संयुक्त राष्ट्र चार्टर पुराना है और वह अपना मक़सद पूरा करता नज़र नहीं आता है
1648 में वेस्टफेलिया की शांति संधि पर हस्ताक्षर करने से लेकर 1945 में संयुक्त राष्ट्र (यूएन) चार्टर तक, विश्व ने एक ऐसा संगठन स्थापित करने के संघर्ष में एक लंबा सफर तय किया है जो किसी भी सांसारिक प्राधिकार के अधीन न हो, जो गरिमा को कायम रखे और क्षेत्रों पर संप्रभु शक्ति के अनियंत्रित प्रयोग पर नियंत्रण रखे।
इसे दुनिया भर में शांति, सुरक्षा और लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देने और उन्हें बनाए रखने का काम सौंपा गया था। इसमें कोई संदेह नहीं है कि किसी भी संगठन के लिए यह एक बड़ा काम है और हर संगठन अपने लक्ष्य को हासिल करने में विफल रहता है, यही वजह है कि इसके लिए मानक इतने ऊंचे रखे गए हैं।
लेकिन इन आदर्शों को हासिल करने के लिए संयुक्त राष्ट्र की ओर से कभी कोई वास्तविक प्रयास नहीं किया गया। इसकी शुरुआत से ही इसका विफल होना तय था क्योंकि आदर्श और अनुच्छेद हमेशा एक दूसरे के सीधे टकराव में रहे हैं।
संयुक्त राष्ट्र के भीतर आदर्शों और सत्ता के तंत्रों के बीच ढांचागत असंतुलन गज़ा में चल रहे संकट के संदर्भ में पहले कभी इतना स्पष्ट नहीं हुआ था। यह संकट मूलभूत मुद्दे को उजागर करता है: शांति की रक्षा के लिए बनाई गई संस्था अक्सर अपने हाथ बंधे हुए पाती है, व्यावहारिक बाधाओं के कारण नहीं, बल्कि इसके ढांचे में अंतर्निहित असंतुलन के कारण ऐसा होता है।
संयुक्त राष्ट्र चार्टर की प्रस्तावना "हम लोग" से शुरू होती है और यह वेस्टफेलियन सिद्धांत पर आधारित है कि अंतर्राष्ट्रीय कानून में सभी देश समान हैं। यह देशों के ज़रिए सभी लोगों के समान प्रतिनिधित्व का आह्वान करता है और चार्टर में निहित दायित्वों को स्वीकार करने वाले सभी देशों की सदस्यता के लिए खुला है। लेकिन जैसा कि सलिल शेट्टी पूछते हैं कि, "निर्णय लेने में लोगों की आवाज़ कहां है?
चार्टर के अनुच्छेद 2 में कहा गया है कि “संगठन अपने सभी सदस्यों की संप्रभु समानता के सिद्धांत पर आधारित है”, जो फिर से लोकतंत्र के विचार के प्रति संयुक्त राष्ट्र की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। हालांकि, सुरक्षा परिषद के स्थायी पांच सदस्यों को दी गई वीटो शक्ति लोकतांत्रिक मूल्यों का स्पष्ट उल्लंघन है।
शक्ति में यह असंतुलन न केवल यह दर्शाता है कि संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्यों की राय एक जैसी नहीं है, बल्कि यह युद्ध और मानवता के विरुद्ध अपराधों की गंभीर स्थितियों में संयुक्त राष्ट्र की निष्क्रियता का प्रमुख कारण भी रहा है।
स्थायी पांच देश खुद को बचाने के लिए वीटो शक्ति का खुलकर इस्तेमाल करते हैं, भले ही वे हमलावर हों और मानवाधिकारों के उल्लंघन के जिम्मेदार हों। जवाबदेही के बिना लोकतंत्र एक दिखावा है और जैसा कि थॉमस पेन ने हमें चेतावनी दी थी कि, "किसी के प्रति खुद को जवाबदेह न रखने वाले लोगों के समूह पर किसी को भी भरोसा नहीं करना चाहिए।"
इसके अलावा, न तो चीन और न ही रूस लोकतंत्र हैं, फिर भी दोनों को दुनिया पर लोकतांत्रिक मूल्यों को लागू करने का अधिकार दिया गया है। इन देशों की सत्ता के दावे पर भी सवाल उठाया जाता है क्योंकि दोनों ही सुरक्षा परिषद के मूल स्थायी सदस्यों में से नहीं थे।
