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जब पहली बार पेरिस के मज़दूरों ने बोला स्वर्ग पर धावा

(पेरिस कम्यून की 150वीं वर्षगांठ (1871-2021) 
जब पहली बार पेरिस के मज़दूरों ने बोला स्वर्ग पर धावा

पेरिस कम्यून, मजदूर वर्ग और मानवता के इतिहास के सबसे प्रेरणादायी अध्यायों में से एक है। इतिहास में पहली बार मजदूर वर्ग ने पूंजीपति वर्ग के शासन को उखाड़ फेंक, राजनीतिक सत्ता का संचालन अपने हाथों में ले लिया था। मात्र 72 दिनों के अपने शासन में पेरिस के साधारण मजूदरों ने समाज को बिल्कुल नये आधारों पर बनाने की कोशिश की थी। यह सही मायनों में एक अंतराष्ट्रीय आंदोलन था जहां शोषण व उत्पीड़न से रहित सही मायनों में जनतांत्रिक समाज की स्थापना का प्रयास किया जा रहा था।

यह मजदूरों की पहली ऐसी बगावत थी जिसका न कोई नेता था, न कोई पार्टी थी और न ही पहले का कोई बड़ा अंतराष्ट्रीय ऐतिहासिक अनुभव था। जैसा कि बाद के दिनों में रूसी क्रांति को पेरिस कम्यून के सबक और सीख के रूप में देखा जाने लगा।

 पेरिस कम्यून ने बुर्जुआ सत्ता का विकल्प बनने की कोशिश की। पुराने जमींदारों, राजाओं, पूंजीपतियों के बदले आम मज़दूर भी सरकार चला सकते हैं यह बात पुराने सत्ताधारियों को गवारा नहीं थी। उनकी नजर में यह अपराध था। इस अपराध की सजा के तौर पर, उन मजदूरों का नृशंसतापूर्वक संहार किया गया। डेढ़ सौ वर्ष पूर्व इसी मई महीने के अंतिम सप्ताह में पेरिस के मज़दूरों के कत्लेआम को 'खूनी सप्ताह' कहा जाता है।

बोल्शेविकों सत्ता पेरिस कम्यून के कंधों पर चढ़कर हासिल की है : लेनिन 

पेरिस के कम्यून ने मात्र दो महीनों के अंदर जो बहादुराना इतिहास रचा, इतिहास में उसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलती। पेरिस कम्यून से निकले सबकों ने आगे आने वाले क्रांतिकारियों को रौशनी दिखाई। लेनिन कहा करते थे कि ‘‘बोल्शेविकों ने रूस में सत्ता पेरिस कम्यून के कंधों पर चढ़कर हासिल की है।’’ लेनिन ने अपनी विश्वप्रसिद्ध कृति ‘राज्य व क्रांति’ की रचना पेरिस कम्यून के अनुभवों को ध्यान में रखकर ही की थी। 

मार्क्स व एंगेल्स ने फ्रांस में हो रही घटनाओं को बहुत ध्यान से देख रहे थे। पेरिस कम्यून पर अपनी चर्चित किताब " सिविल वार इन फ्रांस" में मार्क्स ने कहा सर्वहारा कभी भी बनी बनाई बुर्जुआ राज्य मशीनरी का अपने लिए इस्तेमाल नहीं कर सकता। 

पेरिस कम्यून को ठीक से समझने के लिए हमें उससे दो दशक पहले की घटनाओं पर निगाह डालनी होगी। 

नेपोलियन  तृतीय का शासनकाल 

पेरिस कम्यून से लगभग 20 वर्ष पूर्व 2 दिसंबर 1851 को, तख्तापलट के परिणामस्वरूप नेपोलियन तृतीय सत्तासीन हो गया था। इस तख्तापलट की पृष्ठभूमि में लगभग तीन वर्ष पूर्व यानी जून 1848 में हुआ पेरिस के मजदूरों का भीषण कत्लेआम था।

