महाराष्ट्र: भाजपा-उद्धव की तक़रार से शिंदे-भाजपा के इक़रार तक
वे देश और विकास की बातें करते हैं लेकिन असल बात कुछ और है। उनके तमाम तर्कों का आख़िरी निशाना सत्ता की सर्वोच्च कुर्सी है। यह बात भाजपा के लिए कही जा रही है। जिसे सार्थक करती है महाराष्ट्र की राजनीति।
असली और नक़ली ‘शिवसेना’
महाराष्ट्र में कई महीनों से चल रही सियासी लड़ाई का अंत एक राजनीतिक दल से उसकी विरासत छीनने के साथ हुआ। असली और नकली ‘शिवसेना’ के खेल में आख़िरकार बाला साहेब ठाकरे के बेटे उद्धव की हार हुई और एकनाथ शिंदे के रूप में एक सामान्य कार्यकर्ता बड़ा होते-होते इतना बड़ा हो गया, कि पार्टी का नाम, निशान और दफ्तर तक ले गया।
एक साल पहले तक किसी ने सोचा नहीं होगा कि चुनाव आयोग का एक फैसला उद्धव परिवार को 57 साल पहले ले जाकर छोड़ देगा। हालांकि उद्धव ठाकरे चुनाव आयोग के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे रहे हैं। चुनाव आयोग के फैसले के बाद ठाकरे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साधते हुए कहा कि अब औपचारिक रूप से भारत में तानाशाही की शुरुआत और लोकतंत्र के अंत की घोषणा कर देनी चाहिए।
‘तोड़ो नीति’ की शुरुआत कैसे हुई?
महाराष्ट्र में सत्ता की सर्वोच्च कुर्सी के लिए छीना-झपटी वाली राजनीति की शुरुआत 2014 में हो गई थी, जब नरेंद्र मोदी पहली बार देश के प्रधानमंत्री चुने गए थे। क्योंकि यही वो दौर था जब ‘हम साथ-साथ हैं’ कहने वाली शिवसेना और भाजपा एक ही पटरी पर तेज़ी से दौड़ने वाली दो ट्रेनों की तरह हो गईं।
मुद्दा चाहे किसानों की कर्ज माफी का हो, नोटबंदी का हो, जीएसटी, बुलेट ट्रेन, मुंबई मेट्रो या आरे जंगल का हो, शिवसेना हर विषय पर भाजपा को पटखनी देने की जुगत में लगी रहती। और इसका सबसे बड़ा हथियार ‘सामना’ बना, जो शिवसेना का अख़बार है। इसमें हर रोज़ केंद्रीय नेतृत्व पर कभी कार्टून तो कभी तीख़े शब्दों के ज़रिए निशाना साधा जाता था।
यहां तक शिवसेना और भाजपा अपने सबसे अहम चुनावी मुद्दे ‘राम मंदिर’ पर भी आमने-सामने आ गए, कहने का मतलब ये है मुकाबला ये शुरु हो गया कि ‘राम मंदिर’ और राम का ज़्यादा बड़ा भक्त कौन है?
उद्धव ठाकरे जब अपने अयोध्या दौरे पहुंचे तब उन्होंने अपने निशाने पर सीधे-सीधे प्रधानमंत्री मोदी को रखा।
दोनों पार्टियां एक-दूसरे के सामने इतनी ज़्यादा तेज़ी से दौड़ रही थीं, कि 2014 के बाद महाराष्ट्र में होने वाले चाहे पंचायत चुनाव हों, नगर पालिका चुनाव हों या महानगर पालिका... दोनों पार्टियां अलग-अलग ही लड़ीं।
साल 2017 में जब 227 सीटों वाली मुंबई महानगर पालिका के चुनाव हुए तब इसमें शिवसेना के 84 और भाजपा के 82 पार्षद बने। इस चुनाव में भले ही शिवसेना के ज़्यादा पार्षद जीते हों, लेकिन भाजपा ने ये ज़रूर साबित कर दिया था कि शिवसेना को ही झुकना पड़ेगा।
भाजपा-शिवसेना ने अलग-अलग लड़े चुनाव
अब आते हैं, दोनों पार्टियों के अलग होने की सबसे महत्वपूर्ण वजह पर यानी लोकसभा चुनाव।
