हिंडनबर्ग मामला : सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त समिति ने किया अडानी का समर्थन
जनवरी में हिंडनबर्ग रिपोर्ट में जो आरोप लगाए गए हैं, उसके बाद अडानी समूह के संबंध में सेबी (भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड) की विनियामक कार्रवाइयों की समीक्षा करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने एक 'विशेषज्ञ' समिति नियुक्त की थी, तब से ही यह आशंका जताई जा रही थी कि यह के अदानी समूह को दोषमुक्त करने की कवायद भर हो सकती है। इस आलोक में समिति के सदस्यों द्वारा व्यक्त किए गए विचार और स्थिति को सार्वजनिक जांच के दायरे में लाया जाना चाहिए।
समिति की रिपोर्ट, जिसे 19 मई को प्रेस के सामने जारी किया गया, उन आशंकाओं को सच साबित करती हैं। अडानी समूह को फंसाए बिना या दोषमुक्त किए बिना, समिति की रिपोर्ट एक कानूनी सिद्धांत पेश करती है, जो स्टॉक की कीमतों में हेरफेर, "संबंधित पक्षों" के साथ लेन-देन की घोषणा पर प्रतिभूति कानून के उल्लंघन और न्यूनतम सार्वजनिक फ्लोट पर शेयर बाजार के नियमों से बचने के लिए टैक्स हेवन में शेल कंपनियों के इस्तेमाल करने के आरोपों के खिलाफ बचाव करते हुए अडानी के लिए सही तर्क का निर्माण करती है।
मीडिया में जो सामग्री रिपोर्ट हुई है उसके बाद से काफी चर्चा इस बात पर केंद्रित है कि क्या यह अडानी को 'क्लीन चिट' देती है। हालाँकि रिपोर्ट को इस तरह से तैयार किया गया है जो दोनों उत्तरों को पूरा करती है। जहां अडानी के आलोचकों और भारत के राजनीतिक विरोध का संबंध है – इसमें उन्हे जवाब 'नहीं' मिलता है। कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने 19 मई की शाम को बताया कि रिपोर्ट उस सवाल का कोई जवाब नहीं देती है कि टैक्स हेवन में पंजीकृत अपारदर्शी संस्थाओं द्वारा अडानी समूह की सूचीबद्ध कंपनियों में निवेश किए गए 20,000 करोड़ रुपये के फंड का क्या स्रोत है? दूसरी ओर, अडानी समूह ने रिपोर्ट आने के बाद खुद को दोषमुक्ति करार दिया है। इसके पीआर मैसेजिंग ने इस बात पर जोर दिया है कि रिपोर्ट में इयसा कुछ नहीं पाया गया है जो दर्शाता हो कि समूह ने बाजार के नियम तोड़े हैं या स्टॉक मूल्य हेरफेरकी है।
हक़ीक़त में, समिति अडानी समूह को फंसाने या बरी करने की हकदार नहीं थी। सर्वोच्च न्यायालय के मुताबिक इसका मुख्य काम यह निर्धारित करना था कि क्या सेबी की ओर से नियामक विफलता हुई है या नहीं और नियामक जांच के सेबी के आचरण में सुधार के तरीकों की सिफारिश को कहा था। 173-पृष्ठ की रिपोर्ट में विभिन्न अवसरों पर, समिति उक्त मुद्दों पर केवल बुदबुदाती नज़र आती है, और कहती अहि कि उन मुद्दों पर निर्णय लेना ठीक नहीं है जो जांच के दायरे में हैं या जिन पर सर्वोच्च न्यायालय की पीठ के समक्ष समवर्ती रूप से बहस हो रही है। वास्तव में, रिपोर्ट सेबी को दोषमुक्त करने का काम करती है, यह पाते हुए कि उस पर नियामक विफलता का आरोप नहीं लगाया जा सकता है।
हालांकि, ऐसा करते हुए, समिति ने अदानी समूह के खिलाफ आरोपों के अंतर्निहित तथ्यों के संबंध में एक कानूनी सिद्धांत तैयार किया है, जो समूह और इसके रहस्यमय विदेशी लाभार्थियों के खिलाफ सेबी की चल रही जांच को कमजोर करने का काम करता है। एक नियामक के रूप में सेबी की भूमिका का मूल्यांकन करने के लिए एक निकाय के रूप में गठित समिति ने वस्तुतः सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अडानी समूह की बेगुनाही के लिए मामला बनाने वाले तीसरे पक्ष के वकील की प्रभावी भूमिका निभाई है। इसके तर्क स्वीकार किए जाते हैं या नहीं, रिपोर्ट का तर्क सर्वोच्च न्यायालय में बड़े मामले में मुद्दों की शर्तों को समाप्त कर सकता है।
समिति यह तर्क देकर शुरुआत करती है कि साइप्रस और मॉरीशस में पंजीकृत 13 संदिग्ध विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक (एफपीआई), जिनका अडानी समूह में भारी निवेश है, वे अडानी समूह के परमोटर्स/प्रवर्तकों के लिए "संबंधित पक्ष" वाली पार्टी होने योग्य नहीं हैं, और उनकी घोषणाएं अंतिम लाभकारी स्वामित्व को दर्शाने वाली जरूरत के अनुरूप थी, जबकि सेबी कॉर्पोरेट आवरण को हटाने और औपचारिक घोषणाओं से परे धन के उनके स्रोतों की पहचान करने की मांग कर रहा था। मूल्यांकन के संदर्भ में इन मुद्दों की जांच करते हुए कि क्या सेबी ने प्रतिभूति बाजार के नियामक के रूप में अपना काम उचित रूप से किया है, समिति इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि मुद्दे नियामक मुद्दे कहीं अधिक है और अडानी की संभावित दंड घोषणाओं का गठन करती है।
आइए दो मुख्य मुद्दों पर विचार करें
सबसे बड़े आरोपों विदेशी पंजीकृत 13 फर्मों का एक समूह है, जिन्होंने अडानी समूह के सूचीबद्ध शेयरों में भारी निवेश किया है। 13 में से 12 मॉरीशस में पंजीकृत हैं और एक साइप्रस में पंजीकृत है। हिंडनबर्ग की रिपोर्ट में आरोप लगाया गया है कि ये संस्थाएं अडानी समूह के प्रमोटर्स/प्रवर्तकों की प्रतिनिधि हैं। समिति की रिपोर्ट पुष्टि करती है कि सेबी को भी इस पर संदेह है और अक्टूबर 2020 से इस मुद्दे की जांच कर रहा है। यदि यह साबित किया जा सकता है कि ये कंपनियां वास्तव में अडानी समूह या इसके प्रमोटर्स/प्रवर्तकों की प्रतिनिधि हैं, तो इसका मतलब कम से कम दो श्रेणियां होंगी जिनका संभावित उल्लंघन हुआ है। पहला न्यूनतम सार्वजनिक शेयरधारिता (एमपीएस) नियमों का संभावित उल्लंघन होगा, जहां सूचीबद्ध कंपनियों को जनता के पास अपने शेयरों का कम से कम 25 प्रतिशत रखना जरूरी है। फिर सवाल यह होगा कि क्या इन फर्मों के साथ लेनदेन "संबंधित पार्टी लेनदेन" के रूप में योग्य होगा, जिसे सूचीबद्ध कंपनियों को घोषित करना होता है।
हालाँकि समिति इन दोनों मुद्दों पर ध्यान देती है
एमपीएस मुद्दे के मामले में, समिति "लाभार्थी स्वामी" या "अंतिम लाभकारी स्वामी" की परिभाषा से संबंधित विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों (FPI) के लिए सेबी के नियमों में निहित भाषा पर विचार करती है। यह नोट करती है कि एफपीआई नियमों में एक अलग खंड था जो उस शब्द को परिभाषित करता था जिसे 2019 तक कई बार संशोधित किया गया था। फिर, इस खंड को नियमों से हटा दिया गया था और इस शब्द को धन शोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए) में प्रयुक्त परिभाषा सौंपी गई थी। इसलिए समिति का तर्क है कि, 2019 के बाद से, एफपीआई द्वारा लाभार्थी स्वामित्व घोषणाओं को पीएमएलए में मौजूद परिभाषा का पालन करने की जरूरत है।
फिर समिति का तर्क है, 13 अपतटीय कंपनियां वास्तव में पीएमएलए की परिभाषा के तहत अनुपालन कर रही थीं, क्योंकि उन्होंने लाभार्थी मालिकों के रूप में अपने फंड प्रबंधकों के नाम दिए थे।
महत्वपूर्ण रूबात यह है कि, पीएमएलए के तहत खुलासे की जरूरत सेबी के एफपीआई नियमों द्वारा निर्धारित पहले की तुलना में कम सख्त हैं। एफपीआई नियमों को इस तरह से बनाया गया था ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि एक एफपीआई में प्रत्येक नियंत्रक हित को लाभकारी स्वामित्व घोषणा में शामिल किया गया है - फंड मैनेजर से लेकर उन लोगों तक जिनके पास फंड में उच्च हिस्सेदारी है, उन उच्च हितधारकों के लाभकारी मालिकों तक – जो सभी का प्रतिनिधित्व/नेतृत्व करते हैं। उस श्रृंखला की पहचान करने का तरीका जिसके धन को अंततः एफपीआई द्वारा निवेश किया जा रहा था। इस बीच, पीएमएलए की परिभाषा में इस तरह के विस्तृत खुलासे की जरूरत नहीं थी – और केवल फंड मैनेजरों का नाम देकर फंडों को अनुपालन करने की इजाजत दी गई।
फिर, समिति का मानना है कि चूंकि फंड जमा दस्तावेज़ के आधार पर सही थे, इसलिए सेबी ने जांच की, कि क्या इन फंडों का इस्तेमाल अंततः अडानी समूह के प्रॉक्सी के रूप में काम करने के लिए स्थापित किया गया था, यह एक ऐसा मसला है जिसकी जांच की जानी चाहिए कि क्या इसमें "कानून की भावना" का उल्लंघन किया गया है। जबकि समिति स्पष्ट रूप से चल रही जांच के निष्कर्षों पर टिप्पणी करने से इनकार करती है, इसने प्रभावी रूप से एक कानूनी राय तैयार की है जो किसी भी अंतिम जांच को अमान्य बना देगी।
समिति की रिपोर्ट अपनी जांच में भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों एजेंसियों को सहयोग करने के मामले में शामिल न कर पाने के लिए सेबी की अक्षमता को जिम्मेदार ठहराती है और मामले को प्रथम दृष्टया मामला नहीं मानती है और फिर इस तथ्य के आधार पर इसे सिद्ध तथ्य मान लेती है। यह नोट करती है कि सेबी 13 अपतटीय फर्मों में 42 निवेशकों के नाम हासिल करने में सक्षम रही है और ये सभी कंपनियां अभी तक अधिक टैक्स हेवन वाली जगहों - जैसे कि केमैन द्वीप समूह, ब्रिटिश वर्जिन द्वीप समूह, माल्टा, कुराकाओ और बरमूडा में पंजीकृत हैं। समिति नोट करती है कि सेबी 42 में से 24 के नियंत्रित हितधारकों और निवेशकों के बारे में जानकारी हासिल करने में सक्षम है, लेकिन बाकी की जानकारी हासिल नहीं कर पाती है। रिपोर्ट के मुताबिक, प्रवर्तन निदेशालय और केंद्रीय प्रत्यक्ष कराधान बोर्ड ने सेबी की जांच में शामिल होने के उनके अनुरोधों का समर्थन करने से इनकार कर दिया है और अपतटीय न्यायालयों में बाजार नियामकों से जानकारी हासिल करने के लिए बना अंतर्राष्ट्रीय समन्वय तंत्र भी विफल हो गया है। फिर यह खुद की जाँच के दायरे में ले आती है, प्रभावी रूप से यह तर्क देते हुए कि विभिन्न अन्य एजेंसियों के अनुरोधों को सही ठहराने के लिए सेबी की विफलता का अर्थ है कि कोई प्रथम दृष्टया मामला मौजूद नहीं है। यह सेबी द्वारा की गई जांच को 13 एफपीआई द्वारा निवेश किए गए धन के वास्तविक स्रोत को "भारी भरकम अभ्यास" के रूप में निर्धारित कर सकता है और इसका अर्थ है कि यह एक मछली पकड़ने का अभियान होगा।
मान लीजिए कि सेबी पैसे के लेन-देन का पता लगाने में सफल हो जाता है, जिससे यह साबित हो जाता है कि अडानी समूह का पैसा वास्तव में इन फर्मों के माध्यम से वापस उनकी कंपनियों में भेजा गया था - समिति का तर्क है कि इस तरह की जांच करना अपने आप में अवैध हो सकता है और यह अभी भी उल्लंघन नहीं माना जाएगा, क्योंकि फर्में पीएमएलए के मानकों तहत लाभकारी स्वामित्व घोषणा कर चुकी थीं।
क्या यह राय सही है, और क्या समिति का यह राय व्यक्त करना सही था? यह आम तौर पर याचिकाकर्ताओं और अडानी समूह के बीच सीधे तौर पर विवाद का विषय होगा। उदाहरण के लिए, जो प्रश्न उठ सकते हैं, उनमें उस समय की अवधि शामिल होगी जब फर्मों को अडानी समूह की सूचीबद्ध कंपनियों में निवेश किया गया था, और उस समय कौन सी घोषणा आवश्यकताएं लागू थीं। घोषणा नियमों में बदलाव के कारण संस्थाएँ अनुपालन में और बाहर हो सकती हैं। यह चर्चा समिति की रिपोर्ट द्वारा रोक दी गई, हालांकि, सेबी की जांच चल रही है। समिति के लिए इस स्तर पर इस तरह का विचार व्यक्त करना कितना उचित था?
संबंधित पार्टी लेनदेन के प्रश्न पर समिति की जांच से एक समान मुद्दा उत्पन्न होता है। यहां, समिति "संबंधित पक्ष" शब्द की परिभाषा के संबंध में सेबी की नीति के विकास की चर्चा में संलग्न है। यह इस ओर इशारा करते हुए शुरू होती है कि सेबी अधिनियम में एक खंड शामिल है जो "कानून को दरकिनार करने के लिए संरचित किए गए उपायों और उपकरणों" को अवैध बनाता है। फिर यह कहता है, इस व्यापक परिवर्जन-विरोधी खंड को सेबी द्वारा प्रभावी रूप से निरस्त कर दिया गया था, जो वर्षों से संबंधित पार्टी की परिभाषा को निर्धारित करने वाले विभिन्न विशिष्ट नियमों को प्रस्तुत करता है। संबंधित पार्टी की एक विशिष्ट परिभाषा को अधिसूचित करके - समिति कहती है - व्यापक एंटी-अवॉइडेंस सख्ती उन संस्थाओं और लेनदेन के लिए अनुपयुक्त है जो सेबी की परिभाषा के तहत संबंधित पार्टियों के रूप में वर्गीकृत नहीं हैं।
इसके बाद, समिति को यह संकेत मिलता है कि लेन-देन का एक विशेष समूह जिसकी सेबी जांच कर रहा है, कानून के तहत संबंधित पार्टी के लेनदेन के रूप में अवर्गीकृत हैं, भले ही लेनदेन संस्था की ओर से काम करने वाली अदानी समूह की संस्थाओं के साथ किए गए हों। चूंकि संबंधित पार्टी को सेबी की परिभाषा के तहत निर्दिष्ट खुलासे की जरूरतों को, उन लेनदेन की रिपोर्ट करने की जरूरत नहीं थी और उन संस्थाओं को संबंधित पक्षों के रूप में घोषित किया जाना था - समिति का कहना है कि संबंधित पार्टी खुलासे वाले नियमों का कोई उल्लंघन नहीं हुआ है।
एक बार फिर, यह एक कानूनी व्याख्या है कि कोई इसे सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ का डोमेन मानेगा, न कि समिति का। क्या सेबी अधिनियम का व्यापक परिवर्जन-विरोधी खंड लागू होता है यदि सेबी की जांच में पता चलता है कि अघोषित लेनदेन वास्तव में संबंधित पक्षों के साथ थे? क्या संस्थाओं को संबंधित पक्ष घोषित किया जा सकता है यदि वे सेबी की अधिसूचित परिभाषा को पूरा नहीं करने के बावजूद "कानून को दरकिनार करने के लिए रचित युक्ति या उपकरण" पाए जाते हैं? यह सेबी और अडानी समूह के सामने आम तौर पर मुकदमा चलाने का मुद्दा होगा।
समिति की रिपोर्ट के अन्य खंड, जो अक्सर सेबी के संस्थागत सुधार और वित्तीय बाजार शासन की व्यापक प्रणाली के लिए वर्षों से विभिन्न सरकारी समितियों और कार्यकारी समूहों द्वारा की गई सिफारिशों को दोहराते हैं, जबकि निस्संदेह मूल्यवान हैं, अडानी मुद्दे पर इसका कोई असर नहीं है।
एक कदम पीछे हटते हुए, जबकि समिति ने अडानी मामले में तथ्यात्मक मैट्रिक्स पर राय व्यक्त करके अपनी सीमा को पार कर लिया है, यह रिपोर्ट उस तरीके की सीमाओं का प्रतीक है जिसमें हिंडनबर्ग रिसर्च द्वारा लगाए गए आरोपों के आसपास के घोटाले को भारतीय प्रणाली द्वारा नियंत्रित किया गया है। जबकि विपक्ष ने एक संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) द्वारा जांच की मांग की है, जिसे आरोपों के बारे में समग्र दृष्टिकोण रखने का अधिकार होगा, सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष जो मामला चल रहा है, उसका दायरा अब तक सीमित रहा है।
समिति की रिपोर्ट ही खुद की सीमाओं को उजागर करती है। यह नोट करती है कि यह कई व्यक्तियों, फर्मों और बैंकों से समिति के समक्ष उपस्थित होने का अनुरोध करने के बावजूद गवाही हासिल करने में असमर्थ रही है। समिति के सम्मन का जवाब मिले इसके लिए समिति किसी को बाध्य नहीं कर सकती थी, जबकि जेपीसी इस माले में कहीं अधिक सशक्त होती। यह काम समिति के दायरे के बाहर था। इसलिए, जब सेबी ने समिति को सूचित किया कि उसे 13 अपतटीय फर्मों द्वारा स्टॉक मूल्य हेरफेर का कोई तकनीकी प्रमाण नहीं मिला है, तो समिति ने प्रभावी रूप से स्टॉक मूल्य हेरफेर के प्रश्न को बंद मान लिया। वास्तव में, सेबी ने समिति को यह भी बताया कि भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) अप्रैल से दिसंबर 2021 तक अडानी एंटरप्राइजेज लिमिटेड के शेयरों का सबसे बड़ा खरीदार था, जब एलआईसी के चुने जाने से इसकी कीमत 1,031 रुपये से बढ़कर 3,859 रुपये हो गई थी। 4.8 करोड़ शेयर खरीदे थे। क्या एलआईसी की संगठित खरीदारी से कीमत बढ़ी? एलआईसी ने इतना बड़ा निवेश क्यों किया? ये ऐसे सवाल हैं जो कांग्रेस प्रवक्ता श्रीनेत ने भी उठाए थे, और इसमें कोई संदेह नहीं है कि जेपीसी इस पर आगे बढ़ सकती थी। यह उस तथ्य से अलग है कि, 13 फर्मों और उनके निवेशकों के वित्तीय रिकॉर्ड तक पहुंच के बिना, सेबी निश्चित रूप से अडानी समूह के शेयरों पर उठाए गए कदमों पर बात नहीं कर सकता है, इस स्तर पर केवल व्यापार की मात्रा के तकनीकी विश्लेषण पर भरोसा करना है।
समिति की रिपोर्ट बताती है कि अडानी-हिंडनबर्ग आरोपों जैसे "प्रणालीगत महत्व" के मुद्दों की जांच करने के लिए भारत की कानून प्रवर्तन और नियामक एजेंसियों से तैयार किए गए कर्मियों के साथ अस्थायी जांच कार्य बल स्थापित किए जा सकते हैं। व्यवहार में, सरकार और सर्वोच्च न्यायालय दोनों के पास विशेष जांच दल गठित करने की शक्ति है जो समान भूमिका निभाते हैं। संसद के पास एक जेपीसी स्थापित करने की शक्ति है, जो खोजी कार्य भी कर सकती है। ऐसा सुझाव देकर समिति ने वास्तव में अपने और सेबी की जांच शक्तियों को बेअसर बना दिया है। सरकार या संसद मौजूदा ढांचे के भीतर पर्याप्त रूप से सशक्त जांच क्यों नहीं कर सकी? इस तरह के उपाय का सुझाव देने के लिए, सेबी की नियामक कार्रवाइयों की समीक्षा करने वाली अदालत द्वारा नियुक्त समिति पर यह ज़िम्मेदारी क्यों पड़ी?
संसद में, विपक्ष ने यह भी आरोप लगाया है कि अडानी समूह को मोदी सरकार द्वारा कई तरीकों से समर्थन दिया गया है, एक आरोप यह है कि जेपीसी निपट सकती है लेकिन जिसे अब तक सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार नहीं किया है। राजस्व खुफिया निदेशालय (डीआरआई) और केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) द्वारा अडानी समूह के खिलाफ आरोपों की कई अन्य जांच इस मुद्दे के हिस्से हैं जो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विचार किए जाने वाले विषयों में से नहीं हैं। उदाहरण के लिए, पहले से ही सार्वजनिक डोमेन में मौजूद जानकारी से पता चलता है कि अडानी समूह द्वारा कोयले और ताप विद्युत उत्पादन और पारेषण उपकरण के आयात में कथित रूप से ओवर-इनवॉइसिंग की डीआरआई की जाँच इस सवाल के लिए प्रासंगिक हो सकती है कि क्या अपतटीय फर्में अदानी समूह से जुड़ी हुई हैं। डीआरआई की जांच में आरोप लगाया गया था कि ओवर-इनवॉइसिंग योजना की आय अडानी समूह की कंपनियों में एफपीआई निवेश के रूप में भारत में वापस "राउंड-ट्रिप" की जा रही थी, और इसने अपतटीय फर्मों के एक नेटवर्क के एक हिस्से का खुलासा किया था जिन पर आरोप लगाया गया था जो अडानी समूह के प्रवर्तकों से संबंधित थीं। इनमें से किसी भी सूचना पर अभी तक सुप्रीम कोर्ट ने विचार नहीं किया है और न ही विशेषज्ञ समिति ने इस पर विचार किया है।
अभी के लिए यही लगता है कि समिति की रिपोर्ट इस संभावना को जन्म देती है कि सुप्रीम कोर्ट का मामला अंततः अडानी समूह की बड़ी दायरे की जांच किए बिना, उसे अपतटीय फर्मों की कानूनी स्थिति से संबंधित मुद्दों के संकीर्ण और विशिष्ट सवालों के दायरे से मुक्त कर देगा और घोटाले में उठे मुद्दों पर पर्दा डाल देगा।
लेखक, बेंगलुरु स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।
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