रूस और चीन, दोनों का स्थायी सदस्यता का दावा उत्तराधिकार पर आधारित है जो गणतंत्रीय मूल्यों के खिलाफ है। हमें ऑरवेलियन विचार को याद करने पर मजबूर होना पड़ता है, "सभी जानवर समान हैं, लेकिन कुछ जानवर दूसरों की तुलना में अधिक समान हैं।"
1945 में संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के बाद से, चार्टर में सिर्फ़ तीन बार 1963, 1965 और 1973 में संशोधन किया गया है। इसका मतलब यह नहीं है कि संशोधनों के अलावा चार्टर में कोई बदलाव नहीं किया गया है। संयुक्त राष्ट्र में ज़्यादातर सुधारों को औपचारिक संशोधन के बिना ही पेश करना पड़ा है क्योंकि स्थायी पांच सदस्यों द्वारा वीटो पावर का दुरुपयोग किया जाता है। पिछले कुछ सालों में वीटो पावर में सुधार के लिए कई प्रस्ताव आए हैं, लेकिन सभी चुनौतियों से भरे हुए हैं।
सबसे शुरुआती और सबसे महत्वाकांक्षी प्रस्तावों में से एक वीटो शक्ति को पूरी तरह से खत्म करना है। वीटो तंत्र अपनी शुरुआत से ही विवादास्पद रहा है, इसे हटाने के लिए कई बार मांग की गई है।
हालांकि, इस संबंध में चार्टर में औपचारिक रूप से संशोधन करने के किसी भी प्रयास से अनिवार्य रूप से स्थायी पांचों देशों के वीटो में बाधा का सामना करना पड़ेगा, जिससे उनके अपने विशेषाधिकार सुरक्षित रहेंगे। अक्टूबर 2022 के अंत में, रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने वीटो शक्ति को हटाने के तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोआन द्वारा प्रस्तुत विचार को अस्वीकार कर दिया था।
एक अन्य प्रस्तावित दृष्टिकोण है ‘वीटो न करने की जिम्मेदारी’ (RN2V)। 2001 में पहली बार प्रस्तावित इस पहल में प्रावधान किया गया था कि पांचों स्थायी सदस्यों को उन मामलों में अपने वीटो का प्रयोग नहीं करना चाहिए जहां उनका अपना हित शामिल न हो या ऐसे मामलों में जहां अन्यथा बहुमत का समर्थन हो।
पिछले कुछ सालों में RN2V के विचार को और अधिक समर्थन मिला है, लेकिन सुरक्षा परिषद के स्थायी पांच सदस्यों ने, फ्रांस को छोड़कर, इस विचार के प्रति कोई झुकाव नहीं दिखाया है। ऐसी स्थिति में, स्थायी पांचों के बीच किसी तरह के सामंजस्य की उम्मीद करना केवल एक ख़्वाहिश है।
वीटो में सुधार को संबोधित करने के अलावा, सुरक्षा परिषद की सदस्यता का विस्तार करने के लिए भी आह्वान किया गया है ताकि बदलते वैश्विक राजनीतिक और आर्थिक परिदृश्य को बेहतर ढंग से दर्शाया जा सके। जी-4 देशों (भारत, जर्मनी, जापान और ब्राजील) को नए स्थायी सदस्यों के रूप में शामिल करने का प्रस्ताव इस आधार पर है कि शक्ति का वर्तमान वितरण अब 1945 में स्थापित विश्व व्यवस्था का सटीक प्रतिनिधित्व नहीं करता है।
हालांकि, "यदि परिषद अपने पांच स्थायी सदस्यों के हितों के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं कर सकती, तो वह बड़ी सदस्यता के हितों के साथ कैसे सामंजस्य स्थापित करेगी?" यह कई देशों द्वारा उठाया गया एक बहुत ही प्रासंगिक प्रश्न है।
वैकल्पिक सुझावों का उद्देश्य वीटो शक्ति को पूरी तरह से समाप्त किए बिना इसके दायरे को सीमित करना है। कीथ एल. सेलन वीटो को “दोहरे बहुमत” से बदलने का सुझाव देते हैं जिसके लिए कम से कम तीन स्थायी सदस्यों सहित आठ सदस्यों की सहमति की आवश्यकता होगी।
