पाने जैसी स्थितियों पर नज़र रखनी चाहिए.... सरकार द्वारा मुकर जाने का एक बड़ा ख़तरा है, खासकर यातायात और ऊर्जा जैसे बड़े और रणनीतिक प्रोजेक्ट में ऐसा होने की संभावना है.... लेकिन अगर चीन की कंपनियों की संपत्तियों की गैरकानूनी ज़ब्ती की जाती है, तो वे अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता का सहारा ले सकती हैं।"
इसमें कोई शक नहीं है कि म्यांमार की सेना चीन से एक निश्चित दूरी बनाकर चलती है। मौजूदा मामला अध्ययन का एक विषय हो सकता है, जहां एक पड़ोसी देश में पश्चिमी तरीके के लोकतंत्र के अचानक खात्मे से चीन तनाव में है। (रॉयटर्स का विश्लेषण पढ़िए, जहां बताया गया है कि म्यांमार में होने वाले तख़्तापलट से चीन का ज़्यादा नुकसान है)
साफ़ है कि इस तख़्तापलट ने चीन के लिए राजनीतिक मुश्किल खड़ी कर दी है, क्योंकि चीन म्यांमार की सेना के खिलाफ़ नहीं जा सकता। बल्कि यहां चीन के ऊपर म्यांमार की सेना को अंतरराष्ट्रीय स्तर के ख़तरे से सुरक्षा या समर्थन देने का दबाव भी है। कुलमिलाकर इस स्थिति ने बीजिंग के लिए बड़ी राजनीतिक और कूटनीतिक चुनौती पैदा कर दी है, जिससे चीन का कुछ भला नहीं हो सकता है। इसलिए चीन इस बात को प्राथमिकता दे रहा है कि संबंधित पक्ष अपनी असहमतियां संवैधानिक दायरे और कानूनी ढांचे के तहत शांति के साथ सुलझा लें। चीन के विशेषज्ञों का मानना है कि सू की का राजनीतिक भविष्य अब ख़तरे में है।
इतना जरूर है कि सू की ने कई गंभीर गलतियां की हैं। वह खुद के लिए व्यक्तिगत तौर पर प्रतिबद्धता रखने वाले लोगों पर बहुत ज़्यादा निर्भर रहीं। उन्होंने इन लोगों की कार्यकुशलता और ईमानदारी पर कोई ध्यान नहीं दिया। इससे ना केवल भ्रष्टाचार बढ़ा, बल्कि सरकार अच्छा प्रदर्शन करने में नाकामयाब रही। खासतौर पर रोज़गार सृजन में सू की सरकार बुरी तरह असफल रही। उनके नेतृत्व का तरीका कई बार तानाशाही भरा होता था। सू की ने अपने आलोचकों के प्रति दबाव या जेल में डालने की नीति अपनाई। (यहां सिंगापुर के चैनल न्यूज़ एशिया का 'आंग सान सू की: अ फेडिंग लीगेसी' वीडियो देखिए, जो 22 अक्टूबर, 2020 को नवंबर में हुए चुनावों की शाम को प्रसारित हुआ था।)
सू की का राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के कुछ बड़े क्षेत्रों पर नियंत्रण नहीं था। "म्यांमार इकनॉमिक होल्डिंग लिमिटेड" और "म्यांमार इकनॉमिक कॉरपोरेशन" के साथ-साथ म्यांमार की घरेलू निजी व्यापारिक कंपनियों के एक तंत्र के ज़रिए सेना राजस्व इकट्ठा करती थी, जिससे उसकी स्वायत्ता भी मजबूत होती चली गई।
सू की ने सबसे बड़ी गलती तब की, जब उन्होंने यह विश्वास जताया कि अपने राष्ट्रवाद के ब्रॉन्ड के ज़रिए वे रोहिंग्याओं के नरसंहार के आरोपों को धो देंगी। इस प्रक्रिया में सू की को पश्चिमी समर्थन ख़त्म हो गया। उसी वक़्त से उनकी सत्ता की उल्टी गिनती चालू हो गई थी। सेना ने भी कभी सू की के लिए अपनी नफ़रत नहीं छुपाई।
निश्चित होने के लिए म्यांमार की सेना ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय की प्रतिक्रिया और प्रभाव के बारे में अनुमान लगाया और बाइडेन प्रशासन के घरेलू मुद्दों पर उलझे होने का फायदा उठाया। बाइडेन की विदेश नीतियों में म्यांमार शुरुआती दस में तक शामिल नहीं है। लेकिन अमेरिकी कांग्रेस म्यांमार में तख़्ता पलट को बर्दाश्त करने वाली नहीं है और बाइडेन प्रशासन पर म्यांमार सेना को सजा देने के लिए प्रतिबंध लगाने, मदद में कटौती, उनके जनरलों और उनकी कंपनियों को निशाना बनाने के लिए दबाव डालेगी।
लेकिन इन कदमों से सेना के तख़्ता पलट को उलटने की संभावना नहीं है। बल्कि संभावना यह है कि म्यांमार में अमेरिका के पास जो भी प्रभाव बचा हुआ है, वह भी ख़त्म हो जाएगा। वाशिंगटन अपने नीतिगत विकल्पों पर विचार कर रहा है।
लेकिन यहां एक "प्लान-B" हो सकता है। बल्कि म्यांमार से परिचित और यूनाइटेड नेशंस में अमेरिकी राजदूत रहे बिल रिचर्डसन ने कहा भी है कि अब पश्चिमी देशों को म्यांमार में विपक्षी खेमे में सू की के परे देखना चाहिए। इसका एक तरीका ऐसा नेतृत्व खड़ा करना है, जो अमेरिका से दोस्ताना रखता हो। यह इस बात का संकेत हैं कि पश्चिमी एजेंसियां हॉन्गकॉन्ग और थाईलैंड की तरह म्यांमार में युवाओं को प्रदर्शन करने के लिए उकसा रही हैं। म्यांमार सेना ने फ़ेसबुक और इंटरनेट पर दमनकारी कार्रवाई की है। क्या यह 'रंगीन क्रांति' की झलक नहीं है?
