जलियांवाला बाग: क्यों बदली जा रही है ‘शहीद-स्थल’ की पहचान
आज एक बार जलियांवाला बाग नरसंहार और उसके शहीदों को याद करने का दिन है। 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी वाले दिन अंग्रेजों द्वारा थोपे गए रॉलेट एक्ट के विरोध में सभा करने के लिए अमृतसर के जलियांवाला बाग में जमा हुए लोगों पर जनरल डायर ने अंधाधुंध गोलियां चलाईं थीं। लेकिन आज इस शहीद स्थल का रूप-स्वरूप बदला जा रहा है। क्या है इसकी वजह। बीजेपी और आरएसएस इसकी पहचान को क्यों बदलना चाहते हैं। इसे समझने के लिए पढ़िए वरिष्ठ लेखक अनिल सिन्हा का यह आलेख। न्यूज़क्लिक में 3 सितंबर, 2021 को प्रकाशित यह आलेख हम आज पुनर्प्रकाशित कर रहे हैं (संपादक)।
जलियांवाला बाग स्मारक का रूप बदलने पर राहुल गांधी और सीताराम येचुरी जैसे नेताओं का गुस्सा होना स्वाभाविक है। कांग्रेस ने तो इस बाग का अस्तित्व मिटाने की अंग्रेजों की कोशिश उस समय भी सफल नहीं होने दी थी जब उनका राज था। 13 अप्रैल 1919 के नरसंहार की याद जिंदा रखने के लिए उसने देशव्यापी चंदा जमा किया था और बाग के मालिक से इसे खरीद कर अपने एक ट्रस्ट के हवाले कर दिया था। आजादी मिली तो इसे स्मारक में तब्दील कर दिया गया। यह खुद में एक मिसाल है कि अंग्रेजों के शासन में ही कांग्रेस ने उनके जुल्म को याद दिलाने वाले स्थल को संरक्षित करने में सफलता पाई थी। येचुरी की पार्टी और नौजवान भारत सभा जैसे अन्य संगठनों का भी शहादत की इस गौरवमयी विरासत में हक बनता है क्योंकि वामपंथी विचारों वाले शहीद भगत सिंह इस शहादत-स्थल से इतने प्रेरित थे कि उन्होंने यहां की मिट्टी अपने पास रख ली थी जो काफी समय उनके साथ रही। शहीद भगत सिंह के कई साथी कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए थे।
जलियांवाला बाग में प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा की ताजा दिलचस्पी का कारण पंजाब में विधानसभा के नजदीक आ गए चुनाव हैं। वे बाकी चुनावों की तरह पंजाब में भी स्थनीय लोगों की भावना का इस्तेमाल करना चाहते हैं। प्रतीक पुरूषों या ऐतिहासिक निशानियों का नाम लेकर लोगों को लुभाना चाहते हैं। पश्चिम बंगाल के चुनावों में हम देख चुके हैं कि उन्होंने किस तरह सुभाषचंद्र बोस से लेकर रवींद्रनाथ टैगोर के चुनावी इस्तेमाल की कोशिश की थी।
इतिहासकारों और विद्वानों को लग रहा है कि जलियांवाला बाग का रूप बदलने के पीछे अज्ञान है। उन्हें लगता है कि यह व्यवसायिक बुद्धि के असर मे इतिहास के साथ छेड़छाड़ का मामला है।
लेकिन क्या बात सिर्फ इतनी है?
अज्ञान और छेड़छाड़ का मामला मानने वाले इतिहासकार तथा राजनीतिज्ञों का गुस्सा मुख्य तौर पर इतिहास के सबूतों के साथ छेड़छाड़ को लेकर है। बाग में प्रवेश कराने वाली उस संकरी गली का रूप बदलने को लेकर सबसे ज्यादा नाराजगी है जिसे बंद कर डायर ने गोलियां चलाई थी और सैकड़ों लोगों को मौत का घाट उतार दिया था। गोलीकांड के बाद कई घायलों ने इसी गली से होकर निकलने की कोशिश की थी और कुछ ने गली में ही दम तोड़ दिया था।
लोग नाराज हैं कि इस गली की दीवारों पर भित्ति चित्र बना कर और ऊपर फाइबर की छौनी डाल कर उसके मूल स्वरूप को बिगाड़ दिया गया है। नीचे भी टाइल्स लगा दिया गया।
विद्वानों का कहना है कि भित्ति चित्रों में जो चित्रित किया गया, उसका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है। यह नरसंहार से जुड़ी संवेदना को नष्ट करने वाला है। ये तस्वीरें मासूम नागरिकों की हत्या के दोषी अंग्रेजी शासन के खिलाफ गुस्सा पैदा करने के बदले मनोरंजन का भाव उभारने वाली हैं।
नाराजगी उस कुएं को कांच से घेर देने को लेकर भी है जिसमें लोग जान बचाने के लिए कूद गए थे। लोगों का कहना है कि लाइट एंड साउंड कार्यक्रम तथा सौंदर्यीकरण का पूरा उद्देश्य परिसर को एक पर्यटन स्थल की तरह विकसित करने का है। इससे स्मारक के बदले यह परिसर पिकनिक स्पॉट नजर आने लगा है।
जलियांवाला बाग नरसंहार पर शोध करने वाले लंदन में इतिहास के प्रोफेसर किम ए वैगनर ने तो यहां तक कह दिया है कि नरसंहार की याद दिलाने वाले अंतिम निशान को भी पूरी तरह मिटा दिया गया है। कई लोग इसे इतिहास को रहस्यमय और ग्लैमरस बनाने की कोशिश भी मानते हैं।
लोग जापान में हिरोशिमा तथा जर्मनी के बंदी शिविरों के संरक्षण का उदाहरण दे रहे हैं जहां वास्तविक स्वरूप के साथ कोई भी छेड़छाड़ नहीं की गई है। यहा पहुंच कर इनसे जुड़ी अमानवीय घटनाओं का दर्द आप महसूस कर सकते हैं।
लेकिन क्या यह भूल ऐतिहासिक धरोहर के संरक्षण की समझ नहीं होने या व्यावसयिक उपयोग की कोशिश के कारण हुई है। कई लोग तो 1961 में जवाहरलाल नेहरू के समय बने स्मारक को भी इतिहास के साथ एक किस्म का छेड़छाड़ बताने लगे हैं ताकि उन्हें निष्पक्ष टिप्पणीकार समझा जाए और कांग्रेस से अलग माना जाए। लेकिन उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि उस स्मारक का अमेरिकी आर्किटेक्ट बेंजामिन पोल्क ने डिजाइन किया था जिनकी तुलना मौजूदा नवीकरण में शामिल लोगों से नहीं हो सकती है। उस समय तक आंदोलन के नेता सैफुद्दीन किचलू भी जिंदा थे और स्मारक ट्रस्ट के सदस्य थे।
अभी हुए नवीकरण का काम अहमदाबाद की उस कंपनी ने किया है जो कॉमिक बुक और गेम्स तैयार करती है। मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो इस कंपनी को डायनोसार म्यजियम से लेकर बापू म्यूजियम तक, तरह तरह के म्यूजियम सजाने का काम मिला। मोदी को कारपोरेट की दुनिया में स्थापित करने वाले वाइब्रेंट गुजरात के आयोजन स्थल महात्मा गांधी कांवेशन सेंटर में शीशों, रोशनी तथा थ्री डी दृश्यों के जरिए गांधी जी को बाजार की दुनिया में खड़ा करने का काम भी इसे ही सौंपा गया था। प्रधानमंत्री बनने के बाद इसे दिल्ली में पुलिस म्यूजियम और पुणे के आगा खान पैलेस का काम भी मिला।
जलियांवाला बाग के नवीकरण के आलोचकों ने सबसे महत्वपूर्ण बात को नजरअंदाज कर दिया है कि नरसंहार की कहानी को संघ परिवार ने किस सफाई से हिंदुत्व का जामा पहनाया है। साथ ही, उन्होंने संबंधित इतिहास को अपनी विचारधारा के हिसाब से तोड-मरोड़ दिया है और आजादी के आंदोलन का नेतृत्व कर रही कांग्रेस की भूमिका को कम से कम दिखाने की कोशिश की है। नए रूप वाले स्मारक से जोड़े गए लाइट एंड साउंड कार्यक्रम को तो एकमात्र इसी उद्देश्य से तैयार किया गया है। कार्यक्रम में रॉलट एक्ट विरोधी आंदोलन के समय बनी हिंदू-मुस्लिम एकता तथा कांग्रेस के नेतृत्व में उभरी प्रतिरोध की व्यापक लहर और ब्रिटिश सरकार की ओर से चल रहे दमन की कथा को प्रस्तुत करने के बदले इसे मजहबी आधार देने की कोशिश की गई है। इसमें इस बात का जिक्र तक नहीं है कि रॉलट एक्ट विरोधी आंदोलन के दौरान अभूतपूर्व हिंदू-मुस्लिम एकता हो गई थी।
इसमें इस बात को भी पूरी तरह से छोड़ दिया गया है कि पहले विश्वयुद्ध के बाद आजादी के आंदोलन ने नया रूप ले लिया था। युद्ध क्षेत्र से सैनिकों के वापस आने के बाद पंजाब में बेरोजगारी तथा स्पैनिश फ्लू ने लोगों की हालत खराब थी। इस बढते असंतोष तथा कांग्रेस के पढे-लिखे तथा संपन्न तबके की पार्टी से आम लोगों की पार्टी में तब्दील होने की कहानी बताने के बदले रासबिहारी बोस तथा गदर पार्टी का किस्सा पेश कर दिया गया है। जाहिर है कि यह कांग्रेस को केंद्रीय भूमिका से बाहर दिखाने के लिए किया गया है। इसका एक और उद्देश्य इसे खारिज करना है कि अहिंसा तथा सत्याग्रह के गांधी जी के विचार ही आजादी के आंदेलन को संचालित करने वाली मुख्य विचारधारा थी। गांधी जी का नाम लेकर उनके विचारों को समूल नष्ट करना आरएसएस का प्रमुख एजेंडा है।
लाइट एंड साउंड कार्यक्रम में उपनिवेशवाद के पक्षधर इतिहासकारों का वही मत दोहराया गया है कि लोग बैसाखी मनाने के लिए बाग में जमा हुए थे और उन्हें अमृतसर में मार्शल लॉ लगे होने के बारे में पता ही नहीं था।
अमृतसर भारत-पाक विभाजन के म्यूजियम के लिए ट्रस्ट चला रहीं और जलियांवाला बाग नरसंहार पर शोध करने वालीं किश्वर देसाई ने बाग को पुराने स्वरूप में ले जाने के लिए प्रधानमंत्री को पत्र लिखा है। इसमें उन्होंने कहा है कि नरसंहार के तीन दिन पहले से यानी 10 अप्रैल 1919 से ही अमृतसर में अंग्रेज लोगों को मार रहे थे और जगह जगह लाशें जल रही थी। शहर में कर्फ्यू लगा हुआ था और शहर में आने-जाने के सारे रास्ते बंद कर दिए गए थे। उन्होंने कहा है कि लोगों को यह पता था कि वे एक राजनीतिक सभा में जा रहे हैं और यह एक खतरनाक क्षेत्र है। वह कहती हैं कि भित्ति चित्र में दिखाए गए बैसाखी मेले के लिए आ रहे हंसते‘-मुस्कुराते औरत-मर्दों के चित्र सही नहीं हैं। उनका कहना है कि न तो किसी बालिका के बाग में आने के सबूत हैं और न ही औरतों के सभा में शामिल होने के।
इतिहासकार के एम वैगनर ने बताया है कि बाग में जमा लोग अहिंसक तरीके से अपनी बात रखने की कोशिश कर रहे थे।
असल में, प्रतिरोध के तेज हो रहे आंदोलन के दौरान कांग्रेस नेताओं सैफुद्दीन किचलू तथा डॉ. सत्यपाल को गिरफ्तार कर लिया गया था और 13 अप्रैल की सभा उनकी रिहाई की मांग करने के लिए बुलाई गई थी।
लाइट एंड साउंड के कार्यक्रम की कहानी में जालियांवाला बाग नरसंहार के बाद के इतिहास को भी सिर्फ शब्दों की क्रांतिकारिता से भरने तथा इसे एक सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की गई है। इसमें खिलाफत और असहयोग आंदोलन और रॉलट एक्ट, प्रेस एक्ट और जनता के अधिकारों के छीनने वाले अन्य कदमों के वापस होने के बारे में कुछ नहीं बताया गया है। 1919 में पंजाब के गर्वनर रहे और जनता के दमन के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार माइकेल ओडायर की 1940 में लंदन में हत्या करने वाले शहीद उधम सिंह को लाइट एंड साउंड कार्यक्रम में शहीद सिख कह कर संबोधित किया जाता है।
प्रधानमंत्री के भाषण में भाजपा का सांप्रदायिक आख्यान ज्यादा खुलकर सामने आया है। वह जलियांवाला बाग के साथ विभाजन की विभीषिका की याद दिलाते हैं और बताते हैं कि पंजाब को कितना कुछ सहना पड़ा है। वह लगे हाथों अफगानिस्तान से भारत लाने के लिए चल रहे आपरेशन देवीशक्ति की जानकारी देते हैं और नागरिकता संशोधन कानून का नाम लिए बगैर इसके बारे में बता देते हैं, ‘‘ऐसी परिस्थितियों से सताए हुए, अपने लोगों के लिए नए कानून भी बनाए हैं।’’
यह साफ है कि जीर्णोद्धार के खिलाफ राहुल गांधी का बयान के बावजूद पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने स्मारक में किए गए परिवर्तनों को सही बताया है। वह स्मारक के ट्रस्ट के सदस्य भी हैं। जाहिर है कि वह सांप्रदायिक भावना फैलाने में लगी भाजपा को इसे मुद्दा बनाने का मौका नहीं देना चाहते हैं।
सांप्रदायिक राजनीति को काटने का सेकुलर रास्ता उनके पास नहीं है।
आजादी के आंदोलन के इतिहास को विकृत करने तथा छीनने के आरएसएस के अभियान को विफल करने की कांग्रेस या विपक्ष के पास कोई रणनीति नहीं है। मोदी गुजरात के मार्केटिंग मैनेजरों और कॉरपोरेट एक साथ मिल कर इस अभियान को पूरा करने में लगे हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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