रक्षा मंत्री और उनकी सरकार को "एचएएल" की साख पर सवाल उठाना बंद करना चाहिए
इस साल 4 और 7 जनवरी को लोकसभा में रफ़ाल घोटाले पर चर्चा के दौरान रक्षा मंत्री निर्मला सीतरमण के लंबे और बोझिल बयानों ने नरेंद्र मोदी सरकार के ख़िलाफ़ लगातार लगाए जा रहे आरोपों और आलोचनाओं को दबाने के लिए उनकी अपनी और सरकार के प्रतिक्रियाओं के तरीकों का अनुसरण किया। इस मौके पर हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) को किए गए भुगतान के संबंध में 4 जनवरी को संसद में दिए उनके बयान को स्पष्ट करने के लिए 7 जनवरी को रक्षा मंत्री को तफसील से बयान देने के लिए बाध्य किया गया था।
मंत्री यह बताना चाहती थीं कि उनकी सरकार प्रमुख रक्षा सार्वजनिक क्षेत्र के इस उपक्रम (डीपीएसयू) का पूरी तरह से सहयोग करती रही है, और ऐसा नहीं है जैसा कि आरोप लगाया गया है कि इसे नज़रअंदाज़ कर रक्षा विनिर्माण में निजी कंपनियों को तरजीह दे रही है। साथ ही साथ उनका फैसला किसी विशेष कंपनी को सहयोग कर रहा है जिसे घनिष्ठ मित्र द्वारा संचालित किया जा रहा है। दुर्भाग्य से इस "स्पष्टीकरण" ने मामले को और उलझा दिया है। इसको लेकर शोर शराबे के माहौल को दुरुस्त करने के अपने पहले के प्रयासों के तरीकों को दोहराने से मामले और खराब हो रहे हैं।
एचएएल का मामला तब सामने आया जब फ्रांस के डसॉल्ट से 126 रफाल विमान की ख़रीद के लिए लगभग पूरी हुई बातचीत को रद्द कर नए सौदे के तहत 36 रफाल विमान की खरीद के लिए मोदी सरकार ने अचानक और एकतरफा फैसला लिया। बता दें कि पहले के करार के तहत 126 विमान में से 108 विमान तकनीक हस्तानांतरण के जरिये एचएएल द्वारा भारत में बनाए जाने थे। नए सौदे के तहत ख़रीद अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेंस के साथ ऑफसेट पार्टनर के रूप में की जानी थी जिसने एचएएल को बुरे स्थिति में छोड़ दिया। यह निर्णय प्रधानमंत्री द्वारा भारतीय वायु सेना सहित मुख्य हितधारकों के साथ-साथ संबंधित निर्णय लेने वाली समिति से पूर्व अनुमोदन के बिना लिया गया था, और जाहिर है कि इससे उनके एक अनुभवहीन और भारी क़र्ज़ वाले मित्र को लाभ हुआ जो कि एक तरह से अन्याय है। जब रक्षा मंत्री खुद इस फैसले को न्यायसंगत ठहराने के अपने नामुनासिब कोशिश में दावा करती हैं कि एचएएल के पास 4+ पीढ़ी के लड़ाकू विमान का उत्पाद करने की क्षमता नहीं है तो ऐसा कह कर उन्होंने आग में घी डालने का काम किया।
संसदीय बहस की पूर्व संध्या पर खबर आई कि एचएएल जो सामान्य रूप से नकदी से समृद्ध था और बेहतर कारोबार और मुनाफा दिखाया था उसे कर्मचारियों के वेतन को अदा करने के लिए बैंक ऋण जुटाने के लिए मजबूर किया गया था। इन सब के बीच सीतारमण ने संसद में कहा कि उनकी सरकार ने एचएएल को 1 लाख करोड़ रुपये का कॉन्ट्रैक्ट दे रखा था जो डीपीएसयू के लिए उनके पूर्ण सहयोग को साबित करता है। एचएएल के प्रवक्ताओं ने जब खंडन किया तो विपक्ष ने ट्विट वार शुरू कर दिया और साथ ही कई टिप्पणीकारों ने इसकी सच्चाई को लेकर कई लेख लिखे जिससे रक्षा मंत्री के बयान और ज़मीनी हक़ीक़त के बीच बड़ी खाई दिखाई पड़ती है। दुर्भाग्य से 7 जनवरी को उनके विस्तृत स्पष्टीकरण ने संदेह को दूर करने के लिए कुछ भी नहीं किया। वह एक बार फिर जनता को अधूरे सत्य और गलत तरीके से गुमराह करने की कोशिश कर रही थी।