राज्य में 48 लोकसभा सीटें हैं, ऐसे में शिवसेना का साफ कहना था कि गठबंधन का फॉर्मूला फिफ्टी-फिफ्टी होगा। लेकिन आख़िर में शिवसेना ने फिर से नरमी बरती और महज़ 23 सीटों पर चुनाव लड़ा जबकि भाजपा ने अपने पास 25 सीटें रखीं।
जब नतीजे आए तो भाजपा की प्रचंड जीत ने उसे हावी होने का एक और मौका दे दिया, क्यों? क्योंकि भाजपा ने अपनी 25 में से 23 सीटों पर जीत दर्ज कर ली थी, जबकि शिवसेना को सिर्फ 18 सीटों पर जीत मिली। यानी पूरे देश के साथ-साथ महाराष्ट्र में भी भाजपा को ऐसी जीत मिली कि शिवसेना को तेवर दिखाने का मौका ही नहीं मिला, नतीजा ये रहा कि शिवसेना कोटे से सिर्फ एक सांसद अरविंद सावंत को केंद्र में मंत्री बनाया गया।
‘मुख्यमंत्री कौन बनेगा’? से पूरा खेल
इन लोकसभा चुनाव के बाद शिवसेना का पारा चढ़ना लाज़मी था, जो बची-कुची कसर थी वो विधानसभा चुनाव में पूरी हो गई। यानी यहां भी गठबंधन तो हुआ लेकिन कुल 288 में से शिवसेना को लड़ने के लिए सिर्फ 124 सीटें मिली, जबकि भाजपा ने अपने पास 164 सीटें रखीं। ऐसा पहली बार हुआ था, जब शिवसेना 150 सीटों से कम पर चुनाव लड़ रही थी, जब नतीजे आए तो भाजपा ने के खाते में 105 और शिवसेना के खाते में 56 सीटें आईं।
यही वो नतीजे थे जिसने लंबे वक्त तक साथ रहीं दो राजनीतिक दलों की राहें अलग कर दीं।
कैसे?
शिवसेना और भाजपा अपनी-अपनी पार्टी का मुख्यमंत्री बनाने के लिए दावों का एक पहाड़ सा खड़ा करने लगी थीं। भाजपा ये रट लगाए हुई थी, गठबंधन में ये शर्त थी कि देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री बनाया जाएगा। तो शिवसेना कह रही थी, कि दोनों पार्टियों से बराबर-बराबर मंत्री बनाए जाएंगे और मुख्यमंत्री पद का बंटवारा भी ढाई-ढाई साल के लिए होगा। अब भाजपा इससे मुकर गई।
इसी बीच, एनसीपी प्रमुख शरद पवार के भतीजे अजित पवार अपने साथ पार्टी के कुछ विधायकों को साथ लेकर तड़के ही राजभवन पहुंच गए, 23 नवंबर की सुबह देवेंद्र फडणवीस को आनन-फानन में मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी गई अजित पवार उप मुख्यमंत्री बन गए।
लेकिन शरद पवार इस पारिवारिक झगड़े में भारी पड़े और अजित पवार के साथ गए विधायक एनसीपी में लौट आए। इसके बाद 26 नवंबर को फडणवीस ने विश्वास मत का सामना किए बगैर इस्तीफ़ा दे दिया।
शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी के गठबंधन वाली महाविकास अघाड़ी की सरकार बनी और उद्धव ठाकरे का मुख्यमंत्री बनने का सपना सच हुआ।
लेकिन महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद की कुर्सी उद्धव ठाकरे के पास महज़ 31 महीने ही रह सकी, क्योंकि इन 31 महीने पहले जब महा अघाड़ी सरकार बनी थी, तभी से भाजपा खेमा उनकी कुर्सी खींचने लग गया था, इसके लिए भाजपा ने इंतज़ार किया शिवसेना के भीतर हिंदुत्व को लेकर अंसतोष पैदा होने या करने का। और आख़िर में भाजपा इसमें कामयाब रही। यूं कह लीजिए कि लंबे वक्त के बाद ही सही लेकिन भाजपा ‘ऑपरेशन लोटस’ में कामयाब रही।
उद्धव को हिंदू विरोधी साबित करने की कोशिश!
