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बिहार की चुनावी राजनीति में ऊंची जातियों का दबदबा क़ायम

बहुचर्चित बिहार जाति सर्वेक्षण के बाद हुए पहले चुनाव में कुल 10.72 फीसदी उच्च जातियों के 12 सांसद निर्वाचित हुए हैं, जो राज्य की कुल 40 लोकसभा सीटों का 30 फीसदी हिस्सा है।
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पटना: पिछड़े बिहार में, जिसे 1990 के दशक से व्यापक रूप से “मंडल” राजनीति के केंद्र के रूप में देखा जाता रहा है, वहां राज्य में हुए 2024 के लोकसभा चुनाव के परिणाम संकेत देते हैं कि चुनावी राजनीति में शक्तिशाली उच्च जातियों का प्रभुत्व अभी भी कायम है।

चुनाव परिणाम, पिछले वर्ष बिहार में किए गए जाति सर्वेक्षण और उसकी रिपोर्ट के सार्वजनिक होने के बाद, सत्तारूढ़ जनता दल-यूनाइटेड (जेडी-यू) और विपक्षी राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के शीर्ष नेताओं द्वारा आनुपातिक राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के किए गए दावों के खोखलेपन को उजागर करता है।

पिछले साल अक्टूबर (2023) में बहुचर्चित बिहार जाति सर्वेक्षण रिपोर्ट आने के बाद अप्रैल-मई-जून (2024) में हुए पहले चुनावों में ऊंची जातियों (हिंदू) के 12 सांसद चुने गए, जो राज्य की कुल 40 लोकसभा सीटों का 30 फीसदी है। यह इस तथ्य के बावजूद है कि उनकी आबादी (उच्च जातियां - भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और कायस्थ) राज्य की कुल आबादी का मात्र 10.72 फीसदी है।

जातिगत सर्वेक्षण रिपोर्ट से पहले, बिहार में 2019 के लोकसभा चुनाव में उच्च जातियों के 13 सांसद चुने गए थे।

राजनीतिक विश्लेषक सत्यनारायण मदान ने न्यूज़क्लिक को बतया कि, "राज्य में चुनावी राजनीति में ऊंची जातियों का दबदबा है, क्योंकि ज़मीनी स्तर पर सामाजिक-राजनीतिक समीकरण उनके पक्ष में हैं। यह चुनाव जीतने में अहम भूमिका निभाता है। जब तक बिहार में वर्चस्वशाली जाति की राजनीति का चलन खत्म नहीं हो जाता, तब तक ऊंची जातियों का राजनीतिक रसूख बना रहेगा।"

मदान ने कहा कि ऊंची जातियां न केवल वर्चस्वशाली जातियां थीं, बल्कि वे अति पिछड़ी जातियों (ईबीसी) और दलितों के विपरीत एक राजनीतिक रूप से सुव्यवस्थित समुदाय भी थीं। इसके अलावा, मंडल के बाद की राजनीति में पिछड़ी और अगड़ी जातियों के बीच की खाई कम हुई है और पिछड़ी एकता भी टूटी है।

उन्होंने कहा, "2000 के दशक की शुरुआत तक जैसी पिछड़ी एकता और पिछड़ा जुटान था, वैसा अब नहीं है।"

मदान कहते हैं कि, ऊंची जातियों में राजपूत और भूमिहार वे राजनीतिक समुदाय हैं जो जातिगत राजनीति को आगे बढ़ाते हैं। उन्होंने कहा कि सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र पर उनकी पकड़ मजबूत है, उनके पास ज़मीन-जायदाद है, उनके पास अलग-अलग व्यवसाय हैं और ग्रामीण इलाकों में वे अपनी बाहुबल के लिए जाने जाते हैं।

मदान की बात सही लगती है। 12 नवनिर्वाचित उच्च जाति सांसदों में से छह राजपूत, तीन भूमिहार, दो ब्राह्मण और एक कायस्थ हैं।

इसी तरह यादव, कुर्मी-कुशवाहा जैसी अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) जातियां, जो प्रमुख जातियां हैं और एक राजनीतिक समुदाय भी हैं, चुनावी राजनीति में मुखर रहती हैं। इस बार (2024 के लोकसभा चुनाव) सात सांसद यादव हैं और पांच सांसद कुर्मी-कुशवाहा समुदाय से हैं।