मजदूरों की हुई बड़े पैमाने पर हत्या ने उनके अंदर पस्तहिम्मती ला दी थी, वे असंगठित व बिखर गए थे। मजदूर संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। फ्रांस में अब राज्य व पुलिस, हर जगह, प्रभावी थी। इसे पुलिस स्टेट भी कहा जाता था। सभी प्रकार की प्रतिक्रियावादी शक्तियां - बड़े जागीरदार, भूपति, पूंजीपति बैंकर, चर्च - इसके समर्थक थे।   नेपोलियन  तृतीय के शासन के प्रारंभिक दौर फ्रांस की अर्थव्यवस्था में उछाल का भी काल था। इस वजह से वह काफी सशक्त व ताकतवर प्रतीत होता था।

नेपोलियन ने अपने कार्यकाल में चार युद्धों को अंजाम दिया। इटली, क्रीमिया, मेक्सिको और अंतिम युद्ध था प्रशिया ( जर्मनी) के खिलाफ जिसने अंततः उसे सत्ता से च्युत कर डाला। 

युद्धों ने फ्रांस की अर्थव्यवस्था को बदहाल कर दिया

इटली के साथ हुए युद्ध ने   नेपोलियन  तृतीय को पोप के खिलाफ खड़ा कर दिया। नेपोलियन को तृतीय कैथोलिक चर्च के समर्थन से हाथ धोना पड़ा। इसकी क्षतिपूर्ति के लिए नेपोलियन  ने फ्रांस के मजदूर वर्ग को 1864 में हड़ताल का अधिकार देकर प्रतिक्रियावादी शक्तियों के खोए आधार को प्राप्त करने का प्रयास किया गया।

 लेकिन अब तक अर्थव्यवस्था में उछाल का दौर बीत चुका था, फ्रांस की अर्थव्यवस्था संकटों से घिर चुकी थी। उधर मजदूर वर्ग अपनी मजदूरी व कामकाज की बेहतर स्थितियों के लिए आंदोलनरत थे। पूरे फ्रांस में बेचैनी थी, असंतोष बढ़ता जा रहा था। इससे निपटने के लिए   नेपोलियन  तृतीय ने युद्ध का रास्ता चुना।   नेपोलियन  तृतीय ने बिस्मार्क के जर्मनी को निरंकुश व साम्राज्यवादी बताकर लोगों से वादा किया यह युद्ध उनके लिए नये भौगोलिक इलाके, रोजगार, कच्चा माल और समृद्धि लाएगी ।

जर्मनी के साथ युद्ध का ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा तृतीय नेपोलियन को

लेकिन यह युद्ध  नेपोलियन  तृतीय के लिए विनाशकारी साबित हुआ। 2 सितंबर 1870 को फ्रांस का शासक नेपोलियन तृतीय खुद, सेडान नामक जगह में, पचहत्तर हजार सिपाहियों के साथ जर्मन सेना द्वारा पकड़ लिया गया। अब नेपोलियन तृतीय बिस्मार्क के कब्जे में था। फ्रांसीसी साम्राज्य का राजा का इतनी बड़ी सेना के साथ पकड़ लिया जाना अपने आप में हैरतअंगेज घटना थी। लेकिन इसी घटना से क्रांति के पहले चरण की भी शुरूआत हुई।

ज्योंहि यह खबर पेरिस पहुंची विशाल जनसमूह सड़कों पर उतर आया। फ्रांस के दूसरे शहरों में भी प्रदर्शन होने लगे। लोगों का हुजूम साम्राज्यशाही को उखाड़कर ‘डेमोक्रेटिक रिपब्लिक’ की स्थापना की मांग करने लगा।

मोनार्की से डेमोक्रेटिक रिपब्लिक में तब्दील हो गया फ्रांस

दो दिनों के बाद यानी 4 सितंबर 1870 को फ्रांस साम्राज्य को जनता की मांग मानने पर मजबूर होना पड़ा और डेमोक्रटिक रिपब्लिक की घोषणा करनी पड़ी। फ्रांस में 'डेमोक्रेटिक रिपब्लिक' की घोषणा तो कर दी गयी पर सत्ता पर बुर्जुआ वर्ग काबिज होने में कामयाब रहा। यह एक ऐसा ऐतिहासिक अवसर था जब पेरिस का मजदूर वर्ग भी सत्ता पर काबिज हो सकता था लेकिन सांगठनिक अस्तव्यस्तता और मानसिक तैयारी न रहने के कारण यह मौका निकल गया। इसका एक और कारण था इस वक्त उनके अंदर किसी नेता का न होना। पेरिस के मजदूरों व आम लोगों के मध्य सबसे प्रतिष्ठित नेता था अगस्त ब्लांकी लेकिन दुर्भाग्य से वह उस समय जेल में था। 