उद्धव की कुर्सी खींचने के लिए केंद्रीय नेतृत्व ने सरकारी जांच एजेंसियों से लेकर, शिवसेना को हिंदुत्व के मुद्दे पर असहज महसूस कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
अब 21 जून 2022 आता है, यानी अभी महा विकास अघाड़ी सरकार को ढाई साल ही पूरे हुए थे, लेकिन अचानक ख़बर आ जाती है कि एकनाथ शिंदे और पार्टी के कुछ विधायक 'नॉट रीचेबल' हो गए। एक दिन पहले एमएलसी का चुनाव था और पार्टी के कुछ विधायकों पर क्रॉस वोटिंग का आरोप लगा। जब कहानी की परतें खुलने लगी तो पता चला कि पार्टी के भीतर बड़ा विद्रोह हो चुका है, जिसका नेतृत्व एकनाथ शिंदे ही कर रहे थे। विधायक अंदर से टूट ही चुके थे, जिन्हें लेकर पहले तो एकनाथ शिंदे गुजरात के सूरत चले गए और फिर भाजपा शासित राज्य असम के गुवाहाटी जा पहुंचे। दिन बीत रहे थे, और एकनाथ शिंदे के पक्ष में विधायकों की संख्या बढ़ रही थी।
जब शिवसेना से छिटकर एक तिहाई विधायक उद्धव खेमे को छोड़कर शिंदे के साथ आ गए, शिंदे ने तुरंत उद्धव गुट पर हिंदुत्व से भटक जाने का आरोप मढ़ दिया।
दूसरी ओर भाजपा तो पूरा खेल पीछे से कर रही थी, लेकिन वेट एंड वॉच वाली कंडीशन में, क्योंकि उसे इंतज़ार था, कि कब वो शिंदे का सहारा लेकर सरकार में वापस आ सके। हुआ भी यही, कुछ दिनों बाद निर्दलियों ने भी महाअघाड़ी का साथ छोड़ दिया। और अब भाजपा खुलकर सामने आ गई। यहां आपको बता दें कि निर्दलियों ने साथ तब छोड़ना शुरू किया जब उद्धव गुट की ओर से 16 विधायकों के लिए नोटिस जारी किया गया था।
10 दिनों से चल रहे इस खेल में अब भाजपा को यकीन हो चुका था, कि वो आसानी से सत्ता में आ सकती है, तो उसने मुख्यमंत्री को लेकर सोशल इंजीनियरिंग शुरू कर दी।
जातीय समीकरण बनाने के लिए भाजपा की ओर से कहा जाने लगा कि तीन प्रतिशत ब्राह्मण वाले राज्य में एक ब्राह्मण मुख्यमंत्री होने से सरकार विपक्ष के निशाने पर आ सकती थी, इसलिए मराठा ही ठीक रहेगा। जब मराठा को लेकर बात हुई तब एकनाथ शिंदे तो सबसे बड़े बागी और दावेदार थे ही, और पार्टी को फडणवीस के कार्यकाल में मराठाओं का ज़बरदस्त प्रदर्शन तो याद ही होगा।
एक बड़ा कारण ये भी निकलकर सामने आया कि पार्टी देवेंद्र फडणवीस के तेज़ी से बढ़ते कद पर लगाम लगाना चाहती थी, सूत्रों से ख़बरें आईं कि फडणवीस की बढ़ती लोकप्रियता राज्य और केंद्रीय नेतृत्व की नज़र में थी तो इसे फडणवीस के पंख कतरने की कोशिश भी माना जा रहा है।
एकनाथ शिंदे के नाम पर मुहर लगती, तबतक शिवेसना, एनसीपी और कांग्रेस के गठबंधन वाली महाविकास अघाड़ी सरकार गिर गई। शिवसेना के कई विधायकों के बाग़ी होने के बाद मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने इस्तीफा दे दिया।
इसी बीच 8 अक्टूबर 2022 को चुनाव आयोग ने एक अंतरिम आदेश जारी किया, उद्धव ठाकरे और एकनाथ शिंदे कैंप को शिवसेना के चुनाव चिन्ह 'धनुष और बाण' का इस्तेमाल करने से रोक दिया। आयोग ने कहा कि जब तक वे इस निर्णय पर नहीं पहुंच जाते हैं कि 'असली शिवसेना' कौन है, तब तक दोनों में से कोई समूह चुनावी गतिविधियों में इसका इस्तेमाल न करे। दोनों गुटों को अलग-अलग नाम और अलग चिह्न दिये गये। शिंदे गुट को दो तलवारों और ढालों के साथ "बालासाहेब की शिवसेना" नाम दिया गया था। उद्धव गुट को 'शिवसेना- उद्धव बालासाहेब ठाकरे' नाम दिया गया और मशाल को उसका प्रतीक चिह्न दिया गया था।
अब निर्वाचन आयोग ने शुक्रवार, 17 फरवरी को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाले समूह को ‘शिवसेना’ नाम और उसका चुनाव चिह्न ‘तीर-कमान’ आवंटित कर दिया।
ख़ैर... अब पूरा मामला सुप्रीम कोर्ट जा रहा है, और सभी को उसके फैसले का इंतज़ार रहेगा।
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