यहीं रूस की भूमिका अहम हो जाती है। म्यांमार में प्रभाव हासिल करने के स्वाभाविक तौर पर अपने भूराजनीतिक आयाम हैं। 2015 में एक सैन्य सहयोग समझौत पर हस्ताक्षर करने के बाद रूस की म्यांमार में उपस्थिति बढ़ी है। यह हिंद महासागर में रूस की बढ़ती उपस्थिति के समानांतर है।
रूस म्यांमार के लिए बड़ा सैन्य साझेदार बनकर उभरा है। रूस वहां एक सर्विस सेंटर भी चलाता है। रूस के उपरक्षामंत्री अलेक्जेंडर फोमिन ने पिछले महीने मीडिया से कहा था कि “म्यांमार अपने क्षेत्र में शांति और सुरक्षा बनाए रखने में अहम भूमिका निभाता है।”
यह पूरी तरह माना जा सकता है कि रंगीन क्रांति को दबाने में महारथ हासिल करने वाला रूस गुप्त सूचनाएं म्यांमार की सेना के साथ साझा करता होगा। म्यांमार के 600 से ज़्यादा सैनिक अधिकारी रूसी सैन्य संस्थानों में पढ़ रहे हैं। हाल के सालों में म्यांमार के सेना प्रमुख मिन आंग ह्लाइंग ने 6 बार रूस की यात्रा की है। यह उनकी किसी भी एक देश की सबसे ज़्यादा यात्राएं हैं।
म्यांमार के सेना प्रमुख मिन आंग ह्लाइंग ने रूस के रक्षामंत्री सर्जी शोइगु की राजधानी नैपीडॉ में 21-22 जनवरी, 2021 को आगवानी की।
पिछले महीने रूस के रक्षामंत्री सर्जी सोइगु ने म्यांमार की राजधानी नैपीडॉ की यात्रा की थी। उस दौरान रूस के मीडिया में जनरल ह्लाइंग को उद्धरित किया गया था, जिसमें वे कह रहे थे, “एक भरोसेमंद साथी की तरह रूस ने हमेशा मुश्किल वक़्त में म्यांमार की मदद की है। खासकर पिछले 4 सालों में।” इस दौरान एक सैन्य समझौते पर हस्ताक्षर हुए। समझौते के मुताबिक़ रूस, म्यांमार को मिसाइल और आर्टिलरी एयर डिफेंस सिस्टम पंतसिर-S1 की आपूर्ति करेगा।
न्यूज एजेंसी तास ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि “म्यांमार की सशस्त्र सेना ने रूस निर्मित दूसरे उन्नत हथियार तंत्रों में भी अपनी रुचि दिखाई है।” सोइगु ने म्यांमार के बंदरगाहों पर रूसी जंगी जहाज़ों की यात्राएं आयोजित करने में भी दिलचस्पी दिखाई है।
सभी चीजों को ध्यान में रखकर हम यह अंदाजा लगा सकते हैं कि रूस और चीन म्यांमार को गोला-बारूद की उपलब्धता करवाएंगे, ताकि म्यांमार, मध्य एशिया की तर्ज़ पर होने वाले किसी भी पश्चिमी हस्तक्षेप को दूर कर सके। (संयुक्त राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद के वक्तव्य में सेना या तख़्तापलट को लेकर कोई बात नहीं की गई, पूरा वक्तव्य राष्ट्रीय एकजुटता और आंग सान सू की को रिहा करने पर केंद्रित था।) रूस भी चीन की तरह क्वाड को क्षेत्रीय सुरक्षा को अस्थिर करने वाला कारक मानता है।
साफ़ है कि भारत को बड़ी तस्वीर दिमाग में रखनी चाहिए। यह गलतफ़हमी पालना कि हम म्यांमार में सत्ता परिवर्तन के लिए किसी एंग्लो-अमेरिकी कार्यक्रम का हिस्सा बन रहे हैं, यह भारत के हित में नहीं होगा। जहां तक म्यांमार की स्थिरता की बात है, तो भारत का भी उसमें बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है। हमारे हित रूस और चीन के हितों के साथ समानांतर होंगे।
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