धोखा और अधूरा सत्य
हाथ की सफाई के अलावा किसी जादूगर के सामान को धोखा बताया जाता है अर्थात अतिश्योक्तिपूर्ण कार्य करने के लिए जिसमें दर्शकों का ध्यान स्वाभाविक रूप से खींचा जाता है हालांकि अभिष्ट "जादुई" कार्य कहीं और किया जाता है। अधिक अविश्वसनीय होते हुए भी जादूगर द्वारा खुले तौर पर दिखाया गया "जादुई" कार्य प्रशंसनीय प्रतीत होता है!
अब यह स्पष्ट हो रहा है कि रफाल घोटाले पर हमले का मुकाबला करने के लिए भारतीय जनता पार्टी की रणनीति में जाहिर तौर पर प्रशंसनीय बयान देकर जबरन धोखा देना शामिल है। यह बयान वास्तव में या तो पूरी तरह से असत्य है या किसी तरह से अर्धसत्य है, ताकि लोगों के जेहन को वास्तविकता से दूर कर दिया जाए और एक ऐसा प्रशंसनीय परिदृश्य पेश किया जाए जिस पर न ख़त्म होने वाली बहस की जा सके। जनता को गुमराह करने के एक भ्रामक प्रयास से काफी दूर पीएम की फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद के साथ एक संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में नई डील की नाटकीय घोषणा के बाद रफाल निर्णय की प्रक्रिया में लगातार बीजेपी ने बयान दिया है कि वास्तव में प्रासंगिक समितियों में सभी अपेक्षित मंज़ूरी प्राप्त किए गए थे। यह घोषणा गैर कानूनी थी।
वास्तविकता यह थी कि एचएएल द्वारा 108 विमान बनाए जाने के साथ 126 रफाल की ख़रीद के लिए जारी प्रक्रिया को रद्द करने के लिए पीएम ने एकतरफा निर्णय लेने की घोषणा की थी और मनमाने ढ़ंग से सीधे 36 रफाल की ख़रीद के लिए पहले के सौदे को बदल दिया। यह अच्छी तरह से जानते हुए कि इसकी सार्वजनिक रूप से घोषणा की गई थी जिसे किसी समिति द्वारा पलटा नहीं जा सकता है। महीनों बाद भी इस पहलू पर अभी भी बहस चल रही है और बीजेपी या सरकार का कोई भी प्रतिनिधि इस फैसले में पीएम के अलावा किसी का नाम बताने सामने नहीं आया।
सच्चाई यह है कि रक्षा खरीद प्रक्रिया (डीपीपी) में हितधारकों के प्रतिनिधित्व के साथ समितियों के पदानुक्रम के जरिए क्रमिक निर्णय की प्रक्रिया होती है। हितधारकों में सैन्य उपयोगकर्ता एजेंसी, रक्षा मंत्रालय के अधिकारियों और अन्य संबंधित नौकरशाहों, मनोनीत विशेषज्ञों और रक्षा मामले की मंत्रिमंडल समिति को विशेष रूप से पारदर्शिता को बढ़ावा देने सहित सभी संबंधित मामलों में पूर्ण भागीदारी के साथ लक्ष्य-उन्मुख और प्रभावी निर्णय लेने के लिए बनाई गई थी। यदि अकेले पीएम ख़रीद प्रक्रिया के मामले में निर्णय लेते हैं चाहे बाद में निर्णय की पुष्टि की जाए या नहीं तो यह पूरी प्रक्रिया भाई-भतीजावाद के संबंध को उजागर करेगा और यह सवाल उठेगा कि डीपीपी क्यों थी और जबकि एक दशक में कई बार संशोधन द्वारा सुधार किया गया था?