माइकल जे. केली ने सुझाव दिया है कि यदि कोई मामला पांच स्थायी सदस्यों में से किसी एक द्वारा वीटो किया जाता है, तो महासभा के विशेष सत्र की घोषणा की जानी चाहिए। यदि प्रस्ताव को महासभा में बहुमत मिलता है, तो वीटो को रद्द किया जा सकता है। चूंकि इन दोनों प्रस्तावों के लिए स्थायी पांचों की सहमति की आवश्यकता होती है और इससे उनके विशेषाधिकारों में हस्तक्षेप होगा, इसलिए उन्हें वीटो किए जाने की संभावना है।
चार्टर में संशोधन की कठिनाई को देखते हुए, कुछ स्कोलर्स ने सुधार के लिए प्रथागत अंतर्राष्ट्रीय कानून के विकास को अधिक व्यवहार्य मार्ग के रूप में देखा है। कुछ शिक्षाविद इस बात से सहमत हैं कि “सुरक्षा की जिम्मेदारी” सिद्धांत ने पहले ही अधिकार या आवश्यकता के विचार के तत्व हासिल कर लिया है।
कोसोवो से लेकर इराक तक, मानवाधिकारों के घोर उल्लंघन के बावजूद उक्त देशों द्वारा वीटो को दरकिनार करने के कई उदाहरण हैं। हंडयानी और पोएराना ने ग्रोटियन मोमेंट धारणा के माध्यम से आर2पी सिद्धांत के विकास की व्याख्या की है और तर्क दिया है कि "आर2पी की प्रकृति के कारण रीति-रिवाज के नए नियम असामान्य तेज़ी और स्वीकृति के साथ उभरते हैं"।
इससे पता चलता है कि भले ही औपचारिक संशोधन अवरुद्ध रहें, फिर भी अंतर्राष्ट्रीय समुदाय नए मानदंडों और प्रथाओं के माध्यम से वीटो के आसपास काम करने के तरीके ढूंढ सकता है।
वीटो शक्तियां संयुक्त राष्ट्र का फ़ॉस्टियन सौदा है, स्थायी सदस्यों को उनकी निष्ठा सुनिश्चित करने और संस्था को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए दी गई रिश्वत है। लेकिन इस समझौते ने संयुक्त राष्ट्र को उनकी सनक का बंधक बना दिया है, और इस विशेषाधिकार को छीनने का कोई भी वास्तविक प्रयास एकता के नाजुक भ्रम को चकनाचूर कर देगा, जो अंतत संगठन के पतन का कारण बनेगा।
वीटो शक्ति की स्थायी उपस्थिति, जिस पर कुछ चुनिंदा देशों का एकाधिकार है, संप्रभुता और लोकतंत्र के मूल सिद्धांत को कमजोर करती है जिसे कि संगठन बनाए रखने का दावा करता है। जैसे-जैसे वैश्विक टकराव/युद्ध और मानवीय संकट सामने आते जा रहे हैं, संयुक्त राष्ट्र की निर्णायक रूप से कार्य करने की क्षमता पर लगातार सवाल उठ रहे हैं।
वास्तविकता यह है कि संस्था के पर्याप्त पुनर्गठन के बिना, संयुक्त राष्ट्र एक बीते युग का अवशेष बनकर रह जाने का जोखिम उठा रहा है। नरसंहार की राख से जन्मा एक संगठन अब उसी हुकूमत द्वारा किए गए नरसंहार के हाथों अपनी कीमत चुकाने का सामना कर रहा है, जिसे वह कभी बचाने की कोशिश करता था।
सुरक्षा का उत्तरदायित्व (आर2पी) जैसे नए मानदंडों का विकास आशा की एक किरण प्रदान करता है, लेकिन संगठन के मूल में शक्ति असंतुलन का सामना करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति के बिना, ये उपाय अपर्याप्त रह सकते हैं।
वास्तविक सुधार के लिए स्थायी पांच सदस्यों की ओर से अभूतपूर्व स्तर के समझौते और पुनर्गठन की आवश्यकता होगी। तब तक, संयुक्त राष्ट्र एक विरोधाभास में फंसा हुआ रहेगा, एक वैश्विक निकाय जिसे शांति और न्याय लागू करने के लिए डिज़ाइन किया गया है, लेकिन व्यवहार में, संघर्ष और असमानता को बनाए रखने में सक्षम संरचनाओं द्वारा विवश किया जाता है।
लेखक दिल्ली स्थित वकील, हरिन पी. रावल के कार्यालय में प्रैक्टिस करती हैं, मानवाधिकारों के प्रति सक्रिय हैं।
सौजन्य: द लीफलेट
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