भाजपा में इतना अहंकार आता कहां से है?
अभी सिर्फ तारीखें घोषित हुई हैं। अभी नामांकन फ़ार्म भरे जाने हैं। फिर पूरी प्रक्रिया होगी। उसके बाद वोट डलेंगे। 3 दिसंबर को गिनती होगी तब जाकर पता चलेगा कि इंदौर की 1 नम्बर सीट से कौन जीता। मगर इस सीट से प्रत्याशी बनाए गए भाजपा के बड़बोले नेता कैलाश विजयवर्गीय ने अभी से खुद को विधायक कहना शुरू कर दिया है। खबरों की मानें तो वे अफसरों को धमकाते हुए कहते हैं कि विधायक मैं ही हूं। वे यहीं तक नहीं रुकते और कहते हैं, "सिर्फ विधायक बनने नहीं आया हूं, मुझे बड़ी जिम्मेदारी मिलने वाली है" कहकर इशारों इशारों में प्रदेश की सबसे ऊपर की कुर्सी की तरफ इशारा भी कर देते हैं। ये वही कैलाश जी हैं जिन्होंने सूची में नाम आने पर तकरीबन मुंह बिसूरते हुए अपनी नाखुशी जाहिर की थी और कहा था कि"मैं अंदर से खुश नहीं हूं। मेरी चुनाव लड़ने की कोई इच्छा नहीं थी - एक प्रतिशत भी नहीं। मैं अब वरिष्ठ नेता हूं, क्या अब हाथ जोड़कर वोट मांगूंगा?" इस संवाद में उनका "हाथ जोड़कर वोट मांगने" के साथ नत्थी हिकारत भाव दिलचस्प है। अब अचानक वे विधायक और भावी सी.एम. बने घूम रहे हैं। यह घमंड उनके अकेले का नहीं है - शिवराज, जिनकी टिकिट चौथी सूची में जाकर घोषित हुयी है, वे भी अन्दर अन्दर भले कुछ भी महसूस करते हों, कैबिनेट की मीटिंग में अलविदा बोलते हों मगर भीड़ से "मुझे सी.एम. बनना चाहिए कि नहीं" का गुरूर दिखाते हुए मजमेबाजी कर ही रहे है।
ससदीय लोकतंत्र में चुनाव ही ऐसा मौक़ा होता है जब ऊंट सचमुच में पहाड़ के नीचे आता है। नेता नेतानियो को गरीब गुरबों यानी आम मतदाताओं के पास जाना होता है। यही महीना पंद्रह दिन होते हैं जब अभद्र से अभद्रतम भी शिष्ट से शिष्टतर हो जाते हैं। फूले नथुने पिचक जाते हैं। शब्दों में मुलायमियत, वाणी में शहद और बर्ताव में हद दर्जे की लोचनीयता आ जाती है। मगर भाजपा अलग तरह की पार्टी है; उसमे घमंड, गुरूर, अहंकार 24 घंटा सातों दिन बरकरार रहता है। यह सिर्फ बीच के नेताओं या नीचे की कतारों तक सीमित खासियत नहीं हैं - इनके सर्वोच्च नेता, जिनके नाम पर विधानसभा के भी चुनाव लड़े जाने की घोषणा की गयी है, वे इनसे भी आगे वाले हैं; बाकी तो सिर्फ मैं, मैं, मैं करते हैं, वे तो सीधे खुद अपने ही श्रीमुख से मोदी, मोदी, मोदी करते हैं। इतना अहंकार कहां से लाते हैं ये लोग? इस घमंड का उदगम कहां है, इसका पोषण कहां से होता है?
इसके एक नहीं कई स्रोत हैं।
एक तो वह अकूत पैसा है जो पिछली 20 वर्षों में मप्र और 9 वर्षों में केंद्र में सत्ता में रहकर, भ्रष्टाचार के कीर्तिमान कायम कर खुद कमाया है और अपने ख़ास कार्पोरेट्स को कमवाया है। और अगर खुदा न खास्ता मतदाता नहीं बिके तो चुनाव के बाद उनके मतों से चुने विधायकों को ही खरीद लेंगे।
दूसरा भरोसा उन्मादी ध्रुवीकरण पर है। उन्हें भरोसा है कि पहले धर्म के नाम पर, उसके बाद क्षेत्र के मिजाज के अनुसार जाति, वर्ण और गोत्र के नाम पर कर लेंगे। यह सब करने के लिए जो तिकडम करनी होगी कर लेंगे, पाखंड रचना हो तो रच लेंगे, झूठ जपना होगा जप लेंगे। अब तक की गलेबाजी को देखकर तो लगता है कि इस बार का चुनाव तो इजरायल और फिलिस्तीन के नाम पर सीधे गाजा पट्टी से ही लड़ कर मानेंगे! कई शहरों में तो जिसे इजरायल की जनता तक हटाने के लिए आतुर है उस बेंजामिन नेतन्याहू के साथ गलबहियां करते हुए बड़े बड़े होर्डिंग्स तक लगा दिए गए थे।
(लेखक लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)
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