विशेष रूप से रक्षा मंत्री का दूसरा बचाव रिलायंस डिफेंस के संबंध में है जिसमें जोर देकर कहा गया है कि डसॉल्ट द्वारा इसके चयन में इसकी कोई भूमिका नहीं थी और यह कि इस ऑफसेट अनुबंध का कोई ज्ञान नहीं था क्योंकि भागीदारों के पास ऑफसेट क्रेडिट के लिए आवेदन करने के लिए तीन साल का समय है और अभी तक ऐसा नहीं किया है। बेशक इस बात को भूल जाइए कि प्रेस में किसी ने क्या देखा या पढ़ा है जिसको लेकर रक्षा मंत्री अनभिज्ञता का बहाना करती हैं। सच्चाई यह है कि डसॉल्ट और रिलायंस को ऑफसेट अनुबंध के लिए सरकार की स्वीकृति प्राप्त करने की आवश्यकता है लेकिन वे इससे आगे बढ़ जाते हैं और उसी समय हस्ताक्षरित सौदे के बावजूद कॉन्ट्रैक्ट पर हस्ताक्षर करते हैं। मीडिया में इसका दावा किया गया और यहां तक कि इस मामले के बारे में रक्षा मंत्री की कम जानकारी के बिना काफी खर्चे की बात सामने आई!
संयोग से ऑफसेट विदेशी मूल उपकरण निर्माता (ओईएम) और कोई गुमनाम भारतीय साझेदार के बीच पूर्ण रूप से व्यावसायिक व्यवस्था नहीं है बल्कि भारत के औद्योगिक आधार, विशेषज्ञता और उन्नत रक्षा प्रौद्योगिकियों में क्षमताओं को बढ़ाने और मजबूत करने का उपाय है। यदि रक्षा मंत्री रफाल ऑफसेट सौदे के बारे में नहीं जानती हैं तो वह अपने कर्तव्य के निर्वाह करने में विफल साबित हो रही हैं।
गुमराह करने का अगला उदाहरण सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट को सौंपे गए अहस्ताक्षरित, सील नोट था जो बाद में याचिकाकर्ताओं को दिया गया। इसमें सरकार ने तर्क दिया कि नई डील का वित्तीय विवरण सीएजी (नियंत्रक तथा महालेखा परीक्षक) के साथ साझा किया गया था और कहा कि "सीएजी रिपोर्ट की पीएसी द्वारा जांच की जाती है। रिपोर्ट का केवल संशोधित संस्करण संसद के समक्ष रखा गया है और सार्वजनिक क्षेत्र में है।" एससी ने स्पष्ट रूप से इस बयान को कुछ और समझ लिया और अपने आदेश में लिखा कि सीएजी रिपोर्ट वास्तव में पीएसी (लोक लेखा समिति) जांच की गई थी और संशोधित संस्करण संसद के समक्ष रखा गया जो सत्य नहीं है।
सरकार ने बाद में सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध करते हुए यह कहा कि वह अपने आदेश में सुधार करे जो जटिल समस्या के पिटारे को खोल सकता है। हालांकि यहां मुद्दा यह है कि क्या गुमनाम रूप से लिखे गए इस पत्र में जानबूझकर कोर्ट से इस गलतफहमी को सुधारने की मांग की गई है जो कि एक और गुमराह करने वाला काम है? सरकार यह तर्क दे