म्यांमार के प्रति भारतीय विदेश नीति अब भी अस्पष्ट बनी हुई है
म्यांमार में लोकतांत्रिक सरकार के तख्तापलट के बाद उत्पन्न संघर्ष एक महत्त्वपूर्ण बिंदु के करीब पहुंच रहा है, क्योंकि सेना और उसकी प्रतिरोधी शक्तियां दोनों ने ही इस बीच अपनी ताकत बढ़ा ली हैं। एंथोनी डेविस ने 19 अक्टूबर 2021 को एशिया टाइम्स में इरावदी घाटी से लेकर सीमावर्ती इलाकों तक, पूरे देश में जन प्रतिरोध को कुचलने के लिए सेना के ऑपरेशन अनावराता (बर्मीज़ साम्राज्य के योद्धा संस्थापक के नाम पर) का एक विवरण जारी किया था। इस बीच, म्यांमार के चिन प्रांत के थंतलांग में सेना द्वारा शहर में की गई गोलाबारी के बाद जले हुए घरों की तस्वीरें म्यांमार-भारतीय सीमा पर नागरिकों के खिलाफ हिंसा की वृद्धि की गवाही देती हैं। इसने मिजोरम में शरणार्थियों के आंदोलन की एक नई लहर पैदा कर दी है। हालांकि, म्यांमार को लेकर भारतीय राष्ट्र-राज्य की स्थिति अभी तक निस्पंदित बनी हुई है, वह आसियान की पांच-सूत्रीय सहमति के पीछे छिपी हुई है, और इस तरह संघर्ष को होने दे रही है।
क्षितिज पर अधिक हिंसा
यद्यपि म्यांमार सेना के ऑपरेशन अनावराता का उद्देश्य पूरे क्षेत्र पर अपना नियंत्रण करना प्रतीत होता है और सेना दशकों के आतंकवाद विरोधी अभियानों के अपने अनुभवों के बल पर जानती है कि ऐसा करना उसके लिए बहुत आसान है। इसलिए उसके इस ऑपरेशन का अधिक व्यावहारिक उद्देश्य लोगों में सेना का भय फैलाना हो सकता है। हालांकि, नेशनल यूनिटी गवर्नमेंट (एनयूजी) के नेतृत्व में लोकतांत्रिक प्रतिरोध, जिसने 7 सितंबर 2021 को लोगों के रक्षा युद्ध की घोषणा की, उसने सेना से लड़ने के लिए एथनिक आर्म्ड ऑर्गनाइजेशन (एफएओ) के साथ-साथ अब एक सेंट्रल कमांड एंड कोऑर्डिनेशन कमेटी (सी3सी) का भी गठन किया है। यह सेना के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष को संगठित करने और देश भर में कई अनुभवहीन पीपुल्स डिफेंस फोर्सेज (पीडीएफ) को नेतृत्व प्रदान करने की दिशा में एक बड़ा कदम है। संघर्ष को कम करने के लिए अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय समुदायों की तरफ से पहल की सामान्य कमी का मतलब यह है कि सीमित बाहरी कारक (यदि कोई हो) तो वे ही मानव त्रासदी की अगली लहर को रोक सकते हैं।
उदासीन और निष्क्रिय नीति
म्यांमार में जारी सेना की हिंसक कार्रवाई के मामले में भारत का दामन भी साफ नहीं हैं। भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के एक प्रस्ताव पर मतदान करने से परहेज किया जिसमें म्यांमार पर गैर-बाध्यकारी हथियार प्रतिबंध लगाने की मांग की गई थी। भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड (बीईएल) ने सरकार के तख्तापलट के बाद भी तटीय निगरानी में मदद करने वाले रडार घटकों को म्यांमार को भेजना जारी रखा है। इस तरह के दोहरे मानदंड दर्शाते हैं कि भारत सरकार म्यांमार में लोकतांत्रिक परिवर्तन के समर्थन का केवल दिखावा कर रही है और वास्तव में उसने मिन आंग हलिंग (एमएएच) के तहत सेना का ही पक्ष लिया है।
भारतीय दूतावास के सैन्य अताशे ने मार्च में सशस्त्र सेना दिवस परेड में भाग लिया, जो संघर्ष में अब तक का सबसे खूनी महीना था। हालांकि यह महज संयोग हो सकता है और उसके द्वारा तख्तापलट का समर्थन करना नहीं हो सकता है, पर यह भारत के खराब कूटनीतिक व्यवहार का संकेत देता है। इसके अलावा, भारत आने वाले शरणार्थियों को शरण देने से इनकार करने के केंद्र सरकार के निर्देश और लंबे समय से चल रहे रोहिंग्या संकट के प्रति उसकी सामान्य उदासीनता ने इस मुद्दे पर भारत के नियामक रुख को नष्ट कर दिया है। इस तरह का रुख उन रिश्तेदारी संबंधों की भी अनदेखी करता है, जो सीमा के इस-उस पार निबाहे जाते हैं, खासकर भारत के मिजोरम और म्यांमार के चिन राज्य के बीच।
आसियान-दृष्टिकोण की सीमाएं