4 सितंबर 1870 का दिन एक निर्णायक दिन बन गया जो आगे आने वाले दिनों में बड़ी घटनाओं को अंजाम देने वाला था। राजशाही के खात्मे से जनता में उत्साह था। लेकिन बुर्जआ वर्ग के माथे पर चिंता की लकीरें भी उभरने लगी। फ्रांसीसी बुर्जुआ को   नेपोलियन  तृतीय के पकड़े जाने, अपने देश फ्रांस की हार और विदेशी सेनाओं की उपस्थिति से उतना खतरा नहीं महसूस हुआ जितना पेरिस की जनता के विद्रोह तेवर से। 

विदेशी सेना के बजाए देश के सशस्त्र मज़दूरों से ख़तरा

इस वक्त तक बिस्मार्क की सेना ने पेरिस की इस प्रकार घेरेबंदी कर दी थी कि कोई भी नागरिक बाहर नहीं जा सकता था। देश की रक्षा के लिए फ्रांसीसी सरकार ने खुद को ‘नेशनल डिफेंस’ की सरकार के रूप में घोषणा की। लेकिन सत्ता में आने के साथ ही ये गुप्त रूप से जर्मनों के हाथों समर्पण की बात सोचने लगे। इन लोगों की योजना थी, धीरे- धीरे अंततः पुनः राजशाही की स्थापना करना। 

पेरिस की सेना की कमान जनरल ट्रोशे के हाथों में थी। प्रारंभ में पेरिस की जनता ने इस ‘नेशनल डिफेंस’ को समर्थन दिया क्योंकि सबों की साझा चिंता थी पेरिस की सीमा तक आ पहुंची जर्मन सेना से मुकाबला करना।

शुरुआत में सेना का जनरल ट्रोशे पेरिस की सुरक्षा करने के संबन्ध में डींगे हांका करता था कि बिस्मार्क के हाथों “हम अपने इलाके की न एक इंच और न किले का एक पत्थर छोड़ेंगे।’’ परन्तु असलियत में बिस्मार्क के साथ गुप्त संधियां की जा रही थीं। उसकी वजह यह थी कि नेशनल डिफेंस की सरकार को बड़े-बड़े सामंतों, जागीदारों, पूंजीपतियों, बैकरों का समर्थन थ। बिस्मार्क के शासन का आधार भी यही था। अतः नेशनल डिफेंस की सरकार के पास दो विकल्प थे । या तो विदेशी बिस्मार्क के साथ समझौता करे या फिर अपने देश के मजदूरों का साथ दे। 

लेकिन बुर्जुआ नेतृत्व ने, जो खुद को रिपब्लिकन कहा करते थे, पेरिस की सुरक्षा के बदले विदेशी सेना के हाथों समर्पण करना अधिक पसंद किया। ‘नेशनल डिफेंस’ की सरकार अपने ही लोगों के साथ द्रोह कर रही थी। इसी कारण फ्रांस में इसे ‘‘राष्ट्रीय द्रोह की सरकार’’ की संज्ञा दी गई थी। विदेशी सेना के मुकाबले उन्हें पेरिस के सशस्त्र मजदूरों से अधिक खतरा महसूस हो रहा था। इसस मज़दूरों के समक्ष ‘नेशनल डिफेंस’ का वर्गीय चेहरे उजागर हो गया। 

चार-पांच महीनों की लंबी घेराबंदी के दौरान के दरम्यान पेरिसवासी दाने-दाने को मोहताज हो गए। घेरेबंदी के दौर में 47 हजार लोग भूख व कंगाली में काल के गाल में समा गए। पेरिस के अमीर लोग पेरिस के चिड़ियाघर के हाथियों का मांस खाने पर मजबूर हो गये जबकि मजदूरों को चूहों का मांस महंगे दामों पर खरीदना पड़ता। 

जर्मन सेनाओं के साथ लड़ने में आनाकानी करने के कारण पेरिस के मजदूरों के रैडिकल हिस्से का धैर्य खोता जा रहा था। दो बार बगावत भी हुई। पहली बार 31 अक्टूबर और दूसरी बार 22 जनवरी को लेकिन वक्त से पहले हो जाने वाले इस बगावत को उसे दबा दिया गया । इधर जनरल ट्रोशे को हटाकार जनरल विनोए को लाया गया। जनरल विनोए पेरिस के मजदूरों के बीच खासा कुख्यात था। इसी जनरल ने 1848 के मजदूरों के उभार का नृशंसतापूर्वक दमन किया था जिसमें चार से छह हजार मजदूरों को गोली मार दी गई थी। 

फरवरी 1871 में यानी जर्मन सेनाओं द्वारा घेरेबंदी के छह-सात महीनों बाद बुर्जआ सरकार ने बिस्मार्क के साथ समझौता किया जिसमें फ्रांस के कुछ इलाके - अलास्के और लौरेन- जर्मनी को सौंप दिए गए, युद्ध का सारा व्यय लगभग 5 अरब फ्रांक , फ्रांस को देना पड़ा। लेकिन सबसे अपमानजनक शर्त थी कि नेशनल असेंगली का चुनाव कराकर इस समझौते पर मुहर लगाना। बिस्मार्क इस समझौते को बिना चुनी गयी जनता के साथ संपन्न करना नहीं चाहता था। क्योंकि इससे शांति संधि को वैध दिखाना चाहता था।

शर्त के अनुसार बुर्जुआ सरकार ने विदेशी सेना के घेरेबंदी में मात्र चंद दिनों के अंदर चुनाव कराए गए। इस चुनाव में पुराने ख्यालों वाली किसान आबादी के समर्थन से पुराने जमींदार, जागीरदार व राजशाही समर्थक लोग चुनकर आ गए। चुनाव के बाद बनी नेशनल असेंबली का नया नेता बना एडॉल्फ थियेरस जो फ्रांस के बुर्जुआ का सबसे विश्वस्त परन्तु मजदूर वर्ग के इतिहास का सबसे अवसरवादी व पतित शख्स माना जाता था।

अब एक नयी परिस्थिति पैदा हो गयी जिसमें एक ओर थे दकियानुसी व रूढ़िवादी ख्यालों वाले प्रतिक्रियावादी प्रतिनिधि जबकि दूसरी ओर थे पेरिस के इंक्लाबी मजदूर व नेशनल गार्ड्स। 

नेशनल गार्ड और उसका बदलता चरित्र

‘नेशनल गार्ड’ की स्थापना फ्रांसीसी क्रांति के दौरान एक प्रतिक्रांतिकारी सेना के रूप में हुई थी जिसका मुख्य उद्देश्य मजदूरों व आमलोगों के संघर्षों का दमन करना था। 1848 के क्रांतिकारी उभार को दबाने में भी नेशनल गार्ड का इस्तेमाल किया गया था।

लेकिन सितंबर 1870 के बाद नेशनल गार्ड के पुराने चरित्र में बदलाव आने लगा। डेमोक्रेटिक रिपब्लिक की स्थापना के पश्चात, मज़दूर तबक़े के नये व रैडिकल तत्वों का नेशनल गार्ड्स में प्रवेश होने लगा। पहले नेशनल गार्ड्स को अपनी वर्दी व हथियार का खर्चा खुद देना पड़ता था। इस कारण इन हथियारों को नेशनल गार्ड अपनी निजी संपत्ति समझते थे। इस प्रकार नेशनल गार्ड पेरिस के सर्वहारा की स्वायत्त सेना के रूप में काम करने लगा था। 

नेशनल गार्ड्स ने अब नया संविधान बनाकर पुनर्गठित किया जिसमें अफसरों का चुनाव होता था, इससे अफसर खुद को जवाबदेह समझते थे। 

नेशनल गार्ड्स के अब 215 बटालियन तैयार हो गये थे। साथ-साथ 2 हजार तोपें और साढ़े चार लाख बंदूकें हो गयी थी। यह संख्या नेशनल गार्ड्स को पेरिस के अंदर एक दो लाख की ताकतवर सेना बना दे रही थी जिससे शासक वर्ग भयभीत था।

थियेरस का मिशन था बिस्मार्क के साथ तय की गयी शांति संधि को शीघातिशीघ्र लागू करना। उसमें एक शर्त यह थी कि पेरिस के सशस्त्र मजदूरों वाले नेशनल गार्ड्स का शस्त्रविहीन करना।

18 मार्च 1871 : नेशनल गार्ड को शस्त्रविहीन करने की कोशिश नाकाम 

अंततः 18 मार्च 1871 को सुबह तीन बजे थियेरस ने बीस हजार की सेना को पेरिस के नेशनल गार्ड को निःशस्त्र बनाने के लिए भेजा । इस सेना का कमांडर था जनरल लुकॉमेट। इन लोगों की योजना थी अहले सुबह जाकर नेशनल गार्ड के तोपों को अपने कब्जे में ले लेना। लेकिन जब मजदूरों ने देखा कि उनके तोपों व हथियारों को जबरन ले जाने की कोशिश हो रही है। लोगों का विशाल समूह इकट्ठा होकर उस स्थल पर पहुंच सैनिकों से बहस करने लगा। समूह में स्त्रियां व बच्चे भी थे। इन लोगों ने सैनिकों से अपील करते हुए कहा कि इन तोपों व हथियारों को न ले जायें क्योंकि यह उन्होंने अपनी बचत के पैसे से खरीदी है। जनसमूह ने सैनिकों से अपील की कि एक ओर विदेशी जर्मन सेना पेरिस पर घेरा डाले है दूसरी ओर सरकार ने हमारे साथ धोखा दिया है। पूंजी की सेवा करने वाले अपने शासकों के बजाए, आप लोगों को नेशनल गार्ड्स का साथ देना चाहिए। 

पेरिस कम्यून की स्थापना : जब सेना ख़ुद जनता से मिल गयी

इन सब बातों का सैनिकों पर असर होने लगा। जब जनरल लुकॉमेट ने यह सब देखा तो अपने सैनिकों से गोली चलाने का आदेश दिया जिसे सैनिकों ने इनकार कर दिया। जब लुकॉमेट ने तीन चार बार सैनिकों पर फायरिंग का दबाव बनाया तो सैनिकों ने पहले उल्टे जनरल लुकॉमेट और 1848 के खलनायक जनरल क्लीमेंट थॉमस को गिरफ्तार कर वहीं मौत की सजा दे दी गयी। अब सेना जनता के साथ मिल चुकी थी।

एडॉल्फ थियेरस और उसके समर्थकों को ज्योंहि इस घटना की खबर मिली। सभी भय व घबराहट के जान बचाने के लिए शहर छोड़ कर भागने लगे। थियेरस ने अपने पूरे प्रशासनिक अमलों को जल्द से जल्द शहर छोड़ देने का आदेश दिया। धूर्त थियेरस इस बात को समझ गया कि उसकी अपनी सेना के अंदर इंक्लाबी भावना घर कर चुकी है। ऐसे में परिस में रहना खतरे से खाली नहीं है। इन सबने भागकर पेरिस से लगभग 10 किमी दूर, राजशाही की पुरानी राजधानी, वर्सेलिया में शरण ली। 

18 मार्च को पेरिस के सिटी हॉल में नेशनल गार्ड्स ने लाल झंडा फहरा दिया। कार्ल मार्क्स ने काव्यात्मक लहजे में इसे ‘स्वर्ग पर धावा’’ की संज्ञा दी थी।

(अगले अंक में पढ़ें ‘जब पेरिस कम्यून को खून में डुबो दिया गया)

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