रही है कि "इज़" (है) शब्द का उसका उपयोग यह दर्शाता है कि वह मानक प्रक्रिया का उल्लेख कर रहा है जो वास्तव में नहीं हुआ जिसमें यह संभवतः "वाज़" (था) या "हैज़ बीन" (हुआ है) शब्द का उपयोग करेगा। लेकिन समान रूप से यदि यह सामान्य प्रक्रिया की व्याख्या कर रहा था तो क्या यह नहीं कहा जाना चाहिए कि "आमतौर पर पीएसी द्वारा जांच की जाती है" या "सामान्य व्यवस्था के अनुसार जांच की उम्मीद की जाती है?" अंग्रेजी की खराब समझ के लिए सुप्रीम कोर्ट को दोष देने के बजाय शायद जानबूझकर सरकार की गै़र जिम्मेदाराना अंग्रेजी की भाषा अधिक संदेह पैदा करती है।
दुर्भाग्य से हाल के समय में क़ानूनी और नैतिक रूप से संदिग्ध निर्णयों में से एक रफाल सौदे की जांच और निर्णय लेने के बारे में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इस तरह के राष्ट्रीय सुरक्षा-संबंधी ख़रीद की जांच उसके क्षेत्राधिकार से बाहर है। माननीय न्यायालय ने रफाल निर्णय लेने की प्रक्रिया में कुछ भी गलत नहीं पाया और फैसला सुनाया कि सरकार का रिलायंस डिफेंस के साथ ऑफसेट साझेदार के चयन में कोई लेना-देना नहीं है और साथ ही मूल्य निर्धारण में कोई समस्या नहीं पाया!
आश्चर्यजनक रूप से सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में इन सभी और अन्य मुद्दों पर सरकारी बयानों को भी लगभग शब्दशः पुन: प्रस्तुत किया! और यह सब अपनी खुद की किसी भी जांच के बिना या किसी भी जांच एजेंसी द्वारा निष्कर्षों के लाभ के बिना इसे किया जा सकता था! वास्तव में एक उल्लेखनीय आदेश जो भारतीय न्यायशास्त्र के इतिहास में निम्न स्तर पर रहेगा।
पाइपलाइन
आइए अब एचएएल को पाइपलाइन सहित एक लाख करोड़ रुपए के दिए गए ऑर्डर पर रक्षा मंत्री के गुमराह करने वाले बयान पर नजर डालते हैं। इस विवरण में जाने से पहले सरकारी ऑर्डर की व्याख्या करने के लिए एचएएल को "सहयोग" शब्द का रक्षा मंत्री द्वारा इस्तेमाल ही संदिग्ध है। इस संकेत से क्या भारत सरकार रफाल का ऑर्डर देकर डसॉल्ट का "सहयोग" कर रही है? या फिर अपाचे और चिनूक हेलीकॉप्टरों को ऑर्डर करके बोइंग को "सहयोग" कर रही है?
दूसरा यह कि कितने लंबे पाइपलाइन का रक्षा मंत्री बात कर रही हैं, और क्या वह कह रही है कि "पाइपलाइन" के ऑर्डर बदल नहीं सकते हैं? आखिरकार, रफाल का चयन निविदा निकाल कर किया गया था और एचएएल को आश्वासन दिया गया था कि वह भारत में 108 विमान बनाएगा, फिर भी "पाइपलाइन" को लेकर यह सौदा रद्द कर दिया गया!