अब तक भारत सरकार की नीति आसियान की पांच सूत्री योजना की पिछली सीट पर बैठने और उसके पीछे खड़े रहने की रही है। आसियान ने हथियार प्रतिबंध पर संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव के खिलाफ पैरवी की और यहां तक कि सेना को इसकी बैठकों में भाग लेने की अनुमति दी। हालाँकि, हाल ही में इसमें एक बदलाव आया है, भले ही इसकी प्रासंगिकता बहुत कम है। एमएएच की बजाय म्यांमार से केवल एक 'गैर-राजनीतिक प्रतिनिधि' को अनुमति देने के आसियान के फैसले को सेना के लिए एक अपमान के रूप में देखा जाता है। यह आसियान दूत को आंग सान सू की से मिलने का अवसर न देने के एमएएच के फैसले का जवाब माना जा रहा है। हालांकि आसियान की पंच-सूत्रीय योजना के कमजोर होने और उसका म्यांमार में जो हो रहा है, उसके लिए सेना को जिम्मेदार न ठहराने के कारण वह योजना जांच के दायरे में आ गई है। विशेष दूत (ब्रुनेई के एरीवान युसूफ) की नियुक्ति में देरी, उसके बाद उनकी यात्राओं पर प्रतिबंध लगा दिया जाना और अब एक नई नियुक्ति की पहल की फुसफुसाहट उसके खोखलेपन को सामने लाती है। भारत ने म्यांमार के मुद्दे पर इस पहल के लिए लगातार अपना समर्थन दिया है।
क्या किया जाना चाहिए?
म्यांमार में लोगों की कई पीढ़ियों को सैन्य शासन और जातीय संघर्षों के चलते बहुत कुछ सहना-भुगतना पड़ा है। यहां तक कि थिन सीन और नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी के तहत लोकतांत्रिक संक्रमण की संक्षिप्त अवधि में भी, रोहिंग्या संकट काफी व्यापक हो गया और नई गलतियों ने पुरानी की जगह ले लीं। संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप ने म्यांमार के विरुद्ध आर्थिक और व्यापारिक प्रतिबंध लगाने का पारंपरिक व्यवहार किया, जिसने यहां के जनजीवन को बुरी तरह से प्रभावित किया था। थका देने वाला अनियंत्रित व्यापार, नशीले पदार्थों, मनुष्यों और वन्यजीवों की तस्करी और पुलिस-सेना से संघर्ष में तो आम जीवन की हानि में वृद्धि होना तय है। भले ही नियामक चिंताएं भारतीय विदेश नीति को संचालित नहीं करती हैं, पर म्यांमार भारत की लुक/एक्ट ईस्ट नीति और इसके उत्तर-पूर्वी राज्यों की योजनाओं के लिहाज से अहम है जबकि दिल्ली में निर्णय लेने वालों के लिए म्यांमार को चीनी चश्मे के बिना देखना चुनौतीपूर्ण होगा। यहां भारत के लिए चीन की तुलना में रणनीतिक उपायों को आजमाने और कूटनीतिक संबंधों में गहराई देने की अपनी एक हद है। इसी का प्रमाण है, अडानी समूह द्वारा हाल ही में म्यांमार में अपने निवेश समाप्त करने की घोषणा। इसके अलावा, आसियान की योजना के पीछे खड़े रहने से भारत को वह लक्ष्य भी हासिल नहीं होता है।
भारत को एनयूजी को एक हितधारक के रूप में मान्यता देनी चाहिए और इसके साथ सक्रिय रूप से जुड़ना चाहिए। एनयूजी और ईएओ के बीच बढ़ता अभिसरण दशकों पुराने विश्वास घाटे को पाटने और भविष्य के लिए एक एकीकृत राजनीतिक समुदाय बनाने का एक अवसर प्रदान करता है। यह एक ऐसा क्षण हो सकता है, जो पैंगलोंग शांति प्रक्रिया की भावना को व्यावहारिक आकार प्रदान करे। भारत को अभी के अभी म्यांमार की सेना को प्रौद्योगिकी और हथियारों की बिक्री पर रोक लगा देनी चाहिए। प्रतिभागियों को एक मेज पर लाने के लिए शर्तें तैयार की जा सकती हैं। इसके अलावा, जैसा कि म्यांमार को अंतरराष्ट्रीय राजनीति की उच्च प्राथमिक सूची से एक बार फिर हटा दिया गया है, तो भारत को आगे बढ़ कर वहां के लोगों की चिंताओं को दूर करना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय उसके प्रति निरंतर जुड़ाव महसूस करे। हालांकि रणनीतिकार म्यांमार को अपनी नीतिगत उपेक्षा से खो सकते हैं, लेकिन यदि भारत इसी तरह की उदासीन और निष्क्रिय नीति का पालन करना जारी रखता है तो उसे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।
(चेतन राणा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अंतरराष्ट्रीय राजनीति, संगठन और निरस्त्रीकरण केंद्र (CIPOD) में कूटनीति और निरस्त्रीकरण में पीएच.डी.स्कॉलर हैं। उन्हें@ChetanRana96 पर ट्विट किया जा सकता है। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)
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