राजनीतिक टिप्पणीकार डी.एम. दिवाकर के अनुसार, उच्च जातियों के साथ-साथ अन्य जातियों के मुक़ाबले ओबीसी में भी प्रभावशाली लोग चुनावी राजनीति को नियंत्रित करते हैं, जोकि जातियां गरीब, वंचित व कमजोर हैं।

पटना के एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज के पूर्व निदेशक दिवाकर ने कहा कि, "बिहार में चुनावी राजनीति में शामिल लोगों का वर्ग चरित्र 1931 में हुई आखिरी जाति जनगणना और 1935 के अधिनियम के बाद से बहुत ज्यादा नहीं बदला है। यह आज भी ब्राह्मणवादी व्यवस्था की निरंतरता के अलावा कुछ नहीं है। गरीब, कमजोर और वंचित वर्गों को आनुपातिक राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है।"

उन्होंने कहा कि यह विडंबना है कि चुनावी राजनीति में गैर-उत्पादक वर्ग का दबदबा जारी है। उन्होंने कहा, "अगर शिक्षा में मंडल आयोग की अन्य सिफारिशें लागू की जाएं और राज्य में भूमि सुधार किए जाएं तो इसमें बदलाव लाया जा सकता है।"

उदाहरण के लिए, भूमिहीन मुसहर जाति को ही लें, जो सबसे गरीब और सबसे हाशिए पर पड़ी दलित जाति है, जिसकी आबादी राज्य में 3.0872 फीसदी है, जो कि हाल ही में हुए जाति सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार राजपूतों की 3.4505 फीसदी आबादी के लगभग बराबर है। लेकिन मुसहर समुदाय से आने वाले केवल एक सांसद जीतन राम मांझी ही अपने पारंपरिक आरक्षित संसदीय क्षेत्र गया से चुने गए हैं। मांझी पूर्व मुख्यमंत्री और हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा के संस्थापक हैं, जो राज्य में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का सहयोगी है।

मदन ने कहा, "मुसहर अभी तक एक राजनीतिक समुदाय के रूप में नहीं उभरे हैं और अपनी खराब सामाजिक-आर्थिक स्थिति के कारण आज तक राजनीतिक रूप से संगठित नहीं हैं।"

बिहार जाति सर्वेक्षण रिपोर्ट ने गैर-राजनीतिक प्रमुख जातियों के उच्च प्रवास दर, गरीबी और कम आय के साथ गहरे संबंध को भी उजागर किया है। सामाजिक-आर्थिक आंकड़ों ने पुष्टि की कि बिहार में गरीबी व्याप्त है, राज्य के सभी परिवारों में से 34.13 फीसदी गरीब हैं। गरीब परिवारों की संख्या अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) में सबसे अधिक है, उसके बाद ओबीसी और ईबीसी आते हैं।

आंकड़ों के अनुसार, 42.93 फीसदी एससी परिवार और 42.70 फीसदी एसटी परिवार गरीब हैं, जबकि 33.16 फीसदी ओबीसी परिवार और 33.58 फीसदी ईबीसी परिवार भी गरीब हैं। एससी में, मुसहर समुदाय में गरीबी सबसे अधिक है, जिसे जाति पदानुक्रम में भारत के सबसे हाशिए पर पड़े समूहों में से एक के रूप में जाना जाता है। लगभग 54 फीसदी मुसाहर परिवार गरीबी से त्रस्त हैं, इसके बाद 53 फीसदी भुइयां और 42 फीसदी चमार या मोची हैं।

ओबीसी में यादवों के 35.87 फीसदी परिवार गरीब हैं, उसके बाद 34.32 फीसदी कुशवाह और 29.9 फीसदी कुर्मी हैं। सर्वेक्षण में पाया गया कि राज्य में 34.13 फीसदी परिवारों की मासिक आय मात्र 6,000 रुपये है। इसका मतलब है कि वे सभी 200 रुपये प्रतिदिन की आय पर गुजारा करते हैं।

यह एक कड़वा सच है कि राज्य में कई संसदीय सीटें हैं जो पिछले चार लोकसभा चुनावों (2009 से) में उच्च जातियों द्वारा जीती गई हैं। इन सीटों में बेगूसराय, महाराजगंज, वैशाली, दरभंगा, मुंगेर, नवादा, पटना साहिब और बक्सर शामिल हैं। 1990 के दशक की शुरुआत से लेकर आज तक, अधिकांश ज्ञात “बाहुबली” (बलवान) राजनेता, जिनमें से कुछ अपराधी से राजनेता बने हैं, उच्च जातियों से संबंधित हैं, जो चुनावों में अपनी जाति के लोगों के पक्ष में संतुलन बनाने में भी प्रमुख भूमिका निभाते हैं।

हालांकि 2024 में कुछ बदलाव की बात कही जा रही है। 1952 के बाद पहली बार औरंगाबाद सीट पर आरजेडी के कुशवाहा उम्मीदवार ने जीत दर्ज की है। अभय कुशवाहा चुने गए और ऐसा करने वाले वे पहले गैर-राजपूत बन गए हैं।

चुनावी राजनीति के नवीनतम रुझानों के अनुसार, सामाजिक न्याय के लोकप्रिय हिंदी नारे "जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी" या "जितनी आबादी, उतनी हिस्सेदारी" जाति सर्वेक्षण रिपोर्ट के बाद भी कागजों पर ही रह गए हैं।

चूंकि अन्य ओबीसी और ईबीसी से संबंधित केवल 20 सांसद चुने गए हैं, जो कुल 40 सीटों का 50 फीसदी हैं। ओबीसी (27.2 फीसदी) और ईबीसी (36.01 फीसदी) की संयुक्त आबादी 63 फीसदी है, लेकिन चुनावी राजनीति में उच्च जातियों के प्रभुत्व को चुनौती देने में वे अभी भी पीछे हैं।

मदन ने बताया कि बिहार जाति सर्वेक्षण रिपोर्ट से कोई राजनीति उत्पन्न नहीं हुई, जबकि ऐसी उम्मीद थी कि पिछड़ी जातियां एकजुट होंगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

विडंबना यह है कि इस बार मुस्लिम समुदाय से केवल दो सांसद ही चुने गए हैं। बिहार की आबादी में मुसलमानों की हिस्सेदारी 17.7 फीसद है।

राजनीतिक टिप्पणीकार सुरूर अहमद ने कहा कि, "2019 में आरजेडी के नेतृत्व वाले महागठबंधन और बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए के बीच वोटों का अंतर 27 फीसदी था। इस बार यह घटकर सिर्फ़ 9 फीसदी रह गया है। यह आंकड़ा इस बात की पुष्टि करता है कि महागठबंधन ने पिछड़ी जातियों, दलितों और मुस्लिम वोटों के दम पर बड़ी वापसी की है।" उन्होंने आगे कहा कि पिछड़ी जातियों के वोट लेने वाले दो लोग हैं - नीतीश कुमार की सत्तारूढ़ जेडी-यू और तेजस्वी यादव की आरजेडी।

उन्होंने कहा कि, "यह पड़ोसी उत्तर प्रदेश से बिल्कुल उलट था, जहां समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने अकेले ही पिछड़े वोटों का बहुमत छीन लिया था। भाजपा ने योगी आदित्यनाथ और उच्च जातियों को अपना चेहरा बनाया था। यह न केवल बिहार में बल्कि पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में भी भाजपा द्वारा ध्रुवीकरण की संभावना को रोकने के लिए कम संख्या में मुसलमानों को मैदान में उतारने की रणनीति थी।"

छह आरक्षित सीटों से छह दलित चुने गए हैं। एनडीए का दलितों के बीच मजबूत आधार है। इसके दो सहयोगी - चिराग पासवान की अध्यक्षता वाली लोजपा (आर) और हम के जीतन राम मांझी - दलित नेता हैं। छह आरक्षित सीटों में से, भाजपा की सहयोगी लोजपा (आर) ने हाजीपुर सहित तीन सीटें जीतीं, जबकि अन्य सहयोगी जेडी-यू और हम ने एक-एक सीट जीती। सासाराम की केवल एक आरक्षित सीट कांग्रेस ने जीती है।

2004 के चुनाव के बाद से राजद ने राज्य में कोई भी आरक्षित सीट नहीं जीती है।

बिहार 1990 के दशक से ही मंडल राजनीति का केंद्र रहा है और इस दौरान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जेडी-यू और पूर्व सीएम लालू प्रसाद की आरजेडी ने राज्य पर शासन किया है, जिससे सामाजिक न्याय की उनकी प्रतिबद्धता को व्यवहार में लाने की उम्मीद जगी है। लेकिन वे अभी भी आबादी के हिसाब से राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित नहीं कर पाए हैं।

मूलतः अंग्रेजी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :

Bihar: Upper Caste Dominance Continues in Electoral Politics

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