रक्षा मंत्री ने स्वयं संसद में स्वीकार किया कि 27,000 करोड़ रुपये का आर्डर पहले ही एचएएल को दे दिए गए थे और कहा कि लगभग 73,000 करोड़ रुपये के और ऑर्डर "पाइपलाइन" में थे। वे लोग जो इसके बारे में सुन रहे हैं या पढ़ रहे हैं वह रक्षा मंत्री के बयान पर शायद ही यकीन कर पाएंगे कि सरकार मुनासिब ऑर्डर देकर एचएएल को नज़रअंदाज़ नहीं कर रही है। लेकिन नीचे दी गई तालिका में वास्तविकता को देखें जो कि संसद में रक्षा मंत्री द्वारा प्रस्तुत की गई थी।
जैसा कि ऊपर देखा जा सकता है कि लगभग 70,000 करोड़ रुपये के "पाइपलाइन" ऑर्डर कुछ मामलों में जारी मूल्य निर्धारण की बातचीत के साथ आरएफपी (रिक्वेस्ट फॉर प्रपोजल) या आरएफपी (रिक्वेस्ट फॉर क्वॉएशन) स्तर पर कई मामलों के साथ अभी भी काल्पनिक हैं। सामान्य भारतीय ख़रीद की रफ्तार की बात करें तो इनमें से कुछ ऑर्डर को वास्तव में पूरा होने तथा एचएएल में प्रवाहित होने वाले धन को परिवर्तित होने में एक या दो साल का समय लग सकता है।
2018 की तीसरी तिमाही के अनुसार एचएएल को अभी भी सरकार से 15,700 करोड़ रुपये प्राप्त करना बाकी है जिनमें से ज्यादातर भारतीय वायुसेना के लिए पहले से ही एचएएल द्वारा किए गए उत्पादों और सेवाओं के लिए बकाया है। इनमें नए विमान और पुराने मशीन की सर्विसिंग और ओवरहालिंग शामिल है। अगले साल मार्च तक यह लगभग 20,000 करोड़ रुपये तक बढ़ने की संभावना है!
इससे पहले सरकार ने एचएएल को पर्याप्त मात्रा में नकद डीपीएसयू से सरकारी इक्विटी का 7.5% वापस खरीदने के लिए मजबूर किया है। एचएएल कर सहित नियमित रूप से सरकार को सालाना लाभांश दे रहा है। सब मिलाकर पिछले तीन वर्षों में लगभग 11,000 करोड़ रुपये होता है जिसमें अकेले 2018 में लगभग 2,800 करोड़ रुपये का हिसाब शामिल है!
नतीजतन सामान्य रूप से नकद-समृद्ध एचएएल जिसका वार्षिक कारोबार लगभग 1,7000 करोड़ रुपये का है और पिछले कई वर्षों से लगातार बेहतर लाभ दिखा रहा है अपने इतिहास में पहली बार लगभग 1,000 करोड़ रुपये वेतन का भुगतान करने के लिए मजबूर किया गया। यदि इसकी नकदी की स्थिति में जल्द ही सुधार नहीं होता है तो एचएएल को भारतीय वायुसेना के लिए नियमित सेवा और ओवरहाल कार्यों के संचालन के लिए पुर्जों, सामग्रियों आदि के लिए हो रहे ख़र्चों को पूरा करना भी मुश्किल हो सकता है।
अगर रक्षा मंत्री और यह सरकार वास्तव में एचएएल का "सहयोग" करना चाहती है तो उन्हें पहले उसकी प्रतिष्ठा को नीचा दिखाना बंद करना चाहिए और सैद्धांतिक (और अन्य) कारणों से अक्षम निजी क्षेत्र के घनिष्ठ मित्र प्रतिद्वंद्वियों को छोड़ देना चाहिए। उसे अपनी विनिर्माण क्षमताओं, कर्मचारियों तथा मशीनों की श्रृंखलाओं, उत्पादकता और लागत प्रभावशीलता को बेहतर करने के लिए अपनी वित्तीय और अन्य आवश्यक सहायता का विस्तार करना चाहिए। यह सरकार की अपनी डीपीएसयू के संबंध में अपेक्षित भूमिका होगी।
माना जाता है कि मीडिया में जाते समय रक्षा मंत्री की एचएएल के शीर्ष अधिकारियों से मुलाकात हुई हो और उसकी नकदी की समस्याओं को दूर करने में मदद करने का आश्वासन दिया हो। ऐसा हो सकता है, संसद में एचएएल को लेकर कम से कम कुछ अच्